कंदुकूरी वीरेशलिंगम | Kandukuri Veeresalingam
आज से सौ-सवा सौ साल पहले आंध्र एक पराधीन देश का पराधीन भाग था और पिछड़ा हुआ भी । लोग प्रायः अशिक्षित थे। उस जमाने में स्त्रियों को कोई पढ़ाता ही न था। चारों ओर अंधविश्वास का बोल-बाला था। समाज में बाल-विवाह, जात-पात, दहेज-प्रथा, वेश्यागमन और रिंश्वतखोरी आदि अनेक कुरीतियां प्रचलित थीं | जनता से दूर, साहित्य केवल पंडितों का खिलवाड़ था। संस्कृति शुष्क व नीरस थी। पाखंडों और आडंबरों से भरा हुआ धर्म खोखला था। उस सोई हुई जाति को जगाने और गिरे हुए समाज को उठाने के लिए वीरेशलिंगम ने जिंदगी भर काम किया। उनकी महान सेवाओं के फलस्वरूप आंध्र में समाज-सुधार की लहर दौड़ गई, नवीन परंपराओं का प्रचलन हुआ और नए आंध्र के निर्माण का श्रीगणेश हुआ।
कंदुकूरि वीरेशलिंगम का जन्म
वीरेशलिंगम का जन्म १६ अप्रैल, १८४८ को आंध्र की प्रसिद्ध नगरी राजमहेंद्रवरम में हुआ था। गोदावरी के किनारे स्थित राजमहेंद्री सदा से साहित्य व संस्कृति, संगीत व कला, वाणिज्य व व्यापार का केंद्र रही है। एक हजार साल पहले चालुक्य वंश की वह राजधानी थी | आंध्र साहित्य के प्रथम महाकाव्य “महाभारत” का सृजन वहीं हुआ था। वीरेशलिंगम के पूर्वज भी साहित्यसेवी, विद्यानुरागी व दानी थे, इसलिए सहज ही उस सुसंस्कृत वातावरण की छाप बालक वीरेशलिंगम पर पड़ी और उसे काव्य-पठन की रुचि हुई।
कंदुकूरि वीरेशलिंगम का बचपन की विपत्तिया
वीरेशलिंगम का बचपन फूलों में नहीं गुजरा। उनके रास्ते में कांटे थे, जन्म से ही उन्हें कई विपत्तियों का सामना करना पडा | केवल नौ महीने के थे, तब उन्हें ऐसा भयंकर चेचक हुआ कि वह मृत्यु के मुंह से बाल-बाल बचे। उस चेचक के दाग जीवन-पर्यंत उनके चेहरे पर दिखाई देते रहे, पर उस चेहरे की रोशनी को छिपा सकने में असमर्थ हुए। वह चार साल के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया। अगले वर्ष एक और आश्चर्यजनक घटना हुई। वह अपनी माता के साथ पालकी में बैठकर अपने मामा के गांव जा रहे थे। रास्ते में एक नाला पार करना था । कहार गीत गाते हुए पालकी को ढोए जा रहे थे। न जाने कैसे, उस पालकी में से खिसक कर वह बहते पानी में गिर पड़े। मां का रोना-धोना सुनकर कहारों ने बड़ी मुश्किल से डूबते हुए बालक को बचाया था । वीरेशलिंगम शरीर के भी बड़े दुबले-पतले थे। हमेशा खांसी से पीड़ित रहते थे । अपने दुर्बल स्वास्थ्य की ओर संकेत करते उन्होंने अपनी आत्मकथा में में लिखा था – “मुझ जैसे दुबले-पतले व्यक्ति से भी देश व समाज की कुछ सेवा हो सकती है, संभवतः यही सिद्ध करने के लिए परमात्मा ने मुझे इतने दिनों तक इस धरती पर रहने दिया।“
कंदुकूरि वीरेशलिंगम की शिक्षा
वीरेशलिंगम का विद्यार्थी जीवन बड़ा उज्ज्वल व सफल रहा। स्कूल में दाखिल होने के पहले उन्होंने घर पर तेलुगु और संस्कृत का अध्ययन किया था | बारह वर्ष की आयु में वह स्कूल में दाखिल हुए। हर साल वह अपनी कक्षा में प्रथम रहते थे। न जाने उन्होंने कितने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किए। उनकी प्रखर बुद्धि को देखकर अध्यापक दांतों तले उंगली दबाते थे। एक बार हेनरी मोरिस नामक जिलाधीश स्कूल मे पधारे थे | उन्होने कक्षा के सभी विध्यार्थी को पर्चा देकर यह लिखने को कहा कि सबसे होशियार, मेहनती और ईमानदार लड़का कौन है? सबने वीरेशलिंगम का नाम लिख कर भेजा। उनका रहन-सहन, पठन-पाठन और व्यवहार कुछ ऐसा ही अनोखा व अनुठा था। मोरिस ने बालक वीरेशलिंगम को अपने पास बुलाकर, पीठ पर हाथ फेरते हुए प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहे। वीरेशलिंगम फूले नहीं समाए। उन्हें लगा कि उन्हें कोई बहुत बड़ा खजाना मिल गया। सचमुच उनके विद्यार्थी-जीवन की यह बहुत बड़ी धरोहर थी। इस पर उन्होंने जीवन भर कलंक नहीं आने दिया।
