एम आर जयकर | मुकुंदराव आनंदराव जयकर | M. R. Jayakar

एम आर जयकर | मुकुंदराव आनंदराव जयकर | M. R. Jayakar

मुकुंदराव आनंदराव जयकर का जन्म


मुकुंदराव आनंदराव जयकर का जन्म १३ नवंबर १८७३ को बंबई में एक मध्य वर्ग के परिवार में हुआ। जन्म के तेरहवें दिन, जिस दिन कुल-परंपरा के अनुसार बालक का नामकरण हुआ, परिवार के ज्योतिषी ने यह भविष्यवाणी की, कि इस बालक का जीवन यशस्वी होगा, किंतु यह बालक अपनों के लिए भारी पड़ेगा। ज्योतिषी की बातों में कितना सत्य था, यह कहना तो मुश्किल है, किंतु इतना अवश्य है कि बालक के जन्म के बाद एक वर्ष के अंदर ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। पिता का नाम था रामराव, जो मुकुंद के नाम के. साथ आजन्म जुड़ा रहा। पिता बंबई के सचिवालय में एक जूनियर अफसर थे, किंतु स्वभाव और बुद्धि के तेज थे। शायद भावुकता की मात्रा भी उनमें कुछ अधिक रही होगी। तभी तो एक दिन उनके एक वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी ने उनको कुछ अपशब्द कह दिए तो यह अपमान उनसे बर्दाश्त नही हुआ। उस समय वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों का कितना रौब-दाब था, आज इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। रामराव इस अपमान से इतने मर्माहित हुए कि घर पहुंचकर बीमार पड़ गए और तीन दिन के अंदर ही दिमाग की नस फट जाने से उनका देहांत हो गया।

पिता की मृत्यु के पश्चात् बालक के पालन-पोषण का भार नाना पर पड़ा। नाना का नाम था – वासुदेव जगन्नाथ कीर्तिकर। वह अपने समय के बड़े प्रतिष्ठित वकील थे और बंबई उच्च न्यायालय में उनकी अच्छी धाक थी। वकालत के अलावा उनकी संस्कृत और दर्शनशास्त्र में भी अच्छी रुचि थी और वकालत के पेशे से निवृत होने के बाद अपने जीवन के उतर-काल में उन्होंने गीता और वेदांत पर कुछ पुस्तकें भी लिखी थी।

बंबई उच्च न्यायालय में वह सरकारी वकील थे और अपनी ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध थे। १५ अगस्त १९११ को उनका स्वर्गवास हुआ। उनके नाना को तीन बार बड़ौदा नरेश ने अपनी रियासत का दीवान बनने के लिए आमंत्रित किया, किन्तु उन्होंने तीनों बार अस्वीकार कर दिया। लेकिन उन्होंने बड़ौदा नरेश का प्रमुख कानूनी सलाहकार बनना स्वीकार कर लिया और ब्रिटिश सरकार द्वारा नरेश को अपदस्थ करने के इरादे से लगाए गए तरह-तरह के आरोपों के विरुद्ध उन्होंने महाराजा मल्हारराव गायकवाड़ के मुकदमें की पैरवी की।

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मुकुंदराव आनंदराव जयकर की मां का नाम था – सोना बाई। सोना बाई ने जहां अपने बालक को बचपन में रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाकर जीवन के नैतिक आदर्शों की पृष्ठभूमि तैयार की, वही इस बात का भी ध्यान रखा कि नाना के संपन्न घर में रहकर भी बालक के मन पर विलासिता के संस्कार न पड़ने पाएं। संपन्न परिवार में रहकर भी, मुकुंद ने अपना बचपन कैसी सादगी से बिताया, इसका एक प्रमाण यह है कि वह मकान के जीने में बैठकर पढ़ता, एक सीढ़ी पर लालटेन रखता, उससे नीचे की सीढ़ी को मेज की तरह इस्तेमाल करता और उससे नीचे की सीढ़ी पर स्वयं बैठता।

मुकुंदराव आनंदराव जयकर की शिक्षा


आठ-दस वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मुकुंद के मन पर उस समय के राजनैतिक वातावरण का भी असर पड़ने लगा। महाराष्ट्र के कुछ देश भक्त उस समय विदेशियों के पंजे से अपने देश को आजाद कराने के लिए व्यग्र थे। मुकुंद और उसके साथियों ने भी शिवाजी के जीवन से प्रेरणा लेकर अपनी एक छोटी-सी बाल-सेना बनाई। इस सेना के लिए जंगल से बांस काटकर धनुष और बाण तैयार किए जाते, परंतु शिक्षा के लिए ये बालक जब अलग-अलग स्कूलों में जाकर भरती हो गए तो यह सारी बाल-सेना तितर-बितर हो गई।

