टोडरमल | Todarmal

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टोडरमल | Todarmal

अकबर के दरबार में नव रत्न थे ।इनके नाम थेराजा बीरबल, राजा मानसिंह, राजा टोडरमल, हकीम हुमाम, मुल्ला दोपियाजा, फैजी, अबुल फजल, रहीम और तानसेन।
राजनीति और शासन में अबुल फजल के जोड़ का कोई न था । मानसिंह के समान दूसरा कोई
योद्धा ना था । टोडरमल में इ
दोनों के गुण
मौजूद थे ।

टोडरमल की गिनती भारत के महान प्रशासकों में की जाती हैं।
उनके समान युद्ध कुशल लोग भी अकबर के पास बहुत से न थे । वह किसी राजघराने में
पैदा नहीं हुए थे
, फिर भी उन्हें
जों काम सौंपा जाता था उसे इतनी सुंदरता से करते थे कि एक मामूली मुंशी के पद से
उन्नति करते हुए वह अकबर के साम्राज्य में सबसे बड़े पद पर पहुंच गए और अकबर ने
उन्हें राजा की उपाधि दी । नियम की पाबंदी और काम की सफाई उनके स्वभाव में थी ।
शासन प्रबंध और देश की भूमिगत व्यवस्था के जो नियम टोडरमल ने नि
काले थे । वे समूचे मुगलकाल और अंग्रेजी काल में अपनाएं
गए और बहुत कुछ आज तक चले आ रहे हैं।

उनका जन्म उत्तर प्रदेश में सीतापुर जिले के लहरपुर नामक
गांव में हुआ था। उन दिनों सरकारी अफसर किसानों पर बहुत जुल्म करते थे और मनमाने
लगान वसूल करते थे। टोडरमल यह चाहते थे कि किसानों पर ऐसा जुल्म ना हो। इसीलिए वह
अपने से ऊपर के अफसरों के सामने ऐसे सुझाव रखते थे कि राजकोष में अधिक से अधिक धन
जमा हो और किसान भी जुल्म से बच जाए। धीरे-धीरे उनका नाम अकबर के कानों तक
पहुचने लगा, यहां तक कि १५७३ में जब अकबर ने गुजरात को जीत लिया, तब उस प्रांत में भूमिका बंदोबस्त करने के लिए
टोडरमल को भेजा। उन्होंने जमीन की नाम जोकर राई और जमीन की किस्म उसके रकबे और
पैदावार के हिसाब से मालगुजारी निश्चित की। दो ही वर्षों में गुजरात में शांति छा
गई। किसान सुखी जान पड़ने लगे और राजकोष में काफी धन भी जमा हो गया। इससे अकबर
इतना खुश हुआ कि उसे सारे साम्राज्य की भूमि का प्रबंध टोडरमल को सौंप दिया।

टोडरमल ने संपूर्ण साम्राज्य को १८२  परगनो में इस तरह
बाटा कि प्रत्येक परगने से एक करोड़ रुपिया वार्षिक लगान मिले। प्रत्येक परगना एक
अफसर के अधीन किया गया जो करोड़ी कहलाता था। परंतु ये करोड़ी बहुत लालची थे और
किसानों से मनमाना लगान वसूल करते थे। इसकी शिकायत जब अकबर के पास पहुंची तब
उन्होंने टोडरमल को “दीवान-ए-अशरफ”
(माल विभाग का सबसे बड़ा अफसर) बनाया और इस
विभाग में सुधार करने के लिए उन्हें पूरा अधिकार दिया।

टोडरमल ने करोड़ियो को कठोर दंड देना शुरू किया। बहुत से करोड़ी जेलों में डाल दिए गए। कुछ तो जेल में
ही मर गए। जमीन पहले सन की रस्सी से नापी जाती थी। इसमें बड़ा घपला होता था। भीगने
पर यह रस्सिया सिकुड़ कर छोटी हो जाती थी। सूखने पर फैलकर बड़ी हो जाती थी। इस तरह
उनसे सही नाप नहीं हो सकती थी। इसीलिए टोडरमल ने बांसो में लोहे के छल्ले डालकर
जरीब तैयार कराई। इस तरह सारी भूमि की नाप कर ली गई। पटवारियों को उन्होंने हुक्म
दिया कि अपने-अपने हलकों की नापो को कागज में दर्ज करें और उसकी नकले माल विभागों
को भेजें। परंतु लगान कितना लिया जाए
, इस सवाल को हल
करने के लिए इतना ही काफी नहीं था। किसी भूमि में अच्छी खेती होती थी
, किसी में साधारण ,कोई भूमि खेती के
लायक ही नहीं होती थी। तब उन्होंने भूमि को
किस्मों में बांटा और उनकी अलग-अलग नाम रखें।
वे नाम है – पोलज़
, पड़ती, चाचर, बंजर । पोलज सबसे
उपजाऊ भूमि को कहते थे। उसमें साल में दो बार खेती होती थी। परती वह भूमि थी
जिसमें दूसरे वर्ष खेती नहीं की जाती थी ताकि उसकी पैदावार ना घटे। चाचर भूमि
3 या 4 वर्षों तक छोड़ी
जाती थी और उसमें पैदावार बहुत ही कम होती थी। बंजर को
 या उससे अधिक
वर्षों के लिए खाली छोड़ना पड़ता था।

