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संत ज्ञानेश्वर  – Gyaneshwar

ज्ञानेश्वर ईसा की तेरहवीं शताब्दी में हुए। उनके पूर्वज
पैठण से
कुछ कोस दूर गोदावरी
के उत्तरी तट पर स्थित आपेगांव के निवासी थे
, किंतु किसी कारणवश बाद में आलंदी ग्राम में आकर बस गए। ये जाति
के ब्राम्हण और पेशे से गांव के कुलकर्णी
अर्थात पटवारी थे ।

ज्ञानेश्वर के प्रपितामह, त्रयंबक पंत, गुरु  गोरखनाथ के शिष्य और परम
भक्त थे । त्रयंबक पंत के लड़के गोविंद पंत और पुत्रवधू मीराबाई
, श्री गैनीनाथ जी
के अनन्य सेवक थे । मीराबाई के एक पुत्र हु
,  जिसका नाम विट्ठल
पंत रखा गया । यही विट्ठल पंत संत ज्ञानेश्वर के पिता थे ।

विट्ठल पंत बचपन से ही विद्या प्रेमी और ईश्वर भक्त थे । जनेऊ
के बाद ही वह देशाटन के लिए निकल पड़े। मार्ग में प्रसिद्ध विद्वानों के पास रहकर
शास्त्रों का अध्ययन करते जाते थे । विवाह के बाद जब कई वर्षों तक उनकी कोई संतान
नहीं हुई
, तब उन्होंने
सन्यास लेने का निश्चय किया
, किंतु उनकी पत्नी इस च्छा के विरुद्ध थी इसलिए एक दिन वह स्नान के लिए नदी जाने का बहाना कर सन्यास
की दीक्षा ले ली । उनकी पत्नी रु
क्मिणी बाई को शीघ्र ही
इस बात का पता लग गया
, पर वह अब कुछ न कर सकी |

कुछ साल पश्चात स्वामी
रामानंद जी ने अपने बहुत से शिष्यों के साथ दक्षिण कि यात्रा की । संयोग से वे एक
दिन आलंदी ग्राम पहुंचें और एक मंदिर में ठहरे । जब
रुक्मिणी बाई मंदिर में आई, तब वहां स्वामी रामानन्द को देखकर प्रणाम किया । स्वामी जी
ने पुत्रवती होने का
रुक्मिणी बाई को आशीर्वाद दिया । इस पर रुक्मिणी बाई ने कहा –  “मेरे स्वामी ने तो आपसे ही दीक्षा ले ली और
आपके शिष्य बन गए हैं । इसीलिए आपका आशीर्वाद अब किस प्रकार सफल हो सकता है
?

स्वामी रामानंद ने बनारस लौट
कर विट्ठल पंत को फिर से गृहस्थ बनने की आज्ञा दी । विट्ठल पंत घर लौट कर
रुक्मिणी बाई के साथ रहने लगे । कुछ समय बाद उनके निवृत्ति
नाथ
, ज्ञानेश्वर
और सोपान देव नामक तीन पुत्र और मुक्ताबाई नामक एक कन्या हुई
|

श्री ज्ञानेश्वर का जन्म १२५७
ई. में आपेगांव में हुआ।

गुरु की आज्ञा ही से विट्ठल
पंत सन्यास छोड़कर फिर गृहस्थ बन गए थे
, लेकिन शास्त्र के अनुसार सन्यासी कभी गृहस्थ नहीं बन सकता
। इसलिए सारे समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया निवृत्तिनाथ जब ७ वर्ष के हुए
, तब विट्ठल पंत को उनका जनेऊ करने की चिंता हुई, पर ब्राम्हण समाज में कोई भी इस कार्य के लिए तैयार न हुआ

अंत में उन्होंने अपने लिए प्रायश्चित
को स्वीकार करने का निश्चय किया और पंडितों से अपने लिए निर्णय मांगा । शास्त्रों
की बहुत कुछ छान-बीन करने के बाद धर्म गुरुओं ने यह अंतिम निर्णय दिया कि
शास्त्रों में विट्ठल पंत के लिए न तो कोई प्रायश्चित ही है और न उनके लड़कों को
जनेऊ की अनुमति दी जा सकती हैं । उनके लिए देह त्याग के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं
हो सकता ।

इस आदेश को सुनकर विट्ठल पंत
का हृदय टूट गया । वह संसार का सारा मोह त्यागकर सीधे तीर्थ राज प्रयाग पहुंचे और
उन्होंने पवित्र त्रिवेणी के संगम में डुब कर अपनी जान दे दी।
रुक्मिणी बाई को जब पति के स्वर्गवास का समाचार मिला, तब वह भी प्रयाग गई और वह भी डुब कर अपनी जान दे दी ।

 

माता-पिता की मृत्यु के बाद
उनके चारों बच्चे बिल्कुल अनाथ और असहाय हो गए । इस समय निवृत्ति नाथ की आयु लगभग
दस वर्ष की थी । इस आशा से कि अपने निकट संबंधियों से उन्हें कुछ सहायता अवश्य
मिलेगी ये सभी अपने पूर्वजों के गांव आपेगाँव चले गए । वहां पहुंचने पर उनके
रिश्तेदारों ने उनसे बड़ा रूखा बर्ताव किया और उन्हें अपने पुराने घर में रहने को भी
नहीं दिया गया । अब भीख मांग कर पेट पालने के सिवा इन अनाथों के सामने और कोई चारा
नहीं था।

इन्हीं दिनों एक दिन निवृत्तिनाथ
रास्ता भूल गए और घूमते-घूमते अचानक एक गुफा में जा पहुंचे । उस गुफा में गुरु
गैगीनाथ का आश्रम था । गैगीनाथ को अपने शिष्य विट्ठल पंत के लड़के से मिलकर बहुत
खुशी हुई । उन्होंने निवृत्तिनाथ को योगमार्ग की दीक्षा दी और श्री कृष्ण भगवान की
उपासना करने का उपदेश दिया । कुछ समय गुरु के पास रहने के बाद निवृत्तिनाथ घर लौटे
और उन्होंने ज्ञानेश्वर को दीक्षा दी ।

अपने दोनों भाइयों और बहन को
लेकर निवृत्तिनाथ अब फिर आलंदी आए। ज्ञानेश्वर चाहते थे कि ब्राह्मण समाज से जनेऊ
करने की आज्ञा प्राप्त कर फिर से समाज में सम्मिलित हुआ जाए। अपने छोटे भाई की बात
मानकर निवृत्तिनाथ ने पैठण जाकर वहां के पंडितों से शुद्धि पत्र मांगने का निश्चय
किया ।

४ दिन तक पैठण के पंडितों की
एक सभा होती रही । उन्होंने सब शास्त्रों को छान डाला किंतु उसमें कहीं भी ऐसा
उल्लेख नहीं मिला जिसमें किसी प्रायश्चित द्वारा सन्यासी के लड़कों की शुद्धि की
जा सके या उन्हें जनेऊ करने की आज्ञा दी जाए। अंत में पंडितों ने विवश होकर इन
बच्चों को यही आज्ञा दी की वे भगवान का भजन कीर्तन करते रहे और जनेऊ करने का इरादा
छोड़ दें ।

सभा के समाप्त हो जाने पर
किसी पंडित ने इन बालकों से उनके नामों का अर्थ पूछा । बच्चों के पांडित्य पूर्ण
उत्तर सुनकर विद्वान दंग रह गए। कुछ पंडितों को छोटे-छोटे लड़कों के मुंह से ऐसी
ज्ञान की बातें सुनकर हंसी आ गई । इसी बीच उस ओर से एक भैसा जाता हुआ दिखाई पड़ा ।
एक पंडित बोल उठा – अजी
,नाम में क्या रखा है ? किसी वस्तु को चाहे जो नाम रख दो। मैं कहता हूं कि इस
भैंसें का नाम ज्ञानेश्वर हैं ।

यह सुनकर ज्ञानेश्वर ने कहा –
“सचमुच
, मुझ में और
इस भैंसें में कोई अंतर नहीं है। जो आत्मा मेरे भीतर है वही उसमें भी हैं ।“

पंडित ने आगे बढ़कर उस भैंसे
के तीन डंडे लगाएं। मान्यता है कि भैंसे के डंडे पड़ते ही ज्ञानेश्वर के शरीर पर
उन डंडों की तीन निशान उभर आए । पंडित यह चमत्कार देखकर आश्चर्य में पड़ गए ।

इसके बाद ज्ञानेश्वर और उनके
भाई बहन कुछ दिन तक पैठण में ही रहे । वे नित्य गोदावरी में स्नान करते लोगों को
धार्मिक ग्रंथ सुनाते और रात में भजन-कीर्तन करते । शीघ्र ही उनकी कीर्ति चारों ओर
फैल गई ।

