टीपू सुल्तान का जीवन परिचय | Tipu Sultan

%25E0%25A4%259F%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2582%2B%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25B2%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A8

टीपू सुल्तान |Tipu
Sultan


मैसूर की पुरानी राजधानी श्रीरंगपटनम के बाहर लाल बाग में
टीपू
, उसके पिता हैदर
अली और उसकी मां फातिमा की कब्रे एक ही जगह
, एक ही छत के नीचे बनी हुई हैं । टीपू के बारे
में वहां लिखी गई कविताओं में उसको
शाहे शहदाऔर नूरे इस्लामोदिंनकहा गया है। इसका
अर्थ है शहीदों का सम्राट और इस्लाम तथा दीन का नूर अर्थात प्रकाश । वास्तव में
टीपू ऐसा ही था जो भारत के इतिहास में सदा के लिए अपने को अमर कर गया ।

अठारहवीं शताब्दी में मध्य दक्षिण भारत में अंग्रेज़ो और
फ्रांसीसियों के बीच अपना
अपना प्रभाव
क्षेत्र बढ़ाने के बारे में प्रतियोगिता चल रही थी । उसके बाद लगभग बीस वर्ष में
अंग्रेज़ो ने फ्रांसीसियों से बाज़ी मार ली। लेकिन अब उन्हें शक्तिशाली मराठों और
बहादुर हैदर अली का सामना करना था ।

हैदरअली एक सैनिक का बेटा था और स्वयं एक साधारण सैनिक था ।
वह पढ़ना
लिखना भी नहीं
जानता था । उसने हिंदुओं कि अमलदारी मैसूर में सेना में नौकरी कर ली थीं। लेकिन
अपनी सैनिक सूझबूझ
,
शूरवीरता और दृढ़ निश्चय के कारण वह थोड़े से समय में ही
मैसूर का सुल्तान बन बैठा । उसे केवल इतने से संतोष नहीं हुआ
वह सब र अपने राज्य का विस्तार करने लगा । मराठे
निज़ाम और अंग्रेज़ उसकी बढ़ती हुई ताकत से ईर्ष्या करने लगे और उसे नीचा दिखाने
की ताक लगाने लगे । हैदर अली का बेटा इतिहास में टीपू सुल्तान के नाम से प्रसिद्ध
है। उनका पूरा नाम फतह अली टीपू था
, जो एक मुस्लिम फकीर टीपू मस्ताना औलिया के नाम
पर रखा गया था । कहा जाता हैं कि टीपू १७५३ में उस फकीर के आशीर्वाद से पैदा हुआ
था ।

हैदर अली ने अपने पराक्रम और युद्ध कौशल से कई युद्धों में
अंग्रेजो के दांत खट्टे किए और मैसूर में उनके कहीं पैर नहीं जमने दिए । उनके
पुत्र टीपू ने किशोरावस्था में ही जिस वीरता साहस और युद्ध कौशल का परिचय दिया
, उससे उसके पिता
की कीर्ति में चार चांद लग गए ।

उसने १८ वर्ष की आयु में अंग्रेज़ो के मुकाबले में पहला
युद्ध जीता था । यह युद्ध मद्रास की सीमा पर जीता गया था । हैदर अली ने अंग्रेज़
सेनापति स्मिथ को पीछे खदेड़ने के लिए एक चाल चली । उसने टीपू को ५००० सैनिकों के
साथ मद्रास की ओर रवाना कर दिया । वह इस तेज़ी के साथ मद्रास जा पहुंचा कि किसी ने
उसके आने की कल्पना तक नहीं की थी । जैसे ही उसके पहुंचने का समाचार मिला
, अंग्रजों गवर्नर
और उसकी कौंसिल के सदस्यों के होश गायब हो गए । उस समय वे सब समुद्र के किनारे एक
बगीचे में भोजन के लिए इकट्ठा हुए थे । टीपू के पहुंचने का समाचार पाकर वे भागकर
पास ही खड़े एक जहाज पर सवार हो गए और उन्होंने किसी प्रकार अपनी जान बचाई । यदि
वह जहाज न होता तो इसमें कोई शक नहीं कि टीपू ने उन सबको गिरफ्तार कर लिया होता ।

टीपू ने मद्रास से ५ मील दूर स्थित सेंट टामस की पहाड़ी पर कब्जा करके
वहां मजबूत किले बंदी की और आसपास का इलाका अंग्रजों से छीनना शुरू कर दिया ।
           

