अवनींद्र नाथ ठाकुर | Abanindranath Tagore

अवनींद्र नाथ ठाकुर | Abanindranath Tagore

अवनींद्र नाथ ठाकुर का जन्म उसी ठाकुर परिवार में हुआ था, जिसने भारत को कई विभूतियां प्रदान की। वह ठाकुर-परिवार के जोड़ासांको स्थित भवन में ७ अगस्त १८७१ को पैदा हुए थे। उस साल उसी दिन जन्माष्टमी भी पड़ी थी। ठाकुर परिवार भारत के कला-जीवन में विशेष महत्व रखता है।

अवनींद्रनाथ के पिता का नाम गुणेंद्रनाथ ठाकुर था। कला में उनकी विशेष रुचि थी। उनके दादा गिरींद्रनाथ ठाकुर भी एक अच्छे कलाकार थे। पाश्चात्य ढंग पर लैंडस्केप चित्रित करने में उन्होंने अच्छी ख्याति पाई थी। अवनींद्र नाथ के सबसे बड़े भाई गगनेंद्र नाथ ठाकुर भी एक एक ऊंचे दर्जे के कलाकार थे।

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महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर उनके चाचा लगते थे। ऐसी परिस्थिति में उनका एक कलाकार होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। रवींद्रनाथ ठाकुर तो ऐसे थे कि जो भी व्यक्ति उनके पास आता था, वह उसे हर प्रकार से प्रोत्साहन देते थे। फिर अपने प्रतिभाशाली भतीजे को वह प्रेरणा कैसे न देते ? उन्होंने अवनींद्र नाथ को बराबर बढ़ावा दिया और उनकी कृतियों की इस दृष्टि से आलोचना की कि उनमें सुधार हो।

अवनींद्र नाथ की विशेषता इस बात में है कि उन्होंने उस समय प्रचलित पश्चिमी धारा को नहीं अपनाया। उन्होंने उससे सीखा तो बहुत कुछ पर स्वयं उस धारा में बह नहीं गए, जैसा कि उस युग के अन्य कलाकारों का हाल था। उन्होंने अपने लिए एक नई दिशा ढूंढ निकाली। उन्होंने प्राचीन भारतीय कला का एक तरह से पुनरुद्धार किया और पाश्चात्य जगत से सीखे हुए तरीकों पर उस थाती को फिर से जनता के सामने उपस्थित किया।

कला जगत में वह कितने महान थे और उनके द्वारा की गई कला सेवाओं की क्या ऐतिहासिक महत्ता है, इसे समझाने के लिए तो बहुत अधिक लिखने की आवश्यकता है। पर सामान्य तौर पर इतना सबको जान लेना चाहिए कि अवनींद्र वह व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत की प्राचीन कला के साथ आधुनिक जगत की नई कला का संबंध स्थापित किया। वह अपने समय के या अपने से पहले के दूसरे कलाकारों की तरह पाश्चात्य कला की जूठन से संतुष्ट नहीं हुए।

उनके सामने सदा यह आदर्श रहा कि किसी भी जाति के पास अपनी निजी कला, अपना निजी साहित्य तथा अपना निजी संगीत होना ही चाहिए। अतः अवनींद्र नाथ ने अपने ढंग से भारत की प्राचीन कला को एक नए रूप में उपस्थित करने की चेष्टा की । ऐसा करने में वह सफल भी रहे। यह तथ्य इस बात से ही आसानी से प्रमाणित हो जाता है कि जिन छात्रों को उन्होंने शिक्षा दी, उन्हीं में से अनेक भारत के एक-से-एक बढ़कर कला-शिक्षक बने।

अपनी कला साधना के बारे में अवनींद्र ने स्वयं लिखा है कि उन्होंने पहले-पहल जब चित्र बनाना शुरू किया, तो उन्हें बार-बार असफलता मिली। वह लिखते हैं – “इसीलिए तो मैं इन लोगों से कहता हूं कि सीखना क्या है? कुछ नहीं। बस, बार-बार यही मालूम होगा कि कुछ भी नहीं हुआ। मैं उसी दुख की बात कह रहा हूँ। सीखना कोई मामूली बात थोड़े ही है। कितना कष्ट करके मैंने चित्र बनाना सीखा है, यह क्या बताया जा सकता है? तुम लोगों की तरह नहीं, कि मजे में कमरे में बैठे हुए हैं। कुछ घंटे बैठे, कुछ किया, और मास्टर साहब आकर भूल सुधार गए।

अवनींद्र नाथ बचपन से ही कलाकार बनने के लिए चेष्टा कर रहे थे। उनके एक रिश्ते के भाई को हाथी के दांत पर चित्रकारी का शौक था। दिल्ली का एक व्यक्ति उन्हें हाथी दांत की चित्रकारी सिखाता था | कभी-कभी अवनींद्र उसके कमरे में पहुंच जाते और उनमें यह इच्छा प्रबल हो जाती कि मैं भी कलाकार बनू। उन्होंने इधर-उधर कई चित्र बनाए और उन चित्रों से ही यह समझ लिया कि अभी सीखने की आवश्यकता है। पर उन दिनों वह सीखते, तो किससे? कला की प्राचीन परिपाटी प्रायः लुप्त हो चुकी थी। भारतीय कला का तो कोई नाम भी न जानता था। अतः यह तय हुआ कि वह पाश्चात्य कला की शिक्षा प्राप्त करें। उन्होंने अपनी मां से पूछा, तो वह बोली, “कोई काम तो अवनींद्र नाथ कर नहीं रहे हो। स्कूल भी छोड़ दिया है। सीखो, अच्छा ही है। कुछ सीख जाओगे, तो अच्छा रहेगा।

उन दिनों आर्ट स्कूल में सिन्योर गिलार्दी नामक एक इटेलियन कलाकार उपाध्यक्ष थे। उन्हीं से वह निजी तौर पर शिक्षा प्राप्त करने लगे, यह तय हुआ कि एक-एक सबक के लिए बीस रुपये दिए जाएंगे। सिन्योर गिलार्दी अपने घर पर ही शिक्षा देते थे उन्हीं के पास उन्होंने पेड़, पेड़ की डाल, पत्ता आदि बनाना सीखा। वहीं “पेस्टल” का काम भी उन्होंने सीखा ।

तेल-चित्र और प्रतिकृति (रोलिक) बनाने की शिक्षा भी उन्हें वहीं मिली। अवनींद्र लिखते हैं – “चित्र-निर्माण कार्य का श्रीगणेश तो इन्हीं इतालवी गुरू के निकट हुआ। कुछ दिन बाद ऐसा लगने लगा कि विद्यारम्भ तो हुआ, पर प्रगति नहीं हो रही है । बंधे हुए सरगम की तरह ट्रेस करके धीरे-धीरे चित्र बनाना अधिक दिनों तक नहीं चला। पहले पेड़-पत्ते बनाने में फिर भी कुछ आनंद मिलता था, पर आर्ट स्कूल की रीति से कूची चलाना और रंग मिलाना, यह सब पसंद नहीं आया। छः महीनों के अंदर ही स्टूडियो की सारी विद्या समाप्त करके मैंने वहां से विदा ली।

इन्हीं दिनों रवींद्रनाथ ने “चित्रांगदा” लिखी और अवनींद्र नाथ पर यह जोर डाला कि वह उसके चित्र बनाएं। तदनुसार उन्होंने चित्र बनाए और इस प्रकार उनका ध्यान भारतीय विषयों की ओर गया। इसके साथ ही प्रतिकृति बनाने में भी वह बहुत आगे निकल गए। वह जिसको भी पाते उसे पकड़कर उसकी प्रतिकृति बनाने लगते। उन्हीं दिनों उस युग के सुप्रसिद्ध कलाकार रवि वर्मा, ठाकुर परिवार के भवन में आए। उस समय तक रवि वर्मा काफी विख्यात हो चुके थे, और अवनींद्र एक तरुण कलाकार थे। जिस समय रवि वर्मा, ठाकुर भवन में आए, अवनींद्र घर पर नहीं थे उनकी अनुपरिथिति में ही घर वालों ने रवि वर्मा को उनका स्टूडियो दिखलाया, जिसमें उनके बनाए हुए अनेक चित्र रखे हुए थे। रवि वर्मा उनके चित्र देखकर बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा कि चित्रकार के रूप में अवनींद्र का भविष्य उज्ज्वल है।