संयोग से पैठण की एक
प्रतिष्ठित ब्राह्मण के यहां उसके पिता का श्राद्ध था। श्री ज्ञानेश्वर श्राद्ध के
समय वहा मौजूद थे। कहते हैं ज्यो ही ब्राह्मण ने अपने पितरों को बुलाने का मंत्र
पड़ा उसके सब पीतर सशरीर आकर सामने आसन पर बैठ गए। लोग समझे कि हो ना हो यह
ज्ञानेश्वर का चमत्कार हैं। उनके दिल में ज्ञानेश्वर की अलौकिक शक्ति का डर समा
गया। आपस में बात करने की बाद पंडितों ने ज्ञानेश्वर और उनके भाई को शुद्धि पत्र
दे दिया और इस प्रकार उन्हें फिर से ब्राह्मण समाज में मिला लिया।

पैठन में कुछ दिन और रहने के
पश्चात ज्ञानेश्वर अपनी बहन और भाइयों के साथ पैदल यात्रा करते हुए नेवा नामक  गांव पहुंचे। गांव में घुसते ही उन्होंने एक
स्त्री को अपने पति के शव के पास विलाप करते देखा। पूछने पर मालूम हुआ कि मृत
व्यक्ति का नाम सच्चिदानंद था। कहते हैं ज्ञानेश्वर ने “सत्
,चित्त और आनंद “तो अमर हैं कहकर शव पर हाथ फेरा।
मुर्दा तुरंत जीवित हो उठा। उसने ज्ञानेश्वर के चरणों पर मस्तक रख दिया और उनका
शिष्य बन गया। इसी सच्चिदानंद ने कुछ समय बाद “ज्ञानेश्वर विजय” नामक एक
सुंदर काव्य ग्रंथ की रचना की।

यहां से चलकर ज्ञानेश्वर फिर
आलंदी पहुंचे। उनके चमत्कारों का समाचार उनके आने से पहले ही वहां पहुंच चुका था।
वहां के पंडितों ने उनका बड़े प्रेम से स्वागत किया। विसोवा चाटी नाम की एक
ब्राह्मण को यह देख कर बड़ी जलन हुई । उसने ज्ञानेश्वर आदि का निरादर करना नहीं
छोड़ा और उन्हें बराबर सन्यासी के बालक के कहकर पुकारता रहा।

एक बार दीपावली के अवसर पर निवृत्तिनाथ
ने मुक्ताबाई से एक विशेष प्रकार का पकवान बनाकर खिलाने को कहा जिसके बनाने के लिए
मिट्टी के बर्तनों की जरूरत थी। मुक्ताबाई ने गांव के कुम्हार से बर्तन तैयार करने
को कहा। विसोवा चाटी को इस बात का किसी प्रकार पता लग गया और उसने कुम्हार को डरा
धमका कर बर्तन बनाने से रोक दिया।

बर्तन ना मिलने पर मुक्ताबाई
घर आकर रो पड़ी। जब ज्ञानेश्वर को उसके रोने का कारण मालूम हुआ तब कहते हैं
उन्होंने योग साधना से अपनी पीठ पर वह पकवान सिकवाए । विसोवा चाटी ज्ञानेश्वर के
चरणों में गिर पड़ा और उस दिन से वह उनका परम भक्त बन गए।

ज्ञानेश्वर १५ वर्ष की आयु
में पूर्ण योगी और भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त हो चुके थे। अपने भाई निवृत्तिनाथ
पर उनकी असीम श्रद्धा थी। निवृत्तिनाथ को यह अपना गुरु भी मानते थे। उन्हीं के
कहने से ज्ञानेश्वर ने इस छोटी उम्र में श्रीमद्भगवद्गीता पर टीका लिखनी प्रारंभ
की। यह पुस्तक १ वर्ष में तैयार हुई और इसका नाम “ज्ञानेश्वरी” रखा गया ।
यह मराठी भाषा का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है।

“ज्ञानेश्वरी”
समाप्त करने के बाद ज्ञानेश्वर अपने साथियों
, निवृत्तिनाथ और कई दूसरे संत के साथ तीर्थ यात्रा करने के लिए आलंदी से
रवाना हुए।

