कोंडा वेंकटप्पैया | Konda Venkatappaiah

कोंडा वेंकटप्पैया | Konda Venkatappaiah

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले भी भारत के नव-निर्माण का ऐसा ही महायज्ञ संपन्न करना चाहते थे, इसमें देश के विभिन्न भागों के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने अपना-अपना योगदान किया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में तेलुगु समाज को सुधारने का कई व्यक्तियों ने प्रयत्न किया। इन महापुरुषों में एक गुरजाडा अण्पाराव थे जो तेलुगु के अग्रणी लेखक थे।

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इसी प्रकार तेलुगु पत्रकारिता का सूत्रपात करने वाले काशीनाथुमि नागेश्वर राव थे। राजनीतिक क्षेत्र में सबसे प्रमुख रूप में सामने आने वाले पट्टाभि सीतारामय्या थे उन्हीं के समकालीन थे – अग्रणी समाज-सुधारक थे कोंडा वेंकटप्पैया । आंध्र के सामाजिक जीवन में क्रांति उत्पन्न करने वालों में उनका अनुपम स्थान है। उनकी देशभक्ति से आंध्र के लोग इतने प्रभावित हुए कि उनको उन्होंने देशभक्त की उपाधि दी और वह इस उपाधि से इतने प्रसिद्ध हुए कि जब उनकी मृत्यु हुई तो वह अपने असली नाम से अधिक अपने “देशभक्त” उपनाम से प्रसिद्ध थे | तेलुगु के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में उनका उपनाम देशभक्त ही अधिक प्रचलित था।

उनका राष्ट्रीय जीवन १९०५ में प्रारंभ हुआ, जब गुंटूर में जिला कोर्ट की स्थापना हुई और कोंडा वेंकटप्पैया वकालत के लिए गुंटूर आये। इससे पहले वह मछलीपट्टणम में वकालत करते थे । कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ १९२८ में देशभक्त ने भी साइमन कमीशन का बहिष्कार किया था, जो उनकी देशभक्ति का अनुपम उदाहरण है। महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रभावित होकर राष्ट्रीय संग्राम में भाग लिया और आंध्रवासियों में खादी पहनने का और हिंदी भाषा का प्रचार करके भी कोंडा वेंकटप्पैया ने देश की सेवा की। हिंदी के प्रचार के लिए उन्होंने जगह-जगह पाठशालाएं खोली। तेलुगु भाषा और समाज के लिए उनकी सेवाएं स्मरणीय हैं। भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड हार्डिंग ने १९११ में भाषा के आधार पर देश को प्रांतों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा। देशभक्त ने भी इसी समय अपने कई मित्रों के साथ आंध्र प्रांत की स्थापना करने के प्रयत्न गुंटूर में आरंभ किए।

उनके मन में यह विचार तब आया जब दिल्ली में नई राजधानी बनी और लार्ड हार्डिंग वाइसराय बनकर आए। लार्ड हार्डिंग ने ११ दिसंबर १९११ को अपनी योजना की घोषणा की और एक महीने के बाद देशभक्त और इनके मित्र अपने विचारों को कार्यान्वित करने में अगले वर्ष १९१२ निडदोलु में गुंटूर, कृष्णा और गोदावरी जिला कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन हुआ।

इसमें अन्य प्रस्तावों के साथ-साथ सेना में आंध्रवासियों को नौकरी न देने के ब्रिटिश सरकार के आदेश के विरुद्ध भी एक प्रस्ताव रखा गया | ब्रिटिश प्रभुत्व के कई समर्थकों ने प्रस्ताव का विरोध किया। देशभक्त वेंकटप्पैया ने अपने भाषण में आंध्रवासियों के शौर्य और साहस के कई उदाहरण दिए और ब्राह्मण होते हुए भी लड़ाई के मैदान में अपना खून बहाने का प्रण लिया। उनके भाषण के बाद यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ। अन्य कई वक्ताओं से इस देशभक्त ब्राह्मण को प्रशंसा मिली। एक प्रकार से आंध्र प्रदेश में राष्ट्रीय संग्राम का यही प्रारंभ था, आंध्ररवासियों में संगठित रूप से देश की स्वतंत्रता के लिए प्रचार भी इसी समय प्रारंभ हुआ। देशभक्त इसके सूत्रधार थे। कांग्रेस के सभी वर्गों-गरम दल एवं नरम दल-की सहानुभूति इनको प्राप्त थी।

कोंडा वेंकटप्पय्या का जन्म आंधप्रदेश के गुटूर जिले में एक सामान्य ब्राह्मण परिवार में ७ फरवरी १८६६ को हुआ था। उनका बचपन भी सामान्य रहा। चालीस वर्ष की अवस्था तक वह मछलीपट्टनम में वकील रहे, परंतु १९०५ में जब गुंटूर एक अलग जिला बनाया गया तब वह भी गुटूर आ गए। कांग्रेस पार्टी के अधिवेशनों में उन्होंने गुंटूर जिले में कांग्रेस की शाखा स्थापित करने की मांग की । युवकों में पृथक आंध्र प्रांत के आंदोलन का बहुत जोर हो रहा था, परंतु कई पुराने काग्रेसी पृथक प्रांत की इस मांग का विरोध करते रहे। देशभक्त कोंडा वेंकटप्पैया ने इन दोनों वर्गों के बीच समझौता कराके तेलुगु भाषियों के पृथक प्रांत की मांग करने का और आंध्र महासभा की स्थापना करने का भार संभाला। देखा जाए तो इस कार्य के लिए वही एक योग्य व्यक्ति थे, क्योंकि वह अंग्रेज़ी और तेलुगु के योग्य वक्ता भी थे और सभी वर्गों में उनका आदर था। वकील की हैसियत से उनकी आमदनी भी अच्छी थी।

मई १९१३ में गुंटूर जिले के बापट्ला शहर में आंध्र महासभा का प्रथम अधिवेशन करने का निश्चय किया गया और कोंडा वेंकटप्पैया इस सभा की कार्यकारिणी के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने तेलुगुभाषियों के एक प्रांत के प्रस्ताव के पक्ष में सहमति प्राप्त की। पृथक आंध्र राज्य के प्रस्ताव को १९१४ में विजयवाड़ा में बहुमत प्राप्त हुआ और आंध्र महासभा की स्थायी समिति की स्थापना भी हुई। देशभक्त इस समिति के सचिव चुन लिए गए। इसके बाद १९१५ में विशाखापट्टनम में, १९१६ में काकिनाड़ा में और १९१७ में नेल्लूर में हुए अधिवेशनों में भी तेलुगु भाषियों के लिए पृथक प्रांत की मांग की गई। इसके अलावा आंध्र प्रदेश में पृथक विश्वविद्यालय खोलने और जगह-जगह स्कूलों, कॉलेजों और पुस्तकालयों की स्थापना करने की मांग की गई। आंध्र महासभा के १९१७ के अधिवेशन में देशभक्त अध्यक्ष चुने गए।

वह तेलुगुभाषी अन्य नेताओं के साथ १९१७ में मांटफर्ड समिति के सामने पृथक आंध्र प्रदेश बनाने का प्रस्ताव पेश करने गए। उनके प्रयत्नो के फलस्वरूप मांटफर्ड रिपोर्ट में पृथक आंध्र प्रदेश की स्थापना के प्रस्ताव के प्रति सहानुभूति दिखाई गई। उसी समय कांग्रेस में मतवादियों की संख्या बढ़ी और आंध्र महासभा और उसकी स्थायी समिति में भी उनकी संख्या में वृद्धि हुई। उन्होंने निर्णय किया कि आंध्रों का पृथक प्रदेश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस द्वारा स्थापित किया जाएगा उन्होंने पृथक आंध्र प्रदेश का प्रस्ताव १९३७ में मद्रास के कांग्रेस मंत्रिमंडल के सामने दोहराया। वह प्रांतीयता या पृथकता के भाव से आंध्र प्रदेश की मांग नहीं करते थे। वह राष्ट्रीय एकता के जबर्दस्त समर्थक थे और हिंदी को राष्ट्रभाषा मानते थे।

कोंडा वेंकटप्पैया ने अपना जीवन देश को स्वतंत्र कराने में व्यतीत किया। उनके व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण था कि जहां भी दो वर्गों में किसी, विषय पर असहमति होती थी, वहां अपने प्रस्ताव से दोनों में समझौता करा देने में सफल होते थे | आंध प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं में कोंडा वेंकटप्पैया का विशिष्ट स्थान रहा। कांग्रेस के राष्ट्रीयता आंदोलन के सभी कार्यक्रमों में इनका हाथ रहा। कांग्रेस के १९२४ के अधिवेशन के साथ-साथ काकिनाड़ा में हिंदी महासभा का भी अधिवेशन हुआ। इसके अध्यक्ष स्वर्गीय मुहम्मदअली का स्वागत करते हुए कोंडा वेंकटप्पैया ने हिंदी में ही स्वागत पत्र पढ़ा और तब से लेकर अंतिम दिन तक आंध्र प्रदेश में उन्होंने हिंदी भाषा का प्रचार किया।

उन्होंने जगह-जगह हिंदी सिखाने के लिए योजनाएं बनाई और प्रचार के लिए धन एकत्र किया। । आध्र राज्य की स्थापना के प्रयत्न करने के साथ-साथ कोंडा कोंडा वेंकटप्पैया ने आंध्र प्रांत के लिए यह आवश्यक समझा कि वहां बड़ी संख्या में लघु और भारी उद्योग स्थापित और विकसित किए जाएं तथा कृषि में भी सब प्रकार की उन्नति की जाए। उन्होंने बैंकों की स्थापना को भी आवश्यक बताया और इस दिशा में निरंतर प्रगति करते रहे। विद्या के प्रसार पर कोंडा वेंकटप्पय्या ने विशेष रूप से ध्यान दिया। उन्होंने अपने लेखों तथा भाषणों में आंध्र प्रांत में नई नई तकनीकी शिक्षा संस्थाएं और नए-नए इंजीनियरी, डॉक्टरी कॉलेज खोलने की मांग की। उन्होंने इस बात पर बराबर जोर दिया कि आंध्र प्रांत के साधनों का सदुपयोग करने के लिए उपयुक्त शिक्षा प्राप्त इंजीनियरों का होना जरूरी है।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए परिश्रमी विद्यार्थियों को विदेश भेजने की आवश्यकता के संबंध में उन्होंने सरकार से पत्र-व्यवहार किया। जहां एक ओर कोंडा वेंकटप्पैया तकनीकी वैज्ञानिक प्रगति चाहते थे, वहां दूसरी ओर उन्होंने सांस्कृतिक पक्ष को भी कम महत्व नहीं दिया। उन्होंने विद्यार्थियों से मातृभाषा, अन्य भारतीय भाषाएं तथा एक विदेशी भाषा सीखने को कहा था। समाज सुधार के लिए उन्होंने हरिजनों और पिछड़े वर्गों की दीन स्थिति सुधारने के लिए भी काफी जोरदार काम किया। कोंडा वेंकटप्पैया का ऐसा विश्वास था कि राष्ट्रीय उन्नति के लिए छोटे-छोटे प्रांत स्थापित होने चाहिए। तभी देश के विभिन्न प्रांतों के लोगों को अपनी-अपनी स्थिति सुधारने का अवसर प्राप्त होगा, प्रत्येक प्रांत अपनी खनिज प्राकृतिक संपदा का उपयोग करने का प्रयत्न करेगा सभी प्रांतों में छोटे तथा बड़े उद्योगों के स्थापित होने से तथा वाणिज्य एवं व्यापार की उन्नति होने से, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ शुरू होगी।

देशभक्त कोंडा वेंकटप्पैया एक उच्च कोटि के वक्ता और योग्य वकील थे। उन्होंने तन-मन-धन से अपनी जाति और देश की सेवा की। उन्होंने स्वतंत्रता दिवस का मंगल प्रभात अपनी आंखों देखा, किंतु वह अधिक वर्ष जीवित नहीं रहे। स्वतंत्रता दिवस की दूसरी वर्षगांठ के दिन १५ अगस्त १९४९ को उनकी मृत्यु हो गई।

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