हैदर अली की शक्ति का बढ़ना मराठों, निज़ाम और
अंग्रेज़ो में से किसी को पसंद न था । इसीलिए इन तीनों ने मिलकर हैदर अली को दबाने
की ठानी । सबसे पहले मराठों ने मैसूर पर धावा बोला। चतुर हैदर अली ने मराठों को
लालच देकर शीघ्र ही अपनी
र मिला लिया । निज़ाम
की नीति बराबर ढुलमुल रही । निज़ाम ने पहले अंग्रेज़ो के साथ मिलकर मैसूर पर आक्रमण
किया । लेकिन कुछ ही समय में वह अंग्रेज़ो के विरुद्ध हो गया । निज़ाम ने हैदर अली
का भी साथ नहीं दिया । लड़ाई के ठीक मौके पर अपनी फ़ौज को मैदान से हटाकर निज़ाम
ने हैदर अली को स्मिथ का मुकाबला करने के लिए अकेला छोड़ दिया । ऐसी सूरत में हैदर
अली को फ़ौज के बचाव के लिए पीछे हटने को मजबुर होना पड़ा। इस पर शत्रुओं ने उसके
हारने की झूठी खबर उड़ा  दी। हैदर अली की
बूढ़ी मां उस समय वहां से दो सौ मिल दूर हैदर नगर में थी । उससे अपने बेटे की हार
की खबर सुन कर न रहा गया। वह पालकी पर सवार हो लड़ाई के मैदान की
र उसको ढांढ़स बंधाने के लिए चल पड़ी । बरसात
का मौसम
, लंबा कठीन रास्ता
और युद्ध का मैदान । कोई भी उसको भयभीत न कर सका । उसके साथ एक हजार घुड़सवार सेना
और उसकी पालकी के आगे बुर्का पहने दो सौ औरते घोड़ों पर सवार थी
, जो लड़ाई के
मैदान में हैदर अली का साथ देने रवाना हुई थी । बूढ़ी मां ने बेटे के पास पहुंचकर
उसकी हिम्मत बंधाई और उसकी जीत के लिए दुआ मांगी।

मंगलौर में टीपू की अंग्रेज़ सेनाओं के साथ दूसरी भयानक
मुठभेड़ हुई । मंगलौर की जनता ने टीपू का हार्दिक स्वागत किया और एक भयानक लड़ाई
के बाद टीपू के मुकाबले में अंग्रेज़ सेना का पैर उखड़ गए। इस विजय की खुशी में
मद्रास के किले के दरवाज़े पर एक चित्र बनवाया गया । उसमें हैदर अली तख्त पर बैठा
था
, अंग्रेज़ उसके सामने संधि पत्र हाथ में लेकर खड़े थे और
स्मिथ की नाक पर हाथी की सूंड लगी हुई थी
, जिसमें से हैदर
अली के सामने अशर्फियां गिरती हुई दिखाई गई थी ।

लार्ड वारेन हेस्टिंग्स इस लड़ाई में अंग्रेज़ो की दुर्दशा
का समाचार सुनकर घबरा गया। उसने सर आयरकूट की कमान में एक बड़ी सेना और पंद्रह लाख
रुपए बंगाल से भेजे और सात लाख रुपए अरकाट के नवाब से वसूल किए गए । परंतु आयरकूट
तीनों लड़ाइयों में लगातार मात खाकर वापस लौट गया । पीठ पर एक
घाव हो जाने से हैदर अली को अरकाट के किले में लौट
आना पड़ा ।
घाव को ठीक होता न
देख उसने अपने बेटे टीपू को बुलाकर उसको सुल्तान नियुक्त कर दिया और वह महान वीर ७
दिसम्बर १७८२ को इस संसार से चल बसा ।

भारत के लिए वह घड़ी बहुत नाजुक थी। एक और सिंधिया भोसले और
गायकवाड और दूसरी और निजाम अंग्रेजों के सामने सिर झुका चुके थे। नाना फडणवीस के
सामने भी संधि की शर्ते पेस की जा चुकी थी। इस नाजुक घड़ी में बहादुर टीपू को
सुल्तान को पद पर बैठना पड़ा। पर उसने अपने पिता के अधूरे स्वप्नों को पूरा करने
का पक्का इरादा कर लिया।

अंग्रेजों १७८४ में ने टीपू के
साथ एक संधि की। उसमें उसको अपने पिता का उत्तराधिकारी मानकर यह विश्वास दिलाया
गया था कि मैं उसके राज्य पर कभी कोई आक्रमण नहीं करेंगे। तुरंत इस संधि की स्याही
अभी सुखी भी नहीं थी कि अंग्रेजों ने उसे तोड़ दिया। इसका कारण यह था की वे टीपू
से बेहद डरते थे। एक अंग्रेज पादरी डब्ल्यू एच हटन ने लिखा है – “अंग्रेज माताएं
टीपू हवा आया कह कर अपने शरारती बच्चों को चुप कराती थी।“