हाईस्कूल में पहुंचने पर मुकुंद ने वैकल्पिक विषय के रूप में संस्कृत चुना। उस समय संस्कृत और फारसी इनमें से किसी एक भाषा को वैकल्पिक विषय के रूप में चुनना होता था। ब्राह्मण छात्र संस्कृत लेते और अब्राह्मण छात्र फारसी। मुकुंद अब्राह्मण था। पाठारे प्रभुवंश में उसका जन्म हुआ था। पाठारे प्रभु महाराष्ट्र की ऐसी जाति थी, जिसका बंबई को आबाद करने में अच्छा हाथ रहा। पेशवाओं के समय पाठारे प्रभु तलवार के धनी भी रहे, परंतु बाद में वे सिर्फ कलम के धनी रह गए। अठारहवीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के समय बंबई के सबसे धनी लोगों में पाठारे प्रभु ही गिने जाते थे। स्कूल में संस्कृत का अध्यापक स्वयं एक ब्राह्मण था। वह जहां ब्राह्मण छात्रों को संस्कृत लेने के लिए प्रेरित करता था, वहां अब्राह्मणों को उससे अलग भी रखना चाहता था। मुकुंद ने संस्कृत लेने की जिंद की तो अध्यापक ने उसको पन्द्रह दिन के लिए कक्षा से बाहर निकाल दिया। अचानक एक दिन मुख्याध्यापक कक्षाओं का निरीक्षण करने आए तो उन्होंने मुकुंद को बाहर खड़े देखकर पूछताछ की। तब तक कक्षा के बाहर रहते मुकुंद को एक सप्ताह बीत चुका था। उसके बाद मुकुंद को कक्षा में ले लिया गया।

उसके बाद मुकुंद सेंट जेवियर कालेज में भरती हुआ और वहां से १८९५ में ग्रेजुएट हुए। इस कालेज में संस्कृत के स्नातकोत्तर अध्ययन की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उन्होने एलफ़िस्टिन कालेज में भरती होकर वहां से एम.ए. किया। एम.ए. में अंग्रेजी और संस्कृत ही उसके विषय थे और इन दोनों में उसने विशिष्टता प्राप्त की।

उन्हीं दिनों बंबई में प्लेग का आक्रमण हुआ। इससे पहले भारत में कभी इस रोग का नाम नहीं सुना गया था। कहा जाता है कि एक चीनी जहाज ने कुछ माल बंबई के समुद्र तट पर उतारा था। उस माल के बोरों में घुसे चूहे ही पहली बार प्लेग के कीटाणु भारत में लाए। देखते ही देखते महामारी ने विकराल रूप धारण कर लिया। लोग बड़ी संख्या में मरने लगे, सरकार ने प्लेग-ग्रस्त क्षेत्रो से लोगों को निकालने के लिए सेना का इस्तेमाल किया। सैनिकों को जोर-जबर्दस्ती के कारण आम जनता में ब्रिटिश सरकार के प्रति घृणा और घनीभूत हो गई। रोगियों की सेवा के लिए जनता ने अपनी ओर से अस्पताल खोले। इस प्रकार का पहला अस्पताल खोलने के लिए मुकुंद के नाना ने अपनी ओर से पांच हजार रुपये दान दिए, जिसकी देखा-देखी अन्य लोग भी इस काम में पीछे नही रहे। उस समय इस प्रकार के काम को भी अंग्रेजों के विरोध और देशभक्ति का एक अंग समझा जाता था।

मुकुंदराव आनंदराव जयकर की मराठा एजुकेशन सोसाइटी


युवक मुकुंद जयकर के मन में भी उन दिनों देशभक्ति की भावना हिलोरें ले रही थी। उसने अपने मन में एक ऐसा पब्लिक स्कूल खोलने की योजना बनाई, जिसमें मैकाले की इच्छा के विपरीत देशभक्त और स्वाभिमानी युवक तैयार किए जा सकें | उस समय अधिकांश शिक्षा संस्थाएं ईसाइयों के हाथों में थीं और उनमें ईसाई धर्म का खुलकर प्रचार होता था | जयकर और उसके साथी जिस प्रकार की संस्था का स्वप्न देख रहे थे, उसमें निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होती, गीता पढ़ाई जाती और व्यायाम तथा सैनिक शिक्षा का भी अनिवार्य स्थान होता। ईसाइयों ने इस प्रकार की किसी भी संस्था के खोले जाने का विरोध किया। उनका कहना था कि वहां गीता की आड़ में विद्रोह की शिक्षा दी जाएगी। परंतु युवकों का उत्साह उस विरोध से घटा नहीं।

आखिर मराठा एजुकेशन सोसायटी की स्थापना करके उसके अंतर्गत जून, १८९७ को स्कूल के लिए छात्रों का रजिस्ट्रेशन प्रारंभ कर दिया गया। पहले ही दिन दो सौ पंचास छात्र आ गए। पंद्रह दिन के अंदर-अंदर सात सौ छात्रों से यह पब्लिक स्कूल प्रारंभ हो गया। इस स्कूल में सरकारी सहायता का कोई प्रश्न था ही नहीं, इसलिए यह निश्चय किया गया कि उसमें पढ़ाने वाले किसी भी अध्यापक को वेतन नहीं दिया जाएगा। इतना ही नहीं, अध्यापक अपनी ओर से सौ-सौ रुपये दान देंगे। इस स्कूल में अग्रेजी, संस्कृत और धर्म शिक्षा के अध्ययन का दायित्व जयकर ने संभाला। इस स्कूल ने कई ऐसे व्यक्तियों को जन्म दिया, जिन्होंने आगे चलकर देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। चिंतामणि देशमुख, जो आगे चलकर रिजर्व बैंक के गवर्नर, भारत के वित्तमंत्री और दिल्ली विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने, इसी स्कूल की उपज थे, बाद में छात्रों की संख्या बढ़ जाने पर बंबई की एक विशाल इमारत में इस स्कूल की कक्षाएं लगने लगी। तब छात्र-छात्राओं की संख्या पांच हजार तक पहुंच चुकी थी।

मुकुंदराव आनंदराव जयकर का विवाह


मुकुंदराव आनंदराव जयकर का विवाह १८९९ में सुशीलाबाई से हुआ। सुधारवादी विचारों से प्रेरित जयकर ने अपना विवाह, अपने संबंधियों की इच्छा के विपरीत, अत्यंत सादगी और आडंबरशून्य दंग से ही करना स्वीकार किया | इसके बाद जयकर में वकालत पास करने की इच्छा पैदा हुई और इसके लिए उन्होंने इंग्लैड जाने का निश्चय किया। २० अप्रैल १९०१ को वह लंदन के लिए रवाना हुए। परंतु लंदन की जलवायु उनके अनुकूल नहीं पड़ी, इसलिए डाक्टरों को सलाह से वह कुछ दिन बाद ही भारत लौट आए।

मुकुंदराव आनंदराव जयकर का वकील बनाना


अगले साल ही बंबई से एल.एल.बी. पास किया। इग्लैंड में जाकर पढ़ने की इच्छा समाप्त नहीं हुई थी इसलिए १९०३ में फिर लंदन के लिए रवाना हुए। वहां उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए प्रयत्न किया, परंतु सफलता न मिली। अलबत्ता रोमर्स चैम्बर्स में उनको जूनियर वकील की हैसियत से जगह मिल गई। वकालत पढ़ने वाले ब्रिटिश छात्रों के साथ रहकर उनको ब्रिटिश जनजीवन के अध्ययन का अच्छा अवसर मिला। अक्तूबर १९०३ में उन्होंने वकालत की परीक्षा दी और वहां के वकील संघ में शामिल होकर वकालत की प्रेक्टिस प्रारंभ कर दी। इस समय ब्रिटेन में प्राप्त अनुभव के कारण ही आगे जाकर वह वैस्ट मिस्टर में हिज़ मैजेस्टी की प्रिवी कौसिल की जूडिशियल कमेटी के सदस्य बन सके।

सन् १९०५ में जयकर भारत लौट आए और १७ अप्रैल को बंबई के उच्च न्यायालय में उन्होंने एडवोकेट के रूप में शपथ ली। लगातार ३२ साल तक बंबई उच्च न्यायालय में उन्होंने वकालत की और १९३७ में वह भारत के फेडरल कोर्ट के जज बना दिए गए। इस बीच भारत के राजनीतिक क्षेत्र में हलचल बढ़ती जा रही थी। जयकर जैसे व्यक्ति के लिए उस वातावरण से सर्वधा अलग-थलग रहना संभव नही था। १९१९ में जब पंजाब में जलियांवाला बाग का नृशंस हत्याकांड हुआ, तब उसने समस्त देश के बुद्धिजीवियों को इतना अधिक आंदोलित कर दिया कि जो लोग राजनीतिक विचारों की दृष्टि से कांग्रेस स से पूरी तरह सहमत नहीं थे, उनकी भी कांग्रेस के साथ सहानुभूति हो गई। तभी विश्व कवि रवीद्र नाथ ठाकुर ने खिन्न होकर ब्रिटिश सरकार द्वारा दिया गया “सर” का खिताब वापस कर दिया था। महात्मा गांधी ने प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार की सहायता के उपलक्ष्य में मिला “कैसरे हिंद” खिताब वापिस कर दिया।

देशव्यापी आंदोलन से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने जलियावाला बाग कांड की जांच के लिए हंटर के नेतृत्व में एक जांच कमेटी बिठाई, जो “हंटर कमेटी” के नाम से मशहूर हुई। इधर कांग्रेस ने भी अपनी ओर से एक जांच कमीशन बिठाया। इस कमीशन की रिपोर्ट तैयार करने में सहयोग देने के लिए गांधीजी ने जयकर को बुलाया। पंडित मदनमोहन मालवीय, पं. मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और गांधीजी के साथ जयकर ने भी उस रिपोर्ट को तैयार करने में पूरा सहयोग दिया। हंटर कमेटी अपनी पक्षपात पूर्ण दृष्टि के कारण जिन तथ्यों पर लीपापोती करना चाहती थी, उन तथ्यों को प्रत्यक्षदर्शी गवाहों के आधार पर कांग्रेस की इस रिपोर्ट में उजागर किया गया। गांधीजी चाहते थे कि इस रिपोर्ट को लेकर इंग्लैंड जाने वाले शिष्टमंडल का नेतृत्व श्री जयकर करें, परंतु उस रिपोर्ट को तैयार करने में किए गए अत्यधिक परिश्रम के कारण जयकर बीमार पड़ गए, इसलिए वह इंग्लैंड नहीं जा सके। इस रिपोर्ट के पश्चात् ही गांधीजी के मन में ब्रिटिश सरकार से असहयोग की बात उठने लगी, जिसकी अंतिम परिणति आगे चलकर असहयोग आंदोलन, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी के प्रचार में हुई।

स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान एक समय ऐसा भी आया था जब कांग्रेस के नेताओं में तत्कालीन ब्रिटिश लेजिस्लेटिव कौंसिल में शामिल होने के संबंध में गहरा मतभेद था। कौसिलों में प्रवेश के समर्थक दलील देते थे कि हम कौसिलों में जाकर अपने कानूनी ज्ञान के द्वारा ब्रिटिश सरकार को जनता की मांग मानने के लिए मजबूर कर सकेंगे, जबकि कौसिल प्रवेश के विरोधियों का कहना था कि हमें किसी भी स्तर पर ब्रिटिश सरकार से सहयोग नहीं करना चाहिए। चित्तरंजन दास, पं. मोतीलाल नेहरू और जयकर आदि कौसिल प्रवेश के समर्थकों में थे। जब इस विवाद ने उग्र रूप धारण कर लिया तो कांग्रेस कार्य समिति ने इस संबंध में काफी विचार-विमर्श के पश्चात् कौसिल प्रवेश के विरोध का आंदोलन रोक दिया और जो लोग कौसिल प्रवेश के समर्थक थे, उन्हें यह छूट दे दी कि वे निर्वाचित होकर कौंसिल में जा सकते हैं।

स्वराज्य पार्टी की ओर से चुनाव लड़कर श्री जयकर बंबई विधान सभा में पहुंचे और वहां विरोधी दल के नेता के रूप में उन्होंने अपनी प्रतिभा और वक्तृत्व-कौशल का अच्छा परिचय दिया।

इन्हीं दिनों श्रीनिवास शास्त्री, पं. मोतीलाल नेहरू और जयकर आदि स्वराज्य पार्टी के नेताओं ने मिलकर औपनिवेशिक स्वराज्य की एक योजना तैयार की और वे ब्रिटिश सरकार द्वारा उसे मनवाने के लिए आंदोलन भी करते रहे। पर तब तक देश का राजनीतिक मिजाज काफी गरम हो चुका था और जनता पूर्ण स्वराज्य से कम किसी भी चीज से संतुष्ट न होने की दिशा में आगे बढ़ रही थी।

सन् १९०५ से लेकर मृत्युपर्यंत जयकर देश के राजनीतिक घटनाचक्र से संबंधित उस सब सामग्री का संकलन करते रहे, जो भावी इतिहास लेखकों के लिए प्रामाणिक स्रोत का काम कर सकती है। इस सामग्री में देश-विदेश के महत्वपूर्ण व्यक्तियों के निजी और सार्वजनिक तथा गोपनीय पत्र, विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा दिए गए भाषण और वक्तव्य, राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं के विवरण, इस लंबी अवधि के दौरान सावधानी पूर्वक चुनी गई | अखबारी कतरनों की फाइलें, गोलमेज कांफ्रेंसों की कार्यवाहियों एवं ब्रिटिश पार्लियामेंट की भारत संबंधी बहसों का विवरण सम्मिलित है। यह सब सामग्री एक ट्रस्ट के सुपुर्द है और शोधार्थियों के लिए सर्वदा उपलब्ध है।

मुकुंदराव आनंदराव जयकर की मृत्यु


१० मार्च १९५९ में इस विधिवेत्ता तथा शिक्षा शास्त्री का स्वर्गवास हो गया।

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