बिरसा मुंडा का जीवन परिचय | Birsa Munda Biography in Hindi

बिरसा मुंडा का जीवन परिचय | Birsa Munda Biography in Hindi

बिहार राज्य के रांची और सिंहभूमि जिलों के मुंडा आदिवासियों को अंग्रेज अधिकारियों और दलालों के शोषण और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष के लिए खड़ा करके बिरसा ने अपनी कीर्ति अमर की। उसने बहुत ही कम उम्र पाई, केवल २५ वर्ष (१८७५-१९००) की। किंतु जीवन के अंतिम पांच वर्षों में वह मुंडा लोगों को बहुत कुछ सिखा गया। यह बिरसा के प्रयत्नों का ही फल था कि १९०० में ६० वर्ग मील के इलाके की जनता अपने तीर-कमान और बरछे-भालों से ब्रिटिश सरकार की गोलियों का मुकाबला करने के लिए उठ खड़ी हुई थी। सभी प्रकार का शोषण समाप्त करने तथा अंग्रेजी सत्ता का जुआ उतार फेंकने का उनका आह्वान घर-घर का नारा बन गया। बिरसा अब नहीं है, किंतु मुंडा जनजाति अपने जंगलों और पहाड़ों में आज भी उनकी आवाज़ गूंजती हुई सुनती है और उनको विश्वास है कि धरती आवा-इसी नाम से वह पुकारे जाते थे-एक बार फिर अवतार लकर उनका मार्गदर्शन करेंगे।

AVvXsEj7148gcWo1ilQUBEHNqPRA9532VKGS2dLMJFgofG3cY FB9LBpVfWSQ9qrSjkaWpJpZwzzFsiw36o76YiuuLaZBEycQ465 D

बिरसा मुंडा का जन्म


बिरसा के पिता सुगना मुंडा, लकरी मुंडा की दूसरी संतान थे। सुगना के पांच पुत्र हुए। बिरसा उनकी चौथी संतान थे। बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवंबर १८७५ माना जाता है। कुछ व्यक्ति उनका जन्म स्थान उलिहातु और कुछ बलखद बताते हैं। बिरसा के ताऊ, पिता, चाचा सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। उनके पिता जर्मनी के धर्म प्रचारकों के सहयोगी थे।

बिरसा का बचपन एक साधारण आदिवासी किसान की भांति चलखद में बीता। वह भी भेड़ बकरियां चराने लगे, किंतु मां बाप ने गरीबी के कारण बालक को पांच वर्ष की आयु में ननिहाल भेज दिया। बाद में जब उनकी छोटी मौसी की शादी हो गई, तो वह बिरसा को भी अपने साथ ससुराल ले गई, जहां वह बकरी चराने लगे।

बिरसा मुंडा की शिक्षा


बिरसा के पास स्लेट या किताब न थी। वह बकरियां चराने के समय जमीन पर अक्षर लिखने में तन्मय हो जाते। बकरियां दूसरे के खेतों में जाकर खड़ी फसल को नुकसान पहुंचाती और खेत के मालिक बिरसा की पिटाई करते। बिरसा को बांसुरी बजाने का बहुत शौक था। एक बार बांसुरी बजाने में इतने लीन हो गए कि, उनके मौसा की कई बकरियां खो गई। मौसा ने उनको बुरी तरह पीटा। वह भागकर अपने बड़े भाई के पास कुंदी गांव में चले गए। बाद में वह बुर्जु के जर्मन मिशन स्कूल भरती हो गए। वहां से वह चाईबासा में दूसरे जम्मन मिशन स्कूल में पढ़ने भेजे गए। स्कूल का वातावरण उन्हें पसंद नहीं था, क्योंकि वहां उनके धर्म और संस्कृति पर कीचड़ उछाली जाती, जो उनकी बर्दाश्त के बाहर था। किंतु फिर भी शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह सब कुछ बर्दाश्त करते रहे।

बिरसा ने भी स्कूल में पादरियों और उनके धर्म का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। इसलिए ईसाई धर्म प्रचारकों ने १८९० में उन्हें स्कूल से निकाल दिया। इस स्कूल में बिरसा ने मिडिल तक की शिक्षा पाई।