फिर सब प्रकार की जमीनों की प्रति बिगो उपज का औसत लगाया और
लगान निश्चित किया गया। लगान पहले जींस के रूप में लिया जाता था। टोडरमल ने पिछले
१० वर्षों के अनाज के घटते-बढ़ते हुए भावो का औसत
निकाला और नगद मालगुजारी की प्रथा चलाई। फिर भी किसानों को य
छूट दी की वे चाहे तो अनाज के रूप में भी
मालगुजारी दे सकते हैं।

टोडरमल ने इतना ही नहीं किया बल्कि अकाल अथवा किसी खास संकट
की हालत में उन्होंने मालगुजारी कम कर देने तथा बिल्कुल माफ कर देने की प्रथा
चलाई। किसानों की सहायता के लिए उन्हें सरकारी खजाने से नगद रुपया देने की प्रथा
भी चलाई जो तकावी कहलाती थी।

इसका परिणाम हुआ कि टोडरमल किसानों के लिए देवता समान हो गए
और जो सरकारी अफसर किसानों पर जुल्म करते थे उन्हें वह काल के समान प्रतीत होने
लगे।

टोडरमल चाहते थे कि राज्य की नौकरियों में हिंदू भी भाग ले
और मुसलमानों की ही भांति ऊंचे पदों पर पहुंचे। इसीलिए उन्होंने मालगुजारी का
हिसाब-किताब फारसी में तैयार कराना शुरू किया। अब तो हिंदुओं को भी फारसी पढ़नी
पड़ी। इससे उन्हें लाभ हुआ। उन्हें भी ऊंची-ऊंची सरकारी नौकरियां मिलने लगी।

उन दिनों धर्मों को राजनीति से अलग करना बड़ा कठिन था।
परंतु टोडरमल ने इस ओर भी ध्यान दिया। वह यह बात पसंद नहीं करते थे कि हिंदुओं पर
केवल “जजिया” नाम का कर लगाया जाए क्योंकि वे हिंदू हैं। यह बात उन्होंने अकबर के
सामने रखी
|

टोडरमल कट्टर हिंदू थे। परंतु इस बात को छुपाते नहीं थे। वह
रोज पूजा करते थे और जब तक पूजा पूरी ना हो जाए कोई काम नहीं करते थे। परंतु वह
समय की मांग को भी समझते थे। घर पर वह कुर्ता धोती पहनते थे परंतु जब दरबार में
जाते थे तब पायजामा पहन लेते थे और चौगा धारण कर लेते थे। तुर्को का राज होने के
कारण वह भी तुर्कों का रूप बनाकर घोड़ा दौड़ाने लगे। उनका कहना था कि तुर्को की
भाषा सीखने या तुर्को की
तरह पोशाक पहनने से
कोई हिंदू तुर्क नहीं हो सकता। अपने धर्म का पालन करते हुए भी हिंदू
, तुर्कों की सरकार में भाग ले सकते हैं। अकबर
के “दिन इलाही”
धर्म को अबुल फजल जैसे कट्टर मुसलमान और बीरबल जैसे कट्टर
हिंदू ने स्वीकार कर लिया था। परंतु टोडरमल ने इस धर्म को स्वीकार नहीं किया।

टोडरमल ने माल महकमे को ही नहीं संभाला, वह एक अच्छे सेनापति भी थे। अकबर ने कई बार
उन्हें ऐसी लड़ाइयो पर भेजा था
, जहां दूसरे
सेनापति हार चुके थे। राजधानी से दूर होने के कारण बंगाल में प्रायः विद्रोह हो
जाता था। अंत में सम्राट अकबर ने टोडरमल को बंगाल का विद्रोह दबाने को भेजा।
टोडरमल ने
 वर्ष कड़ी मेहनत करके
बंगाल में शांति स्थापित की। इसी पर उन्होंने गुजरात में सुल्तान जफर को हराया और
वहां शांति कायम की।

टोडरमल ने अकबर की सेना के संगठन को भी मजबूत बनाया। उन
दिनों मनसबदारी की प्रथा थी। सम्राट मनसबदार नियुक्त कर देता था और उन्हें वेतन
देता था। मनसबदार अपनी तरफ से घुड़सवार और पैदल सैनिक रखते थे। परंतु यह सब वेतन
खा जाते थे और जब काम पड़ता था तो किराए पर घोड़े मंगाकर गिनती करा देते थे।
टोडरमल ने घोड़ों के दागने की प्रथा चलाई जिससे मनसबदार किराए की घोड़े लाकर गिनती
ना करा सकें। इसके अलावा टोडरमल ने मनसबदारो और उनके सैनिकों का रजिस्टर भी तैयार
कराया
|

अकबर को सबसे बड़ी लड़ाई पठानों से स्यात की घाटी में लड़नी
पड़ी। अकबर कश्मीर जीतना चाहता था
, परंतु उससे पहले
यह घाटी लेना जरूरी था। अपनी सबसे योग्य जनरल जैन खां को उसने यह प्रदेश जीतने के
लिए भेजा। जैन खान
से कुछ ना हो सका और
उसने काफी मदद मांगी। लगभग
१६००० सैनिकों के साथ
बीरबल भेजे गए। इस लड़ाई में आधे से अधिक सैनिक मारे गए। उनके साथ ही बीरबल भी
मारे गए। अकबर ने टोडरमल को यह प्रदेश जीतने के लिए भेजा। टोडरमल ने उन्हें बुरी
तरह से परास्त किया। टोडरमल की सफलता का कारण उनका प्रबंध था। यह सही है कि
मनसबदारी प्रथा के कारण सेना का जैसा वह चाहते थे वैसा प्रबंध नहीं कर सकते थे
परंतु जो भी सैनिक लड़ाई के मैदान में जाते उनके लिए हथियार और
राशन-पानी का प्रबंध वह बड़ी कुशलता से करते थे। वह
कहा करते थे कि फौज खड़ी करना बेशक बड़ा काम है परंतु उससे भी बड़ा काम उसके लिए
राशन-पानी का प्रबंध करना है।

टोडरमल जब बूढ़े हुए और अकबर का राजकाज भी शांति के साथ
चलने लगा तब उन्होंने अकबर से प्रार्थना की कि अपना अंत समय वह हरिद्वार में रहकर
भगवान के भजन में बिताना चाहते हैं । अकबर की प्रार्थना स्वीकार कर ली। वह
हरिद्वार के लिए चल पड़े। परंतु तभी उन्हें बादशाह को दूसरा फरमान मिला। उसमें लिखा
था कि भगवान का सच्चा भजन उसके बंदों की सेवा हैं। बादशाह चाहते थे कि टोडरमल अभी
कुछ दिन और राजकाज में उनका हाथ बटाएं। टोडरमल पर बादशाह
के इस बात का प्रभाव पड़ा और वो लौट पड़े। परंतु ११ दिन बाद उन्हीं की जाति के एक आदमी ने उन्हें
मार डाला। इस आदमी को किसी अपराध में उन्होंने दंड दिया था। इस प्रकार
१५८९  में उनकी जीवन
लीला समाप्त हो गई।

अकबर टोडरमल पर बहुत विश्वास करते थे | टोडरमल की मृत्यु से पूर्व १५८९  में जब अकबर कुछ
दिन के लिए कश्मीर
गए थे, तो तत्कालीन
राजधानी लाहौर का प्रबंध टोडरमल को ही सौंप दिया गया था। टोडरमल अकबर के दरबार में
योग्यतम अधिकारी माने जाते थे। अबुल फजल और दूसरे लोग जो टोडरमल के विरोधी थे
, वे उनके साहस और राजकाज के मामले में उनकी
दक्षता की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।

टोडरमल की सफलता का रहस्य था कि वह जनता की भलाई को सदा
अपने सामने रखते थे और नियम कायदे के बड़े पाबंद थे। कट्टर हिंदू होते हुए भी
मुसलमान साम्राज्य में वह सबसे ऊंचे पद पर पहुंचे और अपने चरित्र से उन्होंने यह
सिद्ध किया कि राजकाज चलाने में आदमी की योग्यता देखी जानी चाहिए उसकी जाति या
धर्म नहीं। अकबर की राज्य में वह सबसे बड़े व्यवस्थापक थे ।
             

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