यात्रा करते हुए संत
ज्ञानेश्वर सतपुड़ा पहुंचे। वहां हरपाल नाम का एक भील रहता था। वह यात्रियों को
लूटा करता था किंतु जो यात्री उसे भजन करते हुए मिलते उन्हें वह छोड़ देता था।
उसने ज्ञानेश्वर आदि की बड़े प्रेम से सेवा की और स्वयं तीर कमान लेकर उन्हें धार
नामक गांव तक पहुंचाने आया। धार से चलकर ज्ञानेश्वर और उनकी मंडली उज्जयिनी पहुंची
जहां ज्ञानेश्वर में प्रसिद्ध ज्योतिषी वीर मंगल का उद्धार किया। उस की समाधि पर
उन्होंने शिवलिंग की स्थापना की। यह स्थान नगर से बाहर संदीपन के आश्रम के समीप
अभी भी मंगलेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है।

ज्ञानेश्वर अपने साथियों सहित
गया
, अयोध्या ,वृंदावन, द्वारिका, गिरनार आदि तीर्थों में होते हुए मारवाड़ और वहां से चलकर
अंत में पंढरपुर आए। यहां यात्रा समाप्त हो गई
|

ज्ञानेश्वर के जीवन की एक
महत्वपूर्ण घटना है चांगदेव का उद्धार। चांगदेव या चांगवटेश्वर शिवभक्त और सिद्ध
पुरुष थे। कहते हैं कि वह अनेक विद्याओं के प्रकांड पंडित थे दूसरों के शरीर में
प्रवेश कर सकते थे
, पानी
पर चल सकते थे और जमीन के ऊपर आकाश में बिना किसी सहारे के बैठ कर कितने ही काम
किया करते थे। उनका आश्रम ताप्ती नदी के किनारे था। यह भी प्रसिद्ध है कि वह १४
बार मृत्यु को वापस भेज चुके थे। किंतु उनमें एक बड़ा भारी दोष था अत्यंत अभिमानी
थे और अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते थे।

चांगदेव ज्ञानेश्वर से मिलने
को उत्सुक हो उठे। वह अपने १४०० शिष्यों को लेकर ज्ञानेश्वर से मिलने चल पड़े।
कहां जाता है चांगदेव एक शेर पर सवार थे और उनके हाथ में सांप था जिससे वह चाबुक
का काम ले रहे थे। ज्ञानेश्वर को जब चांगदेव के आलंदी पहुंचने का समाचार मिला तब
वह अपने घर की दीवार पर बैठे निवृत्तिनाथ से बातचीत कर रहे थे। निवृत्तिनाथ ने
ज्ञानेश्वर से कहा कि हमें चांगदेव जैसे महान पुरुष की अगवानी के लिए अवश्य चलना
चाहिए। पर सवारी कहां से लाए
? कहते हैं ज्ञानेश्वर की आज्ञा से वह दीवार ही जिस पर दोनों
भाई बैठे थे चलने लगी। चांगदेव ने जब ज्ञानेश्वर को दीवार पर सवार होकर आते देखा
तब वह भौ-चक्के से रह गए। उनका सारा अहंकार मिट गया और वह ज्ञानेश्वर के चरणों में
गिर पड़े।

आषाढ़ और कार्तिक में कृष्ण
पक्ष की एकादशी के दिन पंढरपुर में प्राचीन काल से ही एक बड़ा मेला लगता था। एक
बार ज्ञानेश्वर अपने भाई-बहनों समेत वहां गए। भगवत संप्रदाय के अनुसार उन्होंने
चंद्रभागा नदी में स्नान किया पुंडरीक भगवान के दर्शन किए और श्री विट्ठल-रुक्मिणी
के दर्शनार्थ मंदिर में गए। कहां जाता है वहां उन्होंने सब संतो के सामने भगवान की
स्तुति की और मन ही मन समाधि ग्रहण करके प्राण त्याग करने की आज्ञा मांगी।

ज्ञानेश्वर में १२९६ ईस्वी
में २१ वर्ष की अल्पायु में आलंदी में समाधि लगा कर अपनी देह त्याग दी। इस घटना का
बड़ा ही ह्रदय द्रावक वर्णन नामदेव ने २५० शब्दों में किया हैं। उनकी पूर्ण स्मृति
में अब भी प्रतिवर्ष उस दिन आलंदी में बहुत बड़ा मेला लगता है।

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