इंग्लैंड से वारेन हेस्टिंग्स के स्थान पर कार्नवालिस को
गवर्नर जनरल बनाकर भेजा गया। उसके यहां पहुंचते ही निजाम ने टीपू सुल्तान के
विरुद्ध उससे मदद चाही
, टीपू के विरुद्ध
उसने तुरंत कोई कार्यवाही नहीं की। निजाम की आवश्यकता पड़ने पर सहायता देने का वचन
देकर कार्नवालिस टीपू के विरुद्ध युद्ध के अवसर की तलाश में रहने लगा क्योंकि वह
फ्रांसीसियो के साथ टीपू की मित्रता को अंग्रेजों के हितों के लिए घातक मानता था।

टीपू के विरुद्ध युद्ध करने की एक खास वजह यह भी थी कि उसी
समय अमेरिका इंग्लैंड से आजाद हुआ था। इसके कारण इंग्लैंड की इज्जत पर जो चोट लगी
थी
, उसकी भरपाई भारत में
करने का फैसला किया गया और यहां वे अपना पूरा साम्राज्य कायम करने की कोशिशों में
लग गए। टीपू सुल्तान उनके रास्ते का सबसे बड़ा काटा था। वह जैसा बहादुर था वैसा ही
नेक और ईमानदार भी था। उसे कूट चालों का कोई अनुभव नहीं था। उसको अंग्रेजों के साथ
हुई संधि पर पूरा भरोसा था। परंतु अंग्रेज भीतर ही भीतर उस पर चढ़ाई करने की भारी
साजिश कर रहे थे। उन्होंने मराठों और निजाम के साथ उसी अनबन से पूरा फायदा उठाया।
निजाम को उस पर हमला करने के लिए पूरी तरह तैयार कर लिया गया। दूसरी और मराठों को
उकसा कर अपने साथ मिला लिया गया। अंग्रेज जानते थे कि निजाम और मराठों के साथ
मिलकर भी वे टीपू का मुकाबला नहीं कर सकते । अंग्रेजों ने निजाम और मराठों को यह
लालच दिया कि टीपू से जीता हुआ इलाका उन दोनों में बराबर बराबर बांट दिया जाएगा।

अंग्रेज इतिहासकार फॉक्स ने स्वीकार किया है की टीपू के
विरुद्ध की गई यह साजिश एक सच्चे राजा को मिटा देने के लिए की गई डाकूओं की साजिश
थी। बंगाल और मद्रास की दोनों सेनाओं का टीपू ने इस बहादुरी से सामना किया कि उनको
मद्रास तक पीछे खदेड़ दिया। तीनों शत्रुओं के मुकाबले में टीपू कि पहली शानदार
विजय थी। इस भारी हार की खबर सुनकर कार्नवालिस ऐसा शर्मिंदा हुआ कि उसने
१२ दिसंबर १७९० को खुद एक बड़ी
फौज के साथ कोलकाता से मद्रास के लिए कुच किया। दूसरी
ओर निजाम और मराठों की भारी सेना ने भी उस पर
चढ़ाई कर दी। टीपू के कुछ अमीरों और सरदारों को भी बड़ी-बड़ी रकम देकर तोड़ लिया
गया। उनकी सेना में भी उसके साथ दगा करने वाले भर दिए गए। भीतर और बाहर दोनों ओर
से उसको कमजोर बनाने में कुछ भी
छूटा ना रखा गया।
चारों ओर से गिर जाने और भीतर से भी विश्वासघात किए जाने के कारण टीपू को पीछे
हटने के लिए लाचार होना पड़ा। पर टीपू ने हिम्मत नहीं हारी। आखिर में सोमरपिट के
बुर्ज पर करारी हार खाकर वह अंग्रेजों से सुलह करने को राजी हुआ। दूसरी और मराठे
भी युद्ध जारी न रखकर सुलह करना चाहते थे।

यह सुलह २३ फरवरी १७९२ को हुई। टीपू का
आधा राज्य अंग्रेजों मराठों और निजाम ने आपस में बांट लिया। तीन करोड़ रुपया
हर्जाने के तौर पर देने के लिए टीपू को मजबूर किया गया। उनमें से एक करोड़ रुपया
उसी समय वसूल कर लिया गया। उसे अपने दस और आठ वर्ष के दो बच्चे अंग्रेजों के यहां
बंधक के तौर पर रखने को लाचार किया गया।

इस सुलह का ईमानदारी से पालन करते हुए उसने हर्जाने की शेष
रकम
वर्ष के समय में
चुका दी। साथ ही उसने अपनी राजधानी और अपने राज्य की सुरक्षा के लिए नई किलेबंदी
और नई सेना की भर्ती करनी शुरू कर दी। उसने दो ही वर्षों में अपने उजड़े हुए शेष
राज्य को फिर से हरा-भरा और खुशहाल बना दिया।

वह जैसा वीर योद्धा था वैसा ही कुशल शासक भी था। अंग्रेजों
की चाल यह थी
टीपू को नियत समय में
हर्जाना ना दे सकेगा और उसके बदले में उसका बाकी राज्य हड़प लिया जाएगा। पर उनकी
यह चाल कामयाब ना हुई। फ्रांसीसियो को सब जगह हराकर अंग्रेज सारे देश पर अपनी
हुकूमत कायम कर चुके थे। केवल टीपू का स्वतंत्र राज्य बाकी रह गया था। कार्नवालिस
के बाद विलेजली ने हमला करने की तैयारी शुरू कर दी थी। उसको यह भय था कि निजाम और
मराठे टीपू के विरुद्ध उसका साथ नहीं देंगे। दोनों को कमजोर बनाने की कोशिशें की
गई मराठों को आपस में लड़ा दिया गया और निजाम को सहायक सेना के लिए दी जाने वाली
रकम की जाल में उलझा दिया गया। टीपू पर हमला करने के लिए झूठे बहाने गढ़े जाने
लगे। उस पर यह झूठा इल्जाम लगाया गया कि वह फ्रांसीसीयों के साथ साजिश कर रहा है।

अंग्रेजी फौज ने फरवरी १७९९ को टीपू के राज्य
की ओर कूच कर दिया। टीपू ने सुलह का पैगाम भेजा और उस पैगाम को बार-बार दोहराया।
वेलेजली ने उस पर कुछ भी ध्यान न देकर
२२ फरवरी को युद्ध
का ऐलान कर दिया। उसे जल और थल दोनों ओर से घेर लिया गया। टीपू ने बड़ी वीरता और
आन के साथ मरते दम तक अंग्रेजों का मुकाबला किया। अंग्रेज सेना केवल फरेब और दगा
के सहारे ही टीपू पर विजय पा सकी।

बंगाल, मद्रास, मुंबई और निजाम से करीब तीस हजार सेना इस
युद्ध के लिए जमा की गई थी। टीपू को कदम-कदम पर अपने अफसरों और सेनापतियों के
हाथों धोखे
, विश्वासघात और बेईमानी
का सामना करना पड़ा जिसका जाल वेलेजली ने बुरी तरह चारों ओर फैला दिया था।

मेहताब बाग पर जमकर लड़ाई हुई और वहां भी अंग्रेज फरेब और
दगा के बल पर सफल हुए। मेहताब बाग राजधानी और किले का मुख्य द्वार था। मीर सादिक
नाम का उसका विश्वासपात्र साथी भी अंग्रेजों के साथ मिल गया था। उसकी मदद से
अंग्रेज किले की टूटी दीवार से अंदर घुस गए। इस पर भी टीपू ने सामना करने का अंतिम
प्रयत्न किया। उसमें अपनी मुट्ठी भर साथियों को साथ ले मुकाबला जारी रखा। अंत में
एक गोली टीपू की छाती के बाईं और जाकर लगी। उसने जख्मी होकर भी बंदूक दागना जारी
रखा। थोड़ी देर बाद एक और गोली उसकी छाती के दाहिनी और आकर लगी।

उसको पालकी में बिठाकर एक मोहराब के नीचे पहुंचा दिया गया।
इस हालत में भी वह झुकने के लिए तैयार न हुआ। कुछ अंग्रेज उसकी पालकी के पास पहुंच
गए।एक अंग्रेज ने उसकी जड़ाऊ पेटी उतारने की कोशिश की तो उसने उसको वही तलवार
से मौत के घाट उतार दिया। फौरन एक गोली टीपू की दाहिनी
कनपटी पर आकर लगी और उस बहादुर का अंत हो गया। वह प्रायः कहां करता था कि दो सौ
वर्ष भेड़ की तरह जीने से दो दिन शेर की तरह जीना ज्यादा अच्छा है।

टीपू वीर योद्धा और ऊंचे दर्जे का सेनापति था। वह आजादी का
मतवाला था और देश में बाहर वालों की हुकूमत का कट्टर दुश्मन था। वास्तव में हैदर
अली और टीपू दोनों ही अंग्रेजी राज के अपने समय के सबसे बड़े विरोधी थे। पिता और
पुत्र दोनों अपनी वीरता और बहादुरी की जो गौरवपूर्ण छाप अपने देश के शानदार इतिहास
के सुनहरे पन्नों पर छोड़ गए हैं वह कभी भी मिट नहीं सकती।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *