गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी | Govardhanram Tripathi

गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी | Govardhanram Tripathi

कहते हैं, पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। गुजराती के सबसे महान उपन्यासकार गोवर्धनराम त्रिपाठी के बारे में यह बात पूरी तरह ठीक उतरती है। चार वर्ष की उम्र में ही वह पढ़ने लगे और पांच वर्ष की उम्र में उन्होंने गुजराती के प्रसिद्ध कवि दलपतराम की कविताएं पढ़ीं। उन कविताओं से वह इतने प्रभावित हुए कि केवल पांच या छह वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपनी मां को एक चिट्ठी लिखी और वह भी एक चौपाई में।

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गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी का जन्म


गोवर्धनराम त्रिपाठी का जन्म २० अक्तूबर १८५५ को नडियाद (गुजरात) में एक प्रतिष्ठित नागर परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम था – माधवराम त्रिपाठी और माता का शिवकाशी था। बचपन में उन्हें कहानी सुनने का बड़ा शौक था। गुजरात में माणभट्ट (पद्यकथा गायक) कौतुक रस की पद्यवार्ताएं गाते रहते थे, बालक गोवर्धनराम भी उन्हें सुना करते थे, जिनसे उनकी कल्पनाशक्ति का काफी विकास हुआ। उनके पिता वैष्णव थे और बड़े ईश्वर-भक्त थे। बचपन की इन सब बातों का आगे चलकर उनके जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। साहित्य-रचना की ओर उनका रुझान तभी से हुआ।

गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी की शिक्षा


सन् १८६८ में वह एलफिंस्टन स्कूल में दाखिल हुए और फिर एलफिंस्टन कालिज में पढ़े। १८७५ में उन्होंने बी.ए. की परीक्षा पास कर ली | विद्यार्थी-जीवन में वह संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान प्रो.भंडारकर के प्रिय शिष्य थे। बी.ए. करने तक उनमे साहित्य-सेवा के प्रति काफी रुचि पैदा हो चुकी थी और वह यह मानने लगे थे, कि साहित्यकार को आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र रहना चाहिए और नौकरी के फेर में नहीं पड़ना चाहिए। इसलिए बी.ए. करने के बाद उन्होंने तीन निर्णय किए। पहला फैसला यह था कि वकील बना जाए। दूसरा यह कि मुंबई में वकील के नाते निजी प्रैक्टिस की जाए और कोई नौकरी न की जाए। तीसरा फैसला सबसे महत्वपूर्ण था कि वकालत भी कुल ४० वर्ष की उम्र तक की जाए और इसी बीच धन जमा किया जाए। उसके बाद वकालत को भी तिलांजलि देकर सारा ध्यान सहित्य-सेवा में लगाया जाए।

बाद में वह सारी उम्र अपने इन फैसलों पर जमे रहे।

गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी के कार्य


१८८३ में उन्होंने वकालत की परीक्षा पास की और फिर केवल ५० रुपये लेकर मुंबई में वकालत करने पहुंचे। भावनगर और जूनागढ़ में उन्हें कई अच्छी-अच्छी नौकरियां मिलने को हुई, पर उन्होंने सबको अस्वीकार कर दिया। जल्दी ही उनकी वकालत चमक उठी।

अंग्रेजी के विद्वान होते हुए भी वह भारतीय भाषाओं के प्रेमी थे, जैसा कि एक घटना से पता चलता है। उन दिनों यह नियम था कि गुजराती-मराठी आदि भारतीय भाषाओं के कागजात का अंग्रेजी अनुवाद अदालत को देना चाहिए पर गोवर्धनराम ने न्यायाधीश से कहा कि जजों को तो देश की सभी भारतीय भाषाएं जाननी चाहिए और आपको तो मराठी आती भी है। न्यायाधीश उनकी बात मान गए।

उनका फैसला था, धन जमा करने के बाद 40 वर्ष की उम्र में वकालत छोड़कर साहित्य-सेवा करेंगे। पंरतु जिस बैंक में उन्होंने अपनी सारी बचत जमा की थी, वह बैंक ही फेल हो गया। पर वह इससे विचलित नही हुए, बल्कि स्वयं घर आकर हंसते हंसते सबको वह समाचार सुनाया | पैसे की तंगी होने पर भी उन्होंने अपना निर्णय नहीं बदला और अपनी जमी हुई वकालत छोड़ दी।

गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी की साहित्य सेवा


वकालत छोड़ने के दो दिन बाद ही एक बहुत बड़ा मामला उनके हाथ में आया। परंतु उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने साहित्य और समाज की सेवा के लिए मुंबई छोड़ दिया और नडियाद जाकर रहने लगे। १८९८ में उन्हें कच्छ के दीवान का पद ग्रहण करने के लिए कहा गया। दीवान का वेतन था-१५०० रुपये महीना। उन दिनों के हिसाब से यह मासिक वेतन बहुत ही अधिक था, परंतु साहित्य-सेवा की खातिर उन्होंने यह पद भी ठुकरा दिया।

गोवर्धनराम त्रिपाठी गुजराती, अंग्रेजी और संस्कृत के विद्वान थे। उनकी प्रतिभा चहुंमुखी थी। बी.ए. करने के बाद ही उन्होंने कई जगह भिन्न-भिन्न विषयों पर व्याख्यान देने शुरू किए। भाषण वह अंग्रेजी और गुजराती, दोनों में देते थे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने कई विषयों पर संस्कृत, अंग्रेजी और गुजराती में लेख लिखे। धर्म, दर्शन, समाज-सुधार, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, नृवंश-शास्त्र आदि |

सब विषयों पर उनकी लेखनी चली। उनका एक लेख व्याकरण पर भी है। अपनी इस सारी विद्वत्ता और प्रतिभा का उपयोग उन्होंने किया, अपना विशाल उपन्यास सरस्वतीचंद्र लिखने में यह उपन्यास चार बड़े-बड़े खंडों में प्रकाशित हुआ है इसे आमतौर पर गुजराती का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास कहा जाता है। श्री आनंदशंकर ध्रुव ने तो इसे पुराण कहा है। यह उपन्यास गुजरात में इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी बिक्री के लिए एक नई प्रकाशन संस्था खोलनी पड़ी।

इस उपन्यास का पहला खंड प्रकाशित हुआ १८८७ में, जब उन्होंने मुंबई में नई-नई वकालत शुरू की थी। इस उपन्यास के प्रकाशित होते ही तहलका मच गया और इसे युग प्रवर्तक उपन्यास कहा जाने लगा। इसका दूसरा खंड प्रकाशित हुआ १८९२ में और तीसरा १८९६ में। दूसरा और तीसरा खंड लिखते समय भी वह वकालत कर रहे थे और धार्मिक व सामाजिक समस्याओं के बारे में भाषण आदि भी दिया करते थे। ऐसी थी, उनकी कर्मठता उपन्यास का अंतिम खंड वकालत से अवकाश ग्रहण करने के बाद १९०१ में प्रकाशित हुआ।

सरस्वतीचंद्र की रचना


सरस्वतीचंद्र लिखने में लेखक की मूलभावना लोक-कल्याण की ही थी। उपन्यास का नायक है, सरस्वतीचंद्र। वह एक सर्वगुण-संपन्न और सुशिक्षित व्यक्ति है। जिस लड़की से उसकी सगाई होती है, वह भी बड़ी सुसंस्कृत है, परंतु कई कारणों से उन दोनों की शादी नहीं हो पाती और उस लड़की का विवाह किसी उजड्ड आदमी से हो जाता है। बाद में उस लड़की की भेंट सरस्वतीचंद्र से एक आश्रम में होती है, जहां दोनों साथ रहकर देश-सेवा करने का व्रत लेते हैं। लोक अपवाद से बचने के लिए वह लड़की सरस्वतीचंद्र से अपनी बहन की शादी करा देती है।

इस उपन्यास में किसी व्यक्ति विशेष का चित्रण नहीं है, बल्कि उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के गुणावगुणों का चित्रण किया है। इसमें पात्रों की निम्नतम से लेकर उच्चतम प्रकृति के दर्शन होते है। मानव-मन की उथल-पुथल का वर्णन अभूतपूर्व है। व्यक्ति के कर्तव्य और समाज के प्रति व्यक्ति के कर्तव्यों पर बहुत अच्छे ढंग से प्रकाश डाला गया है।

गोवर्धनराम त्रिपाठी के ग्रंथ


गोवर्धनराम त्रिपाठी के कुछ अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थों के नाम और प्रकाशन वर्ष इस प्रकार है – नवलराम नी जीवन कथा (नवलराम की जीवन कथा) (१८९१), स्नेहमुद्रा काव्य (१८८९), लीलावती जीवनकला (१९०५), दयारामनो अक्षरदेह (दयाराम की अक्षरदेह) (१९०८), साक्षर जीवन (अपूर्ण) (१९१९), क्लासिकल पोयट्स आफ गुजरात (गुजराती के विशिष्ट कवि) (१८९४)। स्नेहमुद्रा काव्य में व्यक्ति-प्रेम को विश्व-प्रेम में बदलते दिखाया है। साक्षर जीवन में पशुत्व पर मनुष्यत्व की विजय दिखाई गई है।

इन पुस्तकों के अतिरिक्त, उन्हें स्क्रेप बुक या डायरी लिखने का भी शौक था |

गोवर्धनराम त्रिपाठी की मृत्यु


नडियाद में रहकर वह पूरी तरह साहित्य-सेवा और समाज-सेवा में जुट गए। १९०६ में वह गुजराती साहित्य परिषद के पहले अध्यक्ष चुने गए। इसी बीच उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया और ४ जनवरी १९०७ को वह इस असार संसार से कूच कर गए।

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