पट्टाभि सीतारमैया | Bhogaraju Pattabhi Sitaramayya

पट्टाभि सीतारमैया | Bhogaraju Pattabhi Sitaramayya

आजकल हमारे देश में सहकारिता पर बड़ा जोर दिया जा रहा है। किसानों को सेवा सहकारी समितियों की मार्फत ऋण, बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि बांटे जाते हैं। सहकारी खेती को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। देश के सभी बड़े-बड़े शहरों में सुपर बाजार या सहकारी भंडार खुले हुए हैं। सहकारी बैंक खोलने के लिए भी सरकार सहायता दे रही है। पर बीसवीं शताब्दी के शुरू में यह बात नहीं थी। सहकारिता के महत्व को लोग समझते भी नहीं थे, अपनाने की तो बात ही नहीं थी। ऐसे समय में देश के कुछ प्रतिष्ठित और बुद्धिमान व्यक्तियों ने सहकारिता के पौधे को देश में रोपा और अपने परिश्रम से उसे सींचा। इन्हीं महानुभावों में प्रमुख हैं। आंध्र प्रदेश के डाक्टर पट्टाभि सीतारमैया ।

सहकारी आंदोलन के नेता होने के साथ-साथ डाक्टर पट्टाभि एक महान राष्ट्रीय नेता और राजनीतिज्ञ भी थे। वह गांधीजी के निकट अनुयायी थे और सारी आयु उनके आदर्शों से और संपूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य से वह कभी नहीं चूके। जीवन में अनेक बार उनको उच्च पद मिल सकता था, परंतु जब तक देश स्वाधीन नहीं हुआ, वह एक जनसेवक ही बने रहे। उन्होंने स्वदेशी आंदोलन के अंतर्गत गांव-गांव में लघु उद्योग खुलवाए। आंध्र में हिंदी प्रचार को प्रोत्साहन देने के लिए हिंदी विद्यालयों की स्थापना करवाई।। निस्सहाय स्त्रियों और हरिजनों के लिए जगह-जगह बहुत सहायता की | आंध्र में पहले बैंक और पहली बीमा कंपनी की स्थापना भी डा. पट्टाभि सीतारमैया ने ही की।

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आंध्र प्रदेश में प्रथम अंग्रेजी पत्रिका का संपादक होने का गौरव भी पट्टाभि को प्राप्त है। “जन्मभूमि” नामक इस साप्ताहिक में वह अपने विचारों और अपने कार्यक्रमों का विवरण देते थे और अंग्रेज शासकों की भी कट्टर आलोचना करते थे। लगभग दस वर्ष तक वह इस पत्रिका के संपादक रहे और अकेले ही इस लोकप्रिय पत्रिका को चलाते रहे।

२१ अप्रैल १९३० में जब वह स्वाधीनता संग्राम में जेल गए तो इस पत्रिका का प्रकाशन बंद करना पड़ा। स्वतंत्रता आंदोलन में वह कई बार जेल गए।

कई सार्वजनिक संस्थाओं और शिक्षा संस्थाओं के भी वह संस्थापक थे। कई शिक्षा संस्थाएं तो आज भी चल रही हैं।

पट्टाभि सीतारमैया का जन्म


डाक्टर पट्टाभि का जन्म २४ नवंबर १८८० को गुड़गोलनु नामक गांव में एक सामान्य परिवार में हुआ था | मां-बाप की वह तीसरी संतान थे। उनके एक भाई, दो बहनें थी। जब पट्टाभि चार या पांच वर्ष के थे, तो उनके पिता की मृत्यु हो गई। तब से लेकर, उनके परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । सारे परिवार को दस रुपये मासिक आमदनी में गुजारा करना पड़ता था।

पट्टाभि सीतारमैया की शिक्षा


पढ़ाई के लिए पट्टाभि जी का परिवार पास के शहर एलूर में आ गया। वहीं से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की, यद्यपि उन दिनों पुस्तक, कागज और पेंसिल आदि खरीदना भी उनके लिए मुश्किल होता था । स्कूल में उन्हें छात्रवृत्ति मिलता था ।

स्कूल के क्रिश्चियन मिशनरियों को एक बार उन्होंने बाइबिल कंठस्थ करके सुनाई। वे मिशनरी पट्टाभि से इतने प्रभावित हुए कि उनको मासिक छात्रवृत्ति देने लगे । मछलीपट्नम के नोबेल कालेज में इन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी प्राप्त की। मद्रास के क्रिश्चियन कालेज से उन्होंने बी.ए. किया। बाद में मद्रास मेडिकल कालेज से एम.बी. और सी.एम. की परीक्षा में सफलता प्राप्त की। १९०६ में उन्होंने डाक्टरी की प्रैक्टिस शुरू की। परंतु १९१६ में उसे छोड़कर देश के स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े ।

विद्यार्थी अवस्था में श्री पट्टाभि पर श्री आर. वेंकटरल्नम नायडु का बहुत प्रभाव पड़ा। श्री नायडु पट्टाभि के प्राध्यापक थे और उच्च कोटि के समाज सुधारक तथा वक्ता थे। अपने विद्यार्थियों में वह बहुत लोकप्रिय थे। उनके कई विद्यार्थियों ने आगे जाकर स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया और आंध्र के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुए। श्री नायडु के अलावा, डाक्टर पट्टाभि को क्रिश्चियन पादरियों के सेवापूर्ण जीवन में दृढ़ संकल्प ने भी प्रभावित किया। इस तरह विद्यार्थी अवस्था से ही उनमें उच्च आदर्शों के पालन, सच्चाई एवं सेवाभाव के गुण आ गए थे। इन्हीं के कारण वह महात्मा गांधी के निकट आए और जीवन भर गांधीजी के आदर्शों को पूरा करने में लगे रहे।

पट्टाभि सीतारमैया का राजनीतिक जीवन


सर्वप्रथम १८९८ में श्री पट्टाभि मद्रास के कांग्रेस अधिवेशन में गए। तब वह विद्यार्थी थे। इसके बाद से वह कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में शामिल होने लगे। १९०३ की बात है। मद्रास में श्री लालमोहन घोष की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हो रहा था। सभा पट्टाभि सीतारमैया अपने गुरु श्री वेंकटरलम नायडु के पास बैठे भाषण सुन रहे थे, उपस्थित जनता के विनोद के लिए एक व्यक्ति ने कांग्रेस के प्रमुख नेताओं की नकल उतारनी शुरू की तो श्री पट्टाभि से न रहा गया। तुरंत स्टेज पर जाकर उन्होंने उसके इस व्यवहार का विरोध किया।

अपने डाक्टरी पेशे से अधिक दिलचस्पी उन्हें स्वाधीनता संग्राम में थी। १९०७ में उन्होंने बंबई के कांग्रेस अधिवेशन में स्वदेशी आंदोलन के बारे में भाषण दिया | कांग्रेस के सभी नेता उनके भाषण से प्रभावित हुए, १९०८ से तो वह कांग्रेस के सभी अधिवेशनों में शामिल होने लगे।

सन् १९१६ से पट्टाभि कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं में गिने जाने लगे। आंध्र में वह कांग्रेस पार्टी के प्रचार करने में प्रमुख रहे। जिस प्रकार उन्होंने कांग्रेस का आंध्र में प्रचार किया, उसी प्रकार कांग्रेस में आंध्र का प्रचार भी किया। सभी समितियों में और उप-समितियों में वह आंध्र को भी प्रतिनिधित्व दिलाने का प्रयत्न करते थे। उन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप आंध्र के लिए अलग कांग्रेस कमेटी बनाई गई। १९१६ से १९५२ तक वह निरंतर आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। लगभग १५ वर्ष तक वह कांग्रेस कार्यसमिति के भी सदस्य रहे।

हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयत्न भी डाक्टर पट्टाभि ने १९१७ से ही शुरू कर दिया था। सन् १९२० में वह गांधीजी के प्रभाव में आए। असहयोग आंदोलन में उन्होंने गांधीजी का साथ दिया। १९२० के नागपुर अधिवेशन में जब ब्रिटिश संसद के एक सदस्य ने असहयोग आंदोलन के विरुद्ध अपने विचार प्रकट किए, तो पट्टाभि ने उसका मुंह तोड़ जवाब दिया।

डा. पट्टाभि बड़े निस्वार्थ जनसेवक थे। स्वाधीनता प्राप्ति से पहले भी कई जगह कांग्रेस की सरकारें बनी। परंतु पट्टाभि ने स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले किसी भी पद को स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस पार्टी की समितियों और उपसमितियों के सदस्य भी वह गांधीजी की सलाह पर ही बनते थे।

डाक्टर पट्टाभि कांग्रेस के सर्वप्रथम इतिहासकार हैं। १९३५ में कांग्रेस की स्वर्ण जयंती के अवसर पर कांग्रेस के इतिहास का महान ग्रंथ उन्होंने अपनी पार्टी को भेंट किया था। बाद में इस ग्रंथ का हिंदी, उर्दू, मराठी, उड़िया, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषाओं में अनुवाद गया। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के तल्कालीन सचिव ने डाक्टर पट्टामि से उनके ग्रंथ को कांग्रेस की ओर से छापने की अनुमति मांगी। पट्टाभि मान गए। इस पर महासचिव ने उनसे छापने की शर्तों का विवरण चाहा तो डाक्टर पट्टाभि ने लिखा कि मैं तो अपना ग्रंथ कांग्रेस को श्रद्धापूर्वक भेंट करना चाहता हूं। कोई भी कांग्रेस का सदस्य अपने ज्ञान को कांग्रेस को या अन्य किसी को नहीं बेच सकता। कांग्रेस का इतिहास बेचकर वह हजारों-लाखों रुपये कमा सकते थे। पर वह धन के भूखे नहीं थे। ग्रंथ की ५००० प्रतियां छापने का निर्णय किया गया परंतु छपने से पहले ही ४००० प्रतियों के आर्डर मिल गए। इसलिए प्रथम संस्करण की १०,००० प्रतियां छापी गई। सबसे अनोखी बात यह थी कि पट्टाभि ने भी दस रुपये खर्च करके अपनी पुस्तक की चार प्रतियां खरीदी।

पट्टाभि सीतारमैया की पुस्तके


कांग्रेस के इतिहास के अलावा डाक्टर पट्टाभि ने कई अन्य पुस्तकें भी लिखी, जिनमें से प्रमुख हैं – “द कांस्टीट्यूशंस आफ दी वर्ल्ड”, “गांधिज्म एंड सोशलिज्म”, “नेशनल एजुकेशन”, “इंडियन नेशनलिज्म”, “द रीडिस्ट्रीब्यूशन आफ इंडियन प्राविंसेज आन ए लिंग्विस्टिक बेसिस”, आदि। अंग्रेजी के अतिरिक्त उन्होंने कई पुस्तकें तेलुग में भी लिखी।

आजादी मिलने से पहले भारत में लगभग ७५० देशी रियासतें थीं । वहां की जनता की दशा तो बहुत खराब थी। देशी शासक उनका और भी अधिक दमन करते थे। उनमें राजनीतिक चेतना नहीं के बराबर थी। तब इन रियासतों में कांग्रेस की स्थापना तक न की जा सकती थी। इसलिए रियासती लोगों के लिए अखिल भारतीय देसी राज्य प्रजा परिषद नामक संस्था काम करती थी। इस परिषद के कराची अधिवेशन के अध्यक्ष भी डा. पट्टाभि चुने गए थे। १९४६ से १९४८ तक वह इसके कार्यकारी अध्यक्ष रहे। मार्च १९४२ में जब सर स्टेफोर्ड क्रिप्स भारत आए, डाक्टर पट्टाभि ने उनको रियासतों की प्रजा की समस्याओं से अवगत कराया।

“भारत छोड़ो” आंदोलन में भाग लेने के अपराध में आपको भी १९४२ में अन्य नेताओं के साथ कैद की सजा दी गई।

सन् १९४६ में वह भारत की संविधान सभा के सदस्य चुने गए। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद कांग्रेस का पहला अधिवेशन जयपुर में १९४८ में हुआ। डा. पट्टाभि उसके अध्यक्ष चुने गए। डाक्टर पट्टाभि की सरल जीवन शैली, उनके उच्च विचार और देश-भक्ति सभी को प्रभावित करती थी। उन्होंने जीवन भर फिजूलखर्ची का विरोध किया। छोटी से छोटी चीज का भी वह ज्यादा से ज्यादा उपयोग करते थे। कहा जाता है कि फटे-पुराने कपड़ों का भी वह कुछ न कुछ उपयोग ढूंढ़ते थे।

पट्टाभि सीतारमैया का मध्यप्रदेश के राज्यपाल बनाना


जुलाई १९५२ में वह मध्य प्रदेश के राज्यपाल नियुक्त किए गए। इस उच्च पद पर आकर भी सीधे-सादे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया । पांच वर्ष तक वह इस पद पर रहे थे ।

पट्टाभि सीतारमैया की मृत्यु


अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने सभी से आदर और गौरव पाया। मध्य प्रदेश के राज्यपाल के पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने हैदराबाद के निकट एक आश्रम स्थापित किया और वहीं उनका देहांत १७ दिसंबर १९५९ को हुआ।

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