अब अवनींद्र नाथ पर तैलचित्र (आयल पेंटिंग) बनाना सीखने की धुन सवार हुई। उन्होंने सी.एल. पामर नाम के एक अंग्रेज कलाकार को अपना गुरू बनाया। अब माडल रखकर चित्र-विद्या की शिक्षा होने लगी।

एक बार एक अंग्रेज युवती माडल बनी। अवनींद्र ने उसका चित्र बनाया। वह चित्र उस युवती को इतना पसंद आया कि वह चित्र ही मांग बैठी। उसे समझाया गया कि तुम तो रुपये लेकर काम करने आई हो – तुम्हें चित्र से क्या मतलब ? पर वह बोली, “नहीं, मुझे रुपये नहीं चाहिए। मुझे यह तस्वीर दे दो, नहीं तो मैं यहां से हिलूंगी नहीं।

जब पामर साहब ने देखा कि यह ऐसे नहीं मानेगी, तो उन्होंने उसे धमकाया। धमकियों ने काम किया और वह चुपचाप चली गई । पर उनकी यह शिक्षा भी जल्दी समाप्त हो गई।

एक दिन पामर साहब ने एक माडल को सामने रख कर कहा, “दो घंटे के अंदर तुम इसकी कमर तक अपने चित्र में उतार लो |

उन्होंने ऐसा ही किया पामर साहब बहुत खुश हुए, बोले, तुमने बहुत अच्छा काम किया। बहुत सुंदर बना है।

अवनींद्र ने कहा, यह तो हुआ। अब यह बताइए कि आगे क्या करू।

पामर साहब ने उत्तर दिया, मुझे जो कुछ आता था, तुम्हें सिखा दिया। अब तुम शरीर-विज्ञान सीखो।

अवनींद्र ने उनकी आज्ञा का पालन किया। वह शरीर-विज्ञान सीखने में लग गए। शरीर-विज्ञान सीखने में मुर्दों से वास्ता पड़ता है। पामर साहब ने उन्हें एक मुर्दे का सिर दिया कि इसका चित्र बनाओ। उसे देखते ही उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि कोई रोग का कीटाणु उनकी तरफ बढ़ा आ रहा है। उन्होंने पामर साहब से यह बात कही। पर वह बोले, “नो, यू मस्ट डू इट। (नहीं, तुम्हें यह अवश्य करना पड़ेगा।)

इस बार भी अपनी इच्छा के विरुद्ध, उन्होंने यह काम किया। पर जब वह किसी तरह उस चित्र को बना चुके, तब उन्हें एक सो छः डिग्री बुखार था।

इसके बाद कुछ समय के लिए चित्र बनाने का कार्य रुक गया। इस बीच वह हेल्मर ग्रेन नाम के एक नार्वेवासी से फ्रेंच भाषा पढ़ने लगे। पर उनका मन तो चित्रकारी में बसता था।

अतः बेचारे ग्रेन साहब तो फ्रेंच पढ़ाते थे और अवनींद्र बैठे-बैठे उनका चित्र बनाते थे। अंत में उन्होंने फ्रेंच पढ़ना छोड़ दिया। यह महाशय नार्वे से राजा राममोहन राय का नाम सुनकर भारत पधारे थे। यहीं उनका देहांत भी हुआ। बाद में अवनींद्र ने अपनी फ्रेंच पढ़ने की कापियों में उनका चित्र बनाया, कुछ काल उपरांत नार्वे में ग्रेन के नाम पर एक अजायबघर खुला, तो उनके चित्र की आवश्यकता हुई। इस समय अवनींद्र ने वह चित्र निकाला और नार्वे भेज दिया। आगे चलकर, अवनींद्र को वाटर कलर या पानी के रंग के चित्र बनाने की धुन सवार हुई। वह चित्रकारी के सब साधन लेकर मुंगेर पहुंचे, और वहां घूम-घूमकर तरह-तरह के चित्र बनाए। इसी प्रकार, वह चित्र पर चित्र बनाते गए, पर उनकी तबीयत नहीं भरी। बात यह थी कि अभी तक उन्होंने उस गुर का आविष्कार न किया था, जिसके लिए उनका हृदय लालायित था।

इसी बीच उनके बहनोई ने उन्हें ईरानी चित्रों का एक संग्रह उपहार के रूप में भेजा। रवींद्र ने भी इसी समय उन्हें रवि वर्मा के कुछ चित्रों के फोटो भेजे उन दिनों रवि वर्मा भारतीय चित्रकारों में सबसे प्रसिद्ध थे। इन चित्रों को पाकर उनकी आंखें खुल गई । उनके मन में यह विचार आया कि पाश्चात्य चित्रकला के अतिरिक्त भी चित्र हो सकते हैं। अब विषय के लिए उनके सामने प्रश्न आए। ऐसे समय में उनके चाचा कवींद्र रवींद्र फिर सामने आए, और उन्होंने उन्हें सुझाया कि वैष्णव पदावली, अर्थात् पुरानी वैष्णव कविता पर, ही क्यों न चित्र बनाए जाए। यह बात उन्हें बहुत पसंद आई। उन्होंने पहले-पहल चंडीदास की एक कविता पर एक चित्र बनाया यद्यपि भारतीय पद्धति में यह पहला चित्र था, फिर भी उन्होंने आश्चर्य के साथ देखा कि इसमें राधा का जो चित्र बना था, वह साड़ी पहनी हुई मेम साहब का चित्र था।

इससे उन्हें बड़ी निराशा हुई, पर जल्दी ही इस निराशा पर उन्होंने विजय प्राप्त कर ली। अब उन्हें देशी पद्धति से चित्र बनाने की साधना करनी पड़ी। हाथ तो सधा हुआ था ही। वह जल्दी ही सीख गए। राजेंद्र मलिक के मकान में पवन नाम का एक मिस्त्री फ्रेम बनाने का काम करता था, उससे उन्होंने शिक्षा ली । इसी प्रकार और भी खोज चलने लगी। वह इस पद्धति को जल्दी ही सीख गए, और धड़ाधड़ चित्र बनाने लगे। कृष्ण-चरित्र, बुद्ध-चरित्र आदि लेकर उन्होंने चित्र बनाए और उनकी ख्याति सारे देश में फैल गई । वह कलकत्ता के आर्ट वाइस प्रिंसिपल बना दिए गए।

वह बहुत अच्छे संगीतज्ञ भी थे। कुछ लोगों का कहना है कि संगीत में पारंगत होने के कारण ही उन्होंने यह समझा था कि असली रस क्या है उन्होंने चीन और जापान की प्राचीन कलाओं का भी अध्ययन किया।

सन् १९०८ में वह प्राच्य कला के भारतीय समाज के संस्थापकों में हो गए। इसमें बहुत से भारत-प्रेमी यूरोपियन विद्वान भी थे । १९०७ से प्रति वर्ष उनके चित्रों की प्रदर्शनी भारत में होती रही। १९१४ में पेरिस के आंपाले में उनके चित्रों की एक प्रदर्शनी हुई, जिसके कारण उनका यश भारत के बाहर भी फैल गया। ब्रसेल्स और लंदन में भी उनके चित्रों की प्रदर्शनियां हुई।

कला-शिक्षक के रूप में भी वह बहुत सफल रहे। उनके शिष्यों में नंदलाल बोस, के.एन. मजूमदार, असित कुमार हालदार और डी.पी. राय चौधरी बहुत प्रसिद्ध हुए। यदि वह केवल एक कलाकार होते, तो उनकी ख्याति शायद उतनी नहीं फैलती, जितनी इस बात से फैली कि उन्होंने बहुत सारे महान कलाकारों को तैयार किया। उनके चित्रों में बुद्ध और सुजाता, निर्वासित यक्ष, दारा का सिर, कजली-नृत्य, अंतिम यात्रा, अशोक की रानी, शाहजहां का स्वप्न आदि प्रसिद्ध हैं।

५ दिसंबर १९५१ को उनका स्वर्गवास हुआ। उन्होंने अपने दीर्घ जीवन में जो कुछ किया, उससे भारत का मस्तक निस्संदेह ऊंचा हुआ।

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