तुलसीदास | Tulsidas

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तुलसीदास – Tulsidas

तुलसीदास हिंदी के सबसे बड़े कवि माने जाते हैं, परंतु साथ ही बहुत बड़े भक्त सुधारक भी थे।
तुलसी ने अपने भगवान राम के गुणों का प्रचार किया। उन्होंने अपने जीवन के संबंध
में स्वयं कुछ नहीं लिखा परंतु उनकी लिखी पुस्तकों में जो उल्लेख मिलते हैं
तथा उनके विषय में जो बाते प्रचलित हैं उन्हीं से उनके जीवन की घटनाओं का
पता चलता है।

१६वी शताब्दी के मध्य की बात है। उस समय भारत में मुगल
बादशाह अकबर राज करता था। बांदा जिले में राजापुर नाम का एक गांव था। उसमें
आत्माराम नाम का एक बड़ा धार्मिक ब्राह्मण रहता था। एक दिन जब उसे पुत्र