उनके हृदय में अपनी भाषा के प्रति गहरा अनुराग था, पर वह बहुभाषा-प्रेमी थे, संस्कृत और अंग्रेज़ी का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया था। उच्च शिक्षा प्राप्त करने की उन्हें बड़ी लालसा थी।
कंदुकूरि वीरेशलिंगम समाज सुधारक के रूप मे
अचानक एक ओर विपत्ति का पहाड़ उन पर टूट पड़ा। उनके मामा, जो उनके कर्ता-धर्ता थे, चल बसे। उस समय वीरेशलिंगम कोई १९-२० साल के थे | उनके युवा कंधों पर परिवार का बोझ आ गया । अपनी आंतरिक अभिलाषा को दबाकर, कठोर कर्तव्य के रास्ते पर चलने का उन्होने निश्चय कर लिया। वह नौकरी की खोज में निकल पड़े। जब हेनरी मोरिस को उनकी यह दयनीय स्थिति मालूम हुई, तो उन्होंने वीरेशलिंगम को एक अच्छी सरकारी नौकरी दिलाने की बात कही, पर उसके दिल में देश व समाज की सेवा करने की भावना कूट-कूट कर भरी थी। उनका दृढ़ विश्वास था कि सरकारी नौकरी करके कोई भी व्यक्ति इस ओर कदम नहीं बढ़ा सकता, इसलिए मोरिस की प्रस्तावित सहायता को नम्रता के साथ अस्वीकार करके, वह कोरंगी नामक एक छोटे से गांव में कम वेतन पर स्कूल के अध्यापक नियुक्त हुए।
वह एक सफल व सुयोग्य अध्यापक थे। विद्यार्थियों के साथ उनका पिता-तुल्य प्रेम था। पाठशाला की उन्नति के साथ-साथ विद्यार्थियों की तरक्की के लिए वह कोई कसर नाही छोड़ते थे। तीन साल के अंदर-अंदर वह उस स्कूल में प्रधानाध्यापक नियुक्त हुए। उनकी मेहनत और निर्भीकता, उनकी विद्वना और परोपकारिता विद्यार्थियों के लिए आकर्षक और आदर्शस्वरूप बन गईं। वह विद्यार्थी जगत में काफी लोकप्रिय बन गए। धीरे-धीरे उनकी कीर्ति चारों ओर फैलने लगी।
उनका ध्यान केवल स्कूल की चहारदिवारी तक ही सीमित न रह कर इर्द-गिर्द के समाज की ओर भी जाने लगा। उन दिनों लड़कियों को कोई पढाता ही नहीं था, बाल-विधवाओं की स्थिति बडी दयनीय थी | जो दिन-रात कुढ़ती रहती थीं, कभी झाड़-बहारते, कभी बर्तन मांजते, कभी चक्की पीसते और कभी खाना पकाते। दिल खोल कर और आंख उठा कर दुनिया की ओर देख नहीं सकती थीं।
उन दिनों मद्रास से “आंध्र संजीवनी” नामक एक तेलुगु पत्रिका प्रकाशित होती थी | उसके संचालक प्राचीन रूढ़ियों के समर्थक थे। उस पत्रिका के द्वारा विधवा-विवाह और स्त्री-शिक्षा के विरुद्ध बड़े जोर-शोर से प्रचार किया जाता था | यह देख कर वीरेशलिंगम का दिल हिल उठा। इस अन्याय के विरुद्ध एक जबर्दस्त आंदोलन चलाने का उन्होंने फैसला किया। उनकी कलम उनकी ताकत थी। उनके निर्भीक विचार उनके धनुष-बाण थे। फिर क्या था, देखते ही देखते विधवा-विवाहों को शास्त्र-सम्मत घोषित करते हुए और स्त्री-शिक्षा की आवश्यकता पर जोर देते हुए लेखों के तीर बरसने लगे। उनके ये लेख मछलीपट्टणम से प्रकाशित होनेवाली “पुरुषार्थदायिनी” नामक पत्रिका में आए-दिन प्रकाशित होते थे।
उनकी लेखनी में जादू था उनके निर्भीक और उदात्त विचारों ने समाज में तहलका मचा दिया। १८७४ में वे धवलेश्वरम उच्च विद्यालय के मुख्य अध्यापक नियुक्त हुए। जनता से चंदा वसूल करके उन्होंने वहां बालिकाओं के लिए एक पाठशाला खोली थी। स्त्री-शिक्षा के प्रचार के लिए उन्होंने “विवेकवर्धिनी” नामक पत्रिका चलाना भी प्रारंभ किया। यहीं से सच्चे अर्थों में उनकी अनुपम सामाजिक व साहित्यक सेवाओं की धारा प्रवाहित होने लगी । कंदुकूरि वीरेशलिंगम के बारे में यह कहना कठिन है कि उनको पहले समाज-सुधारक माना जाए या साहित्यिक। लेखनी को तलवार की तरह चलाकर तत्कालीन सामाजिक रीतियाँ का जड़ से उखाड़ने की उन्होंने कोशिश की। उस समय ऐसा करना कोई बाएं हाथ का खेल नहीं था।
उन्होने हिम्मत्त नहीं हारी। वह ब्रह्म समाज के अनुयायी थे, उन्होंने अनेक बालिका-पाठशालाएं स्थापित की, बाल-विवाह व वृद्ध विवाह का उन्होने कड़ा विरोध किया। रिश्वतखोरी, मध्यपन व छुआछूत को उन्होने दोष बताए। मूर्तिपूजा के बदले मानसिक आराधना का महत्व समझाया | राजमहेंद्री में एक प्रार्थना समाज को स्थापना की। पर बाल-विधवा-विवाह के लिए उन्होंने जो कुछ किया वह अनुपम था। यह वह समय था जब विधवा विवाह करने और कराने वाले दोनों पर गालियों और पत्थरों की बीछार होती थी | जाति-बहिष्कार की सजा भी भुगतनी पड़ती थी। इन सब मुसीबतों का सामना करते हुए बाल-विधवाओं के विवाह का समर्थन कर वीरेशलिंगम ने अपने अपूर्व साहस का परिचय दिया। उन्होंने कॉलेज के अनेक विद्यार्थियों को, जो उनके शिष्य थे, बाल-विधवाओं के साथ विवाह करने को राजी किया। पुलिस का पहरा बैठाकर कई विधवा विवाह सपन्न कराए। यही नहीं, राजमहेंद्री में एक विद्यालय की स्थापना की, जिसमें अनेक बाल-विधवाओं को आश्रय देकर, उन्हे शिक्षित किया जाता था तथा योग्य वर ढूंढ कर उन्हें एक नया जीवन प्रदान किया जाता था |
कंदुकूरि वीरेशलिंगम का साहित्य प्रेम
साहित्य का भी कोई ऐसा अंग नहीं था जिस पर उनका प्रभाव न पड़ा हो। साहित्य का सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए, यह उनका दृढ विश्वास था | इसी ध्येय की पूर्ति के लिए उन्होंने जीवन की अतिम घड़ी तक अथक परिश्रम किया। तेलुगु गद्य के रूप को स्थिर करके उसे नए-नए विषयों की ओर बढ़ाया, कविता की धारा को नूतन परंपराओ की ओर प्रवाहित किया। संस्कृत व अंग्रेजी के कई उत्कृष्ट ग्रंथों का अनुवाद करके तेलुगु की मह्ता की बढ़ाया। कालिदास कृत “शाकुतलम्” का पहला अनुवाद उन्हीं का था। “राजशेखर चरित्रम” नामक उनका उपन्यास तेलुगु का प्रथम उपन्यास था। “आंध्र कवुल चरित्र” की रचना के द्वारा उन्होंने तेलुगु में सबसे पहले समालोचना की नींच डाली।
उन्होंने दक्षिण के कई नगरों का भ्रमण किया। जहां कहीं भी वह गए उन्होंने विधवा-विवाह और स्त्री-शिक्षा की आवश्यकता पर जोर देते हुए भाषण किए। वह मैसूर व बंगलौर भी गए। बाद में वह मद्रास लौट आए। वहां एक मुद्रणालय की स्थापना की। उनकी अधिकांश पुस्तके वही से प्रकाशित हुई। उसमें वीरेशलिंगम की बहुमुखी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए महादेव गोविंद रानडे ने कहा “वीरेशलिंगम दक्षिण के विद्यासागर” हैं।
कंदुकूरि वीरेशलिंगम की मृत्यु
वीरेशलिंगम एक सच्चे देशभक्त थे। २७ मई १९१९ में ७२ साल की अवस्था में भारत के इस सपूत का स्वर्गवास हुआ।