कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी | Kanaiyalal Maneklal Munshi

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी | Kanaiyalal Maneklal Munshi

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के विषय में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने एक बार कहा था, “यदि मुंशी के कार्यों का मुझे मूल्यांकन करना हो तो मै कहूंगा कि उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के सम्मुख मै नत हूँ। लेकिन उनमें इससे भी कुछ अधिक है। उनमें ऐसी चुंबकीय शक्ति है कि जो कुछ भी उनके संपर्क में आता है या जो कुछ वह अपने हाथों में लेते हैं, उसमे वे नया प्राण फूंक देते है और उसे सजीव संस्थान बना देते हैं।”

स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा, संविधान के निर्माता केंद्र और राज्य सरकारों में मंत्री, उपन्यासकार, नाटककार और एक ऐसे संस्थान के निर्माता के रूप में, जो शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियो के लिए देश के सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों में से है, उनका व्यक्तित्व अप्रतिम रहा है। इन सभी क्षेत्रों में उन्होंने अद्भुत कार्य किया है।

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कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का जन्म


कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का जन्म ३० दिसंबर १८८७ को हुआ था| उनकी मां का नाम तापीबेन और पिता का माणिकलाल था। शिक्षा समाप्त कर मुंशी ने १९१३ में बंबई हाई कोर्ट में वकालत शुरू की और १९२१ तक उनकी गणना बंबई के मशहूर एडवोकेटो और गुजरात के चोटी के उपन्यासकारों में होने लगी थी।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का विवाह


१३ वर्ष की आयु में ही उनका विवाह हो गया था, किंतु १९२१ में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई और १९२२ में उनका दूसरा विवाह श्रीमती लीलावती मुंशी से हुआ।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के कार्य


कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को वकालत की जिंदगी से गहरा लगाव था। बंबई हाई कोर्ट की शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित ग्रंथ में मुंशीजी ने लिखा कि – “मुझे इस जीवन से प्यार है।“ वकालत का व्यवसाय उनके खून में था। उनके प्रपितामह करनदास मुंशी एक प्रसिद्ध वकील थे और सुरत के सदर कोर्ट में कुछ दिनों तक वह सरकारी वकील रहे। पितामह नरबहरम भी वकील थे। उनके पिताजी वकील न थे, परंतु उनके समय में मुंशी परिवार में लगभग आधे दर्जन वकील थे। मुशी ने वकालत का काम भूलाभाई देसाई से सीखा और भूतपूर्व महाधिवक्ता एम.सी. सीतलवाड़ उनके सहयोगियों में से थे। जुलाई १९१३ में मुंशी ने अपने जीवन का पहला महत्वपूर्ण मुकदमा थाना कोर्ट की एक अपील के सिलसिले में मुख्य न्यायाधीश स्काट की अदालत में लड़ा। उनके विरुद्ध एडवोकेट जनरल सर थामस स्ट्रैगमैन थे, जो उस समय जूनियर बार के लिए बहुत डरावने समझे जाते थे। इस मुकदमें में मुंशी ने मुख्य न्यायाधीश को बहुत प्रभावित किया, यद्यपि वह मुकदमा हार गए।

एक एडवोकेट के रूप में मुंशी की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सूक्ष्म दृष्टि और मानसिक तत्परता थी। उनकी कानूनी सूझ-बूझ बहुत पैनी व पकड़ गहरी थी। वह शीघ्र ही उन कानूनी मुद्दों को पकड़ते, जिन्हें जज उनके विरुद्ध रख सकता था और उनका जवाब तैयार कर लेते थे। बल्कि कभी-कभी इसी कारण मुकदमों को सही स्थिति समझने में उनसे भूल भी हो जाती थी, क्योंकि बारीकियों को समझने में वह मोटी-मोटी बातों को छोड़ देते थे या बारीकियों की पकड़ के कारण अनावश्यक बहस और उलझनों में फंस जाते थे |

१९४२ में मुंशी ने आंदोलनकारियों के लिए पैरवी की। देश भर की अनेक “ला रिपोर्टों’ में उनके मुकदमों का वर्णन मिलेगा।

भारत के संविधान सभा के सदस्य के रूप में मुंशीजी का अतीत का गहरा ज्ञान और प्राचीन भारतीय स्मृतिकारों के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा अभिव्यक्त हुई। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् नए संविधान के निर्माण का उत्तरदायित्व और गौरव उन्हें भी मिला था। वह संविधान के निर्माताओं में से थे। मुंशीजी सदैव अल्पसंख्यकों के हितैषी रहे। एक एडवोकेट और राजनीतिज्ञ के रूप में उन्होंने हमेशा धर्मनिरपेक्ष राज्य में आस्था व्यक्त की, लेकिन धर्म निरपेक्षता से उनका तात्पर्य धर्मविहीनता से कभी नहीं रहा, बल्कि वह धार्मिक स्वतंत्रता व सद्भाव के हिमायती थे। उनकी विशालता और निष्पक्षता के कारण ही उन्हें अल्पसंख्यकों का विश्वास मिला और वह उन्हें अलगाव कराकर एक राष्ट्रीय धारा में रहने और अलग मताधिकार की मांग को छोड़ने को सहमत करा सके।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का संविधान निर्माण मे योगदान


संविधान के निर्माण में मुंशी का यह विशेष योगदान रहा। संविधान में हिंदी को उसका स्थान दिलाने में भी डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और श्री आयंगार के साथ मुंशी उन अहिंदी भाषियों में है जिनका इसमें महत्वपूर्ण प्रयास रहा है। सरकारी भाषा के सवाल पर संविधान सभा के सदस्यों में गहरा मतभेद था। मुंशी अपने चातुर्य और समझ-बूझ की क्षमता से इस समस्या का समाधान निकालने में सफल हुए और उनका समझौता प्रस्ताव “मुंशी-आयंगार-प्रस्ताव” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रस्ताव के अनुसार संविधान सभा ने हिंदी को सरकारी भाषा के रूप में स्वीकार किया, लेकिन अंग्रेजी के स्थान पर उसके प्रयोग के लिए संविधान के अनुच्छेद १७ में १५ साल की अवधि निर्धारित की गई। “मुशी-आयंगार-प्रस्ताव” संविधान व राष्ट्र की सबसे कठिन व महत्वपूर्ण भावनाओं से मुक्त समस्या का समाधान था।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का राजनीतिक जीवन


राजनीति ने कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। १९०२ में उन्होंने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में स्वयंसेवक के रूप में काम किया। यहीं उन्हें उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष सुरेद्रनाथ बनर्जी की प्रगल्भ वक्तृता सुनने का अवसर मिला। इस अधिवेशन का उनके संवेदनशील मन पर गहरा असर पड़ा। श्री अरविंद के प्रभाव से वह कट्टर राष्ट्रवादी बने। जीवन के आरंभ मं् वह लाल-बाल-पाल (लाला लाजपतराय, लोकमान्य तिलक और विपिन चंद्र पाल) की गरम दलीय नीति के समर्थक थे। इंदुलाल याजिक, जमनादास द्वारकादास, शंकरलाल बंकर आदि उनके प्रारंभिक राजनीतिक जीवन के सहयोगी थे। प्राचीन इतिहास व संस्कृति के अध्ययन और प्राचीन महापुरुषों की जीवनगाथाओं ने भी उनकी राष्ट्रीयता को अधिक प्रखर बनाया।

गांधीजी के नेतृत्व में उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का सुअवसर मिला। राजनीति के साथ-साथ मुंशीजी सामाजिक कार्यों में भाग ले रहे थे। वह ऐनीबेसेंट की प्रेरणा से आरभ किए गए “यंग इंडिया” (तरुण भारत) के संपादकों में से थे। इस पत्र का पहला अंक १७ नवंबर १९१५ को निकला। उसी वर्ष कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में उन्हें विषय समिति का सदस्य चुना गया।

१९२४ में उन्हें सर हरकिशनदास नरोत्तमदास असताल का चेयरमैन और पंचगनी हिंदू शिक्षा समिति का अध्यक्ष चुना गया। १९२७ में मुंशीजी बंबई लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए और उन्होंने हिंदू और मुस्लिम सदस्यों को मिलाकर संयुक्त राष्ट्रीय दल बनाया, जिसके वह महामंत्री थे। १९२८ में उन्होंने बारदोली सत्याग्रह में सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में भाग लिया और किसानों के हितों की रक्षा के लिए संघर्ष किया। सरकार ने उन्हें नासिक जेल में बंद कर दिया, जहां से वह १९३० में मुक्त हुए। कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक में इलाहाबाद जाते समय मुक्त हुए। कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक में इलाहाबाद जाते समय उनकी राजगोपालाचारी से पहली बार मुलाकात हुई, जिसके साथ उनके संबंध क्रमशः गहरे होते गए। इलाहाबाद की इस बैठक में ही जवाहरलाल नेहरू के मूलभूत अधिकारों और आर्थिक कार्यक्रम के प्रस्ताव पर विचार किया गया, जो कराची कांग्रेस के अधिवेशन में स्वीकृत किए गए। १९३४ में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को कांग्रेस संसदीय बोर्ड का सचिव नियुक्त किया गया। इसके पूर्व जनवरी १९३२ में भी उन्हें गांधी-इरविन समझौते के असफल हो जाने के बाद गिरफ्तार किया गया था और ३ दिसंबर १९३३ को जेल से रिहा किया गया |

कांग्रेस संसदीय बोर्ड ने देश को चार चुनाव क्षेत्रों में विभाजित करके उनका भार एक-एक सचिव को दे दिया था। इनमें मुंशीजी भी एक थे और उन्हें बंबई, बरार और मध्य प्रांत में काम करने का अवसर मिला। सन् १९३८ में जब पहली बार कांग्रेस सरकार बनी, तब मुंशी को बंबई का गृहमंत्री नियुक्त किया गया। भारतीय विद्याभवन की नींव भी इसी वर्ष उन्होंने डाली तथा गुजरात के आनंद नामक स्थान पर एक कृषि संस्थान की स्थापना की। १९४१ में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और अखंड हिंदुस्तान आंदोलन आरंभ किया। भारत के विभाजन के वह घोर विरोधी थे। फरवरी १९४६ में गांधीजी के कहने पर वह पुनः कांग्रेस में आ गए। उनकी सूझ-बूझ और प्रशासनिक क्षमता के कारण भारत की स्वतंत्रता के बाद उन्हें हैदराबाद में एजेंट जनरल बनाकर भेजा गया। यह बड़ी जिम्मेदारी का काम था लेकिन उन्होंने इसे सफलतापूर्वक निभाया।

१९५० में उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में खाद्य और कृषि मंत्रालय का भार सौंपा गया। संयुक्त राष्ट्रसंघ के खाद्य और कृषि संगठन के रोम अधिवेशन में उन्होंने भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया।

१९५२ में मुंशीजी को उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इस अवधि में वृक्षारोपण के लिए वन महोत्सव मनाने की शुरूआत और विश्वविद्यालयों की समस्याओं का समाधान उनके प्रमुख कार्य थे। १९५६ में सहकारी खेती के प्रश्न पर मतभेद होने के कारण मुंशी ने कांग्रेस को छोड़ दिया और राजाजी के साथ स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की। लेकिन क्रमशः उनकी रुचि सक्रिय राजनीति में कम होती गई और सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक कार्यों की ओर ही उनका रुझान रहा।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी व्यावहारिक राजनीतिज्ञ थे। करीब तीस वर्ष तक संसदीय प्रणाली व व्यवस्था के अंतर्गत उन्होंने रचनात्मक कार्य किया। भारतीय संस्कृति में असीम आस्था, जनता का उत्साह और सरदार पटेल के सक्रिय सहयोग से उन्हें अपने चिराकांक्षित स्वप्न सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करने में सफलता मिली। १९५१ में मंदिर बनकर तैयार हुआ, जिसमें मूर्ति प्रतिष्ठा राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने की। लेकिन मुंशी के जीवन का सबसे महान कार्य भारतीय विद्या भवन की स्थापना है । बंबई सरकार में मंत्री बनने के बाद से ही मुंशीजी एक इस प्रकार के सांस्कृतिक संस्थान की स्थापना करने की चिंता में थे, जो भारतीय संस्कृति की सर्वोत्तम उपलब्धियों से न केवल जनता को परिचित कराए, वरन् आधुनिक युग में उनकी उपयोगिता भी प्रमाणित करे।

वेदों, उपनिषेदों और पुराणों के प्रति मुंशी के मन में अगाध श्रद्धा थी। अपने कुछ उत्साही सहयोगियों की सहायता से उन्होंने १९३८ में विद्या भवन की स्थापना की। एक मारवाड़ी सज्जन की आर्थिक सहायता से संस्कृत ट्रस्ट भी बनाया गया, जिसे एम.ए. और पी.एच.डी. डिग्रियों के लिए बंबई विश्वविद्यालय से मान्यता मिली। इसके पश्चात् मुम्बादेवी संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना हुई, जिसमें संस्कृत और शास्त्रों की पारंपरिक ढंग से शिक्षा दी जाती थी। धार्मिक शिक्षा व प्रचारकों के संबंध में इन संस्थानों ने नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। धार्मिक होने के साथ-साथ संस्कृत भाषा से मुंशी को अगाध प्रेम था। इसी से उन्होंने संस्कृत विश्व परिषद की स्थापना की, जिससे केंद्र और राज्य सरकारों को संस्कृत भाषा पढ़ाने की प्रेरणा मिली। इस परिषद की शाखाएं विदेशों में भी हैं।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का साहित्य प्रेम


गुजराती साहित्य में मुंशी का विशिष्ट स्थान है। उनके नाटकों, उपन्यासों, जीवनियों, लेखों, यात्रा-वर्णनों और आलोचनाओं में उनका व्यक्तित्व प्रगट हुआ है। गुजराती में साहित्यिक उपन्यासों की शुरूआत उन्होंने की। गुजरात-नो-नाथ, पृथ्वीवल्लभ, जय सोमनाथ और राजाधिराज उनके कुछ प्रमुख उपन्यास है। पुरंदर पराजय, अविभक्त आत्मा आदि उनके प्रमुख नाटक है। मुंशीजी ने अपने सहयोगियों और मित्रों के साथ साहित्य संसद की स्थापना की और गुजरात नाम की एक पत्रिका भी निकाली।

उन्होंने गुजराती में लिखने के लिए साहित्यकारों को बढ़ावा भी दिया। अंग्रेजी में लिखा उनका गुजराती साहित्य का इतिहास गुजरात और उसका साहित्य, ज भी एक प्रामाणिक कृति मानी जाती है।

राज्यों के बीच पारस्परिक संपर्क व संबंध बनाए रखने और राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से ही उन्होंने हिंदी के समर्थक होने के बावजूद अंग्रेजी का राजभाषा के रूप में समर्थन किया। भारतीय विद्या भवन के जरिए भी उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए प्रयास किया। अपने व्यक्तिगत जीवन में वह कट्टर धार्मिक थे, परंतु दूसरे धर्मों के प्रति उनमें बहुत श्रद्धा व आदर था। जीवनपर्यंत उन्होंने वैचारिक स्वतंत्रता परंतु राष्ट्रीय एकता व पारस्परिक सद्भावना के लिए काम किया।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की मृत्यु


कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की मृत्यु ८ फरवरी १९७१ को बंबई में हुई।

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