बिरसा मुंडा पर हिन्दू धर्म का प्रभाव


बिरसा के विचारों का विकास सन् १८९१ से १८९४ के बीच हुआ, जब वह स्वामी आनंद पांडे के संपर्क में आए। उन्होंने बड़ी भक्ति से उनकी सेवा की और उनसे हिंदू धर्म के बारे में ज्ञान प्राप्त किया। उन्हें महाभारत के पात्रों की कथा से बड़ी प्रेरणा मिली। इसी बीच एक होकर वह अहिंसा और जीवों के प्रति दया की बात करने लगे। इस प्रकार उन पर एक प्रभाव ईसाई धर्म प्रचारकों का था, दुसरा समुदाय के उन जागरूक व्यक्तियों का जो प्राचीन मुंडा राज्य के गौरव से प्रेरणा लेकर न्याय पर आधारित भूमि व्यवस्था के लिए संघर्षशील थे और तीसरा प्रभाव हिंदू धर्म का था।

बिरसा मुंडा को दिव्य ज्योति प्राप्त होना


सन् १८९५ में कुछ ऐसी घटनाएं हुई कि बिरसा एक मसीहा बन गए। कहते हैं कि एक दिन जब बिरसा एक मित्र के साथ जंगल में जा रहे थे, उन पर बिजली गिरी और बिरसा के शरीर में समा गई। उनके मित्र ने तत्काल गांव लौटकर घोषणा की किं बिरसा को “दिव्य ज्योति” मिल गई है।

गांव वालों ने बिरसा को भगवान का अवतार मान लिया। उसी समय एक मुंडा मां ने अपने बीमार पुत्र को गोद में लेकर बिरसा के पैर छुए। कुछ समय बाद बच्चा ठीक हो गया। ऐसी घटनाएं और घटी, जिससे लोगों में यह विश्वास फैल गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से रोग दुर हो जाएगा। लेकिन जब गांव में चेचक फैली तो वृद्धजन कहने लगे कि बिरसा के कारण ग्राम देवी रुष्ट हो गई है। बिरसा गांव छोड़कर चले गए, किंतु फिर भी महामारी का प्रकोप कम नहीं हुआ। बिरसा लौटे और उन्होंने अपनी जाति की दिन रात सेवा कर सबका मन मोह लिया।

बिरसा की लोकप्रियता बढ़ती गई। वह आंगन में खाट पर बैठकर बातचीत करते, किंतु श्रोताओं के बढ़ने पर उनकी सभाएं खेतों में नीम की छाया में होने लगीं। वह छोटे-छोटे दृष्टांतों से अपने विचारों को बड़े ही सरल ढंग से समझाते। वह पुरानी रूढ़ियों और अंधविश्वासों की आलोचना करते। वह चाहते थे कि शिक्षा का प्रसार हो। लोग केवल एक देवता सिंहवांगा की पूजा करें और समाज की सेवा का व्रत लें। वह लोगों से हिंसा और नशीली वस्तुओं के त्याग का आग्रह करते। बिरसा की इन सभाओं ने जादू का काम किया और ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती गई। साथ ही ईसाई मुंडा अपना प्राचीन धर्म फिर से स्वीकार करने लगे।

बिरसा मुंडा के राजनीतिक जीवन


बिरसा मुंडा का कार्य धार्मिक आंदोलन तक ही सीमित न रहा। वह राजनीति की भी बातें करने लगे। उन्होंने किसानों का शोषण करने वाले जमीदारों और दूसरे बिचौलियों के काले कारनामों के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी। बिरसा के इस नए रूप में उभरने का एक कारण और भी था। उनकी लोकप्रियता देखकर वे व्यक्ति भी उनके साथ हो लिए जो मुंडा राज्य की स्थापना के लिए संघर्ष करना चाहते थे। अवतार माने जाने के बाद, जब वह जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले मसीहा बन गए, तो सरकार सशंकित हो उठी। अधिकारियों ने चेतावनी दी कि वह भीड़ न जमा किया करें और न असंतोष की भावना फैलाएं। बिरसा ने कहा कि मैं अपनी जाति को नया धर्म सिखा रहा हूँ। सरकार मुझे कैसे रोक सकती है। किंतु ९ अगस्त, १८९५ को उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया गया।

बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी


गांव वालों ने पुलिस से मुठभेड़ करके उन्हें छुड़ा लिया। १६ अगस्त को बिरसा के अनुयायियों और पुलिस अधिकारियों के बीच फिर झड़प हुई। उत्तेजित जनता ने खबर फैला दी कि आगामी २७ अगस्त को जमीदारों और ईसाइयों के विरुद्ध जिहाद शुरू करना है, किंतु वह दिन नहीं आया। अधिकारियों ने इसके पूर्व ही बिरसा को चलखद में सोते हुए गिरफ्तार कर लिया। बिरसा को एक डोली में रांची लाया गया। वहां उन पर तथा उनके १५ सहयोगियों पर मुकदमा चलाया गया। अभियुक्तों ने न अपना वकील किया न जिरह ही की १९ नवंबर १८९५ को बिरसा और उनके कुछ सहयोगियों को दो साल कठिन कारावास की सज़ा दी गई। उन्हें हजारीबाग जेल में रखा गया। उन्हें ३० नवंबर १८९७ को यह चेतावनी देकर छोड़ा गया, कि वे कोई प्रचार कार्य नहीं करेंगे।

बिरसा मुंडा का संगठन बनाना


बिरसा की रिहाई के कुछ ही समय बाद, उनके अनुयायियों ने चलखद में सभा की और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठन बनाने का निश्चय किया। बस, आंदोलन के लिए जोरशोर से तैयारियां होने लगी। अनुयायियों को दो दलों में बांटा गया। एक दल को नए मुंडा धर्म के प्रचार का कार्य सौंपा गया और दूसरे को राजनीति के लिए तैयार किया गया। तीसरे, नए रंगरूट थे। प्राचीन मुंडा राज्य के ऐतिहासिक स्थलों और मंदिरों के दर्शनों की योजना बनाई गई, जिससे समूची जाति का स्वाभिमान जागे | ऐसे अवसरों पर सामूहिक भोज और संस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते ।

चुटिया के प्राचीन मंदिर पर जनवरी १८९८ को ऐसे ही कार्यक्रम का आयोजन किया गया। समारोह में बिरसा स्वयं उपस्थित थे। पुलिस दल के आने की सूचना पाकर बिरसा अपने कुछ सहयोगियों के साथ भाग खड़े हुए।

बिरसा को गिरफ्तार करने के लिए वांरट जारी किया गया और इनाम की घोषणा की गई। किंतु बिरसा अधिकारियों के चंगुल में नहीं आए। मुंडा आदिवासियों में विद्रोह की भावना बल पकड़ रही थी और बिरसा उन्हें संघर्ष के लिए तैयार कर रहे थे| बिरसा ने चलखद छोड़कर डुंबरी में अपना कार्यालय बनाया। डुंबरी का चुनाव सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था। यह स्थान मुंडा क्षेत्र के बिलकुल ही मध्य में है और चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा है।

फरवरी १८९८ में डुंबरी में मुंडा क्षेत्र के प्रतिनिधियों की सभा हुई। होली के पर्व पर निकटवर्ती पहाड़ी पर एक और सभा हुई, जिसमें ब्रिटिश सरकार व ब्रिटिश साम्राज्ञी के पुतले जलाए गए। कहते है कि लगभग १६ सभाएं की गई और बड़े दिन के अवसर पर जमींदारों, ठेकेदारों और पादरियों की हत्याओं की योजना बनाई गई।

सन् १८९९ का आंदोलन १८९५ के मुकाबले बिलकुल ही भिन्न था। १८९५ का आंदोलन मुख्यतः अहिंसात्मक था और मुंडा भूमि पर अपने प्राचीन अधिकारों की मांग के लिए संघर्ष कर रहे थे | १८९९ में हिंसा का मार्ग अपनाया गया। यूरोपियों अधिकारियों और पादरियों को हटाकर उनके स्थान पर बिरसा के नेतृत्व में नए राज्य की स्थापना का निश्चय किया गया।

मुंडा जाति का अंतिम विद्रोह बड़े दिन की पूर्व संध्या – २४ दिसंबर १८९९ को योजनानुसार प्रारंभ हुआ। सिंहभूमि जिले के चक्रधरपुर और रांची जिले के खूंटी, कर्रा, तोरपा, तसार और बसिया के पुलिस थानों पर तीरों से हमले किए गए और उनमें आग लगा दी गई। सबसे बड़ा हमला खूंटी थाने पर किया गया। ईसाई पादरियों के क्षेत्रों पर भी हमले हुए। अधिकारियों ने मुकाबले के लिए सेना भेजी।

