मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय | मुंशी प्रेमचंद की कहानी | मुंशी प्रेमचंद का साहित्य परिचय | premchand ki kahani | Munshi Premchand Ka Jeevan Parichay

प्रेमचंद | मुंशी प्रेमचंद |Premchand

प्रेमचंद हिंदी के बहुत बड़े लेखक थे। उन्होंने बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने गरीबों और किसानों की जिंदगी के बारे में बहुत-सारी सुंदर कहानियां लिखी हैं, पर आज तो हम आपको उनके जीवन की कहानी सुनाते हैं ।

Premchand

प्रेमचंद का जन्म


प्रेमचंद का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के लमही नामक गांव में ३१ जुलाई १८८० को हुआ था। उनके पिता अजायब लाल डाकखाने में क्लर्क थे। क्लर्क को उन दिनों मुंशी कहते थे, इसलिए उनका नाम मुंशी अजायब लाल था । उन्हें महीने में पच्चीस-तीस रुपये के करीब तनख्वाह मिलती थी। डाकखाने में उनके साथ एक हलकारा कज़ाकी भी था । वह डाक का थैला और घुंघरू वाली लाठी हाथ में लेकर चिट्ठियां बांटने जाता था । नन्हे प्रेमचंद ज्यों ही घुंघरू की आवाज सुनते, दौड़ पड़ते और कज़ाकी के कंधे पर सवार हो जाते। अपने इस मित्र के कंधे पर सवारी करके उन्हें बड़ा आनंद मिलता था ।

यही कज़ाकी एक दिन मुंह बिसूरे अपने नन्हें मित्र के पास आया और बोला, “अच्छा भाई, हम जा रहे हैं।”

प्रेमचंद ने उसके मुंह की ओर ताकते हुए पूछा, “कहां?”

जवाब मिला, “अब कहीं और काम करेंगे। “

प्रेमचंद परेशान, पूछा,-“क्यों, यह काम क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगता ?”

कजाकी बोला, “अच्छा तो लगता है, पर मुझे नौकरी से जवाब मिल गया है।”

प्रेमचंद को इस बात से बड़ा दुख हुआ। वह कजाकी की फरियाद लेकर पिता के पास गए। पिता ने नहीं सुनी, तो मां के पास आए। परंतु मां के कहने से भी कज़ाकी की नौकरी नहीं लगी। तब प्रेमचंद माता और पिता, दोनों से रूठ गए। सारा दिन कुछ नहीं खाया और यह सोचते रहे कि कहीं से एक लाख रुपया मिल जाए, तो कज़ाकी को दे दूं। पर यह कोई आसान काम तो था नहीं। अतः वह अपने मित्र की मदद नहीं कर सके। पर उसे वह भूले कभी नहीं।

प्रेमचंद का पारिवारिक जीवन


बड़ा होने पर उन्होंने उस पर एक कहानी लिखी। जब प्रेमचंद आठ वर्ष के थे, तभी उनकी मां बीमार पड़ी और मर गई। पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और घर में विमाता आई। उन्हें वह चाची कहते थे। पर उनके साथ चाची का व्यवहार अच्छा नहीं था, सो अपनी मां उन्हें बहुत याद आती थी।

एक दिन उनके पिता के मित्र बड़े बाबू ने उन्हें अपने पास बुलाया और पीठ पर हाथ फेर कर कहा, “तू दुबला क्यों हो गया है? दूध-घी तुझे नहीं मिलता ? तेरी मां नहीं देती? तू दूध खूब पिया कर। घी भी खूब खाया कर।”

उनके सहानुभूति और प्यार के ये शब्द सुनकर प्रेमचंद रो पड़े।

दूसरे दिन जब वह खाने बैठे, तो चाची ने बहुत-सा कच्चा घी दाल में डाल दिया। यह देख, प्रेमचंद बोले, “मेरी दाल में कच्चा घी क्यों डाल दिया?”

जवाब मिला, “कच्चा नहीं, “दाल में घी डाला ही क्यों?” प्रेमचंद फिर बोले।

चाची ने क्रुद्ध स्वर में उत्तर दिया, “तुम्हीं तो घर-घर रोते फिरते हो कि मुझे कुछ नहीं मिलता।”

प्रेमचंद भौंचक। उन्होंने आश्चर्य से पूछा, “मैंने किससे कहा?”

चाची ने तिलमिलाते हुए पूछा, “बड़े बाबू से नहीं कहा कि मेरी चाची मुझे घी-दूध नहीं देती?”

प्रेमचंद के इंकार करने पर विमाता ने उन्हें खूब फटकारा। उन्हें स्नेह की बजाय फटकार ही मिला करती थी।

एक दिन प्रेमचंद रो रहे थे। उसी समय उनके पिता दफ्तर से आ गए। उन्होंने दीवार की ओर मुंह करके झटपट आंखें पोंछ ली।

पिता ने पूछा, “तुम रो रहे थे?”

प्रेमचंद ने कहा, “नहीं तो।

पर उनकी आंखें भीगी हुई थी। अतः पिता को विश्वास कैसे होता? वह फिर बोले, “क्या चाची तुम्हें मारती है?”

“नहीं, वह तो बड़ी अच्छी हैं”, कहकर प्रेमचंद ने बात समाप्त कर दी। वह जानते थे कि शिकायत से कुछ नहीं होगा, इसलिए उन्होंने शिकायत करना ही छोड़ दिया था।

तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में उनके पिता ने प्रेमचंद का विवाह कर दिया और उनके पिता साल बाद स्वर्ग सिधार गए। घर में कमाने वाला दूसरा कोई था नहीं, सो बड़़ी मुश्किल पड़ी।

प्रेमचंद उस समय दसवीं जमात में पढ़ते थे। जैसे-तैसे उन्होंने ऐंट्रेस पास किया। आगे पढ़ने की इक्छा मन में ही रह गई | नौकरी भी कोई नहीं मिलती थी, अतः वाराणसी में रहकर पांच रुपये की ट्यूशन पढ़ाने लगे। इस पांच रुपये में से दो-ढाई रुपये वह खुद खर्च करते और ढाई-तीन रुपये घर दे देते |

एक दिन की बात है। प्रेमचंद के पास पैसे नहीं थे। उन्होंने दिन-भर कुछ नहीं खाया था। अतः शाम को दसवीं की एक किताब लेकर बाजार चले। उन्होंने सोचा था कि उसे बेचकर भोजन करेंगे। पर संयोग से पुरानी किताबों की दुकान पर उनकी भेंट बड़ी-बड़ी मूंछों वाले एक व्यक्ति से हो गई।

मूंछों वाले व्यक्ति ने पूछा, “कहीं पढ़ते हो?”

प्रेमचंद ने कहा, “नहीं, पढ़ना चाहता हूं।”.

प्रश्न हुआ, “मेट्रिक पास हो?”

प्रेमचंद बोले, “जी हां।”

मूंछों वाले व्यक्ति ने प्रश्न किया, “नौकरी करोगे ?”

प्रेमचंद ने कठिनाई बतलाई, “नौकरी कहीं मिलती ही नहीं। “

वह बोला, “मेरे साथ गांव चलो। मुझे अपने स्कूल के लिए एक मास्टर चाहिए।

वह मूंछों वाला व्यक्ति एक गांव के स्कूल में हैड मास्टर था। उसने प्रेमचंद को अपने स्कूल में मास्टर रख लिया। अठारह रुपये महीने तनख्वाह तय हुई। प्रेमचंद यह नौकरी पाकर बड़े खुश हुए और दूसरे दिन ही गांव में पढ़ाने चले गए।

अब उनकी पल्नी भी चाची के साथ रहना नहीं चाहती थी। एक दिन जब छुट्टी में प्रेमचंद घर आए, तो उन्होंने कहा, “मुझे भी अपने साथ ले चलिए।”

प्रेमचंद बोले-“क्यों, तुम यहीं रहो न ।”

पत्नी ने कहा, “मुझसे यहां नहीं रहा जाता। अब आप कमाने लगे हैं। हम अपना घर अलग बसाएंगे।”

प्रेमचंद ने प्रश्न किया, “तब चाची और उनके बेटे का क्या होगा? उनका दूसरा क्या सहारा है?”

पत्नी बोली, “जब चाची का व्यवहार आपके प्रति अच्छा नहीं था, तब आप क्यों उनकी चिंता करते हैं?”

प्रेमचंद छूटते ही बोले, “चाची का व्यवहार चाहे कुछ भी रहा हो। जब तक उनका बेटा बड़ा होकर कमाने नहीं लगता, तब तक मेरा धर्म उन्हें खर्च देना है और मैं दूंगा।“

और, इसके अनुसार ही प्रेमचंद उन्हें खर्च देते रहे। वह आठ रुपये में अपना गुजारा थे और दस रुपये घर भेज देते थे | साथ ही, उन्हें अपनी उन्नति का भी ध्यान था। उनकी शिक्षा अधूरी रह गई थी और उसे वह पूरा करना चाहते थे, इसलिए वह अपने आप पढ़ते रहे और प्राइवेट तौर पर एफ.ए. तथा बी.ए. की परीक्षाएं पास की। कुछ समय बाद, पद में उनकी उन्नति हो गई और वह स्कूल इंस्पेक्टर बन गए।

लेकिन उनकी सेहत अच्छी नहीं रहती थी, इसलिए अपनी ही इच्छा से वह हैंड मास्टर के पद पर वापस आ गए। चाची, चाची का बेटा और उनका एक भाई सदा प्रेमचंद के साथ रहे। जब चाची का लड़का पढ़ लिखकर नौकर हुआ, तब कहीं प्रेमचंद ने उन्हें अलग किया। वह खुद कष्ट सह लेते थे, पर दूसरों को कष्ट नहीं देते थे।

प्रेमचंद का सामाजिक जीवन


सन् १९२० की बात है। देश में कांग्रेस का आंदोलन छिड़ा। महात्मा गांधी भाषण करने गोरखपुर गए। वह लोगों से सरकारी नौकरियां छोड़ने को कह रहे थे। प्रेमचंद के मन पर उनके भाषण का बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने दूसरे ही दिन नौकरी छोड़ दी और देश-सेवा में लग गए।

प्रेमचंद ने अपने जीवन में गरीबी देखी थी, इसलिए उन्हें गरीबों से बड़ी सहानुभूति थी। उनका जन्म गांव में हुआ था, इसलिए गांवों और किसानों के बारे में भी वह बहुत-कुछ जानते थे। जिन लोगों के बारे में वह जानते थे, उन्हीं के बारे में साधारणतः लिखा करते थे। उन्होंने समझ लिया था, कि जब देश आजाद होगा, तभी किसानों और दूसरे लोगों की गरीबी दूर होगी इसलिए वह अपनी कहानियों और उपन्यासों में देशभक्ति का प्रचार करते थे।

उनको पूरा विश्वास था कि देश की उन्नति तभी हो सकती है, जब गांवों की उन्नति हो । वह समाजवादी आदर्शों के पुजारी थे। उनके उपन्यासों में समाजवादी आदर्शों की स्पष्ट झलक मिलती है। उनका कथन था, “सारा संसार समाजवाद की ओर बढ़ रहा है। बिना साम्य और परंपरा का विचार किए सबको समान अवसर देना सच्चे धर्म के अधिक निकट है।”

प्रेमचंद इंसान की सेवा को ही ईश्वर की सच्ची पूजा समझते थे। गरीबों के दुख-दर्द को उन्होंने तीव्रता के साथ अनुभव किया था। उन्होंने जनता की दुखती नस को पहचाना था। बहुत गरीबी और सामाजिक शोषण के वह खुद भी शिकार बन चुके थे। वह वर्ग, जाति-पाति, छुआछूत और सांप्रदायिकता से बहुत ऊपर थे। उनकी कहानियां ग्रामीण जीवन की सजीव झांकी उपस्थित करती हैं। उनके पात्र स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, हिंदू-मुसलमान, ऊंच और नीच, सभी वर्गों के लोग हैं। सभी के चरित्र का प्रेमचंद ने यथार्थ और मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। प्रेमचंद कथा-साहित्य को माध्यम बनाकर देहातियों की दरिद्रता, भूख, अशिक्षा, रूढ़िवादिता, सामाजिक शोषण, अंधविश्वास और लाचारियों का मार्मिक वर्णन करने में बहुत ही सफल हुए हैं। समाज में स्त्रियों की असहाय दशा का वर्णन भी उन्होंने अपने उपन्यास ‘सेवा-सदन’ और ‘प्रेमाश्रम’ में किया। वह देश की बहुमुखी समस्याओं से भलीभांति परिचित थे और आने वाले पृष्ठभूमि को समझते हुए उन समस्याओं को सुलझाने की चेप्टा करते थे।

समाज-सेवा की इच्छा से ही वह नौकरी छोड़कर अपने गांव लमही चले गए। वहीं बैठकर वह लिखने-पढ़ने लगे तब तक व्ह लेखक के नाते प्रसिद्ध हो चुके थे।

उन दिनों लखनऊ से एक पत्रिका ‘माधुरी’ निकलती थी। एक दिन उसके मालिक उनके पास गए और बोले, “आप मेरे साथ लखनऊ चलिए।”

प्रेमचंद बोले, “पर मैं तो यहीं गांव में रहने का निश्चय कर चुका हूं।”

मालिक ने पूछा, “वह क्यों?”

प्रेमचंद ने उत्तर दिया, “इसलिए, कि यहां रहकर अनपढ़ किसानों की सेवा करू और उन्ही के बारे में लिखूं।”

संचालक ने कहा, “पर हम आपको अपनी पत्रिका का संपादक बनाएंगे। उससे आप देश की अधिक सेवा कर सकेंगे।”

प्रेमचंद ने एक मिनट सोचा, फिर कहा, “अच्छा एक बात कहता हूँ। अगर आप माने, तो चल सकता हूं।”

उत्तर मिला, “हां, हां, कहिए!”

प्रेमचंद ने शर्त रखी, “मैं संपादक के नाते जो चाहूंगा, करूंगा। मेरे काम में आपका कोई दखल नहीं होगा ” ‘माधुरी’ के मालिक ने इसे मान लिया। फलतः प्रेमचंद लखनऊ चले आए।

इसी बीच वाराणसी में उन्होंने अपना प्रेस लगवाया और ‘हंस’ नामक एक पत्र निकाला। उनकी इच्छा स्वतंत्र रूप से काम करने की थी। इसलिए १९३१ में लखनऊ छोड़कर वह वाराणसी आ गए और स्वतंत्र रूप से अपना काम करने लगे ।

एक बार वह काफी बीमार पड़े। डाक्टर ने लिखने-पढ़ने से मना कर दिया था। लेकिन उनकी पत्नी शिवरानी देवी एक दिन सुबह उठी, तो देखा कि प्रेमचंद कुर्सी पर बैठे लिख रहे हैं।

शिवरानी देवी ने पूछा, “आप यह क्या कर रहे हैं?”

प्रेमचंद बोले, “हंस के लिए लेख लिख रहा हूं ।”

शिवरानी देवी झुंझला उठी, “कलम छोड़ो, मैं नहीं लिखने दूंगी। मालूम नहीं है, डाक्टर ने मना कर रखा है?”

प्रेमचंद ने कातर स्वर में कहा, “नहीं लिखंगा, तो ‘हंस’ कैसे निकलेगा।

शिवरानी देवी खीझ उठी, “हंस’ जाए भाड़ में। सबसे पहले आपको अपनी सेहत का ध्यान रखना है।”

पर वह हंसकर बोले, “मुझे काम से सुख मिलता है। ‘हंस’ तो पाठकों को समय पर मिलना ही चाहिए। मेरी सेहत का क्या है, ठीक हो जाएगी।”

प्रेमचंद की मृत्यु


अधिक काम से उनकी सेहत ठीक होने की बजाए बिगड़ती गई और एक लंबी बीमारी के कारण ८ अक्तूबर, १९३६ को उनका देहांत हो गया

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