२६ दिसंबर से ५ जनवरी १९०० तक छिट्पुट हमले होते रहे। ७ जनवरी से सेना से सीधी मुठभेड़ हुई। सर्वप्रथम खूटी पुलिस थाने पर धावा बोला गया। ९ जनवरी को सैल रकाब पहाड़ी पर जबरदस्त मुठभेड़ हुई। सेना ने पहाड़ी को घेर लिया था। एक तरफ से पत्थर और तीर फेंके जा रहे थे और दूसरी तरफ से गोलियां चल रही थीं। विद्रोही हार गए। इस मुठभेड़ में कितने लोग मारे गए, इसके सही आंकड़े उपलब्ध नहीं है। इस मुठभेड़ ने आंदोलन की कमर तोड़ दी और विद्रोह कुचल दिया गया। चारों और धरपकड़ शुरू हो गई और आतंक, दमन तथा अत्याचार का राज्य छा गया।

बिरसा मुंडा की मृत्यु


दो प्रमुख मुंडा सरदारों द्वारा अपने ३२ अन्य साथियों के साथ २८ जनवरी को आत्मसमर्पण कर दिए जाने के बाद रांची जिले में आंदोलन समाप्त हो गया| सेना वापस बुला ली गई। बिरसा अपने को बचाने के लिए मारे-मारे घूमते रहे। उनके पीछे अधिकारी भी थे और इनाम पाने के लालच में उनके अपनी जाति के लोग भी। आखिर उनकी ही जाति के दो व्यक्तियों ने इनाम के लालच में ३ फरवरी को उन्हें एक जंगल में पकड़वा दिया।

बिरसा की गिरफ्तारी के ३ महीने बाद ही जेल में उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। पहली जून को बताया गया कि उनको हैजा हो गया है। ९ जून १९०० को प्रांतः ९ बजे उनकी मृत्यु हो गई। उनके शव की परीक्षा के बाद जेल के मेहतर ने गोबर के कंडों से उनका अंतिम संस्कार किया। कहते हैं कि किसी ने उन्हें विष देकर मार डाला था।

बिरसा के आंदोलन को कुचलने के लिए उनके अनुयायियों पर मुकदमें चलाए गए। अभियुक्तों को अपनी रक्षा का मौका भी नहीं मिला। रांची और सिंहभूमि में ४८२ अभियुक्तों में से केवल ९८ को सजा दी गई। कुल मिलाकर ३ व्यक्तियों को फांसी, ४४ को आजीवन कारावास, १० को १० वर्ष का कठिन कारावास, ८ को सात वर्ष, २३ को पांच वर्ष और ६ को तीन वर्ष की सजा दी गई।

बिरसा और उनके आंदोलन को किसी भी हालत में सफलता नहीं मिल सकती थी, क्योंकि भारत जैसे विशाल देश की विदेशी सरकार एक प्रांत के एक छोटे से क्षेत्र के विद्रोह को कैसे बर्दाश्त कर सकती थी? लेकिन फिर भी इस आंदोलन ने यह स्पष्ट कर दिया था कि मुंडा जाति के विद्रोह के बाद दबी नहीं, बल्कि शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने की भावना और गहरी होती गई। बिरसा का आंदोलन लगभग एक महीने चला और साठ वर्ग मील क्षेत्र में फैल गया।

बिरसा के आंदोलन को पूरी तरह असफल भी नहीं कहां जा सकता, क्योंकि उसके फलस्वरूप मुंडा क्षेत्र की भूमि समस्या सार्वजनिक महत्व का प्रश्न बन गई। सेंट्रल लेजिस्लेटिव कौंसिल और समाचारपत्रों में चर्चाएं हुई और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को मजबूर होकर भूमि समस्या के सुधार के लिए कदम उठाने पड़े।

बिरसा का पार्थिव शरीर तो नहीं रहा, किंतु वह अपनी कीर्ति, अपनी जाति के साहित्य और गीतों तथा अपने अनुयायियों के दिलों में आज भी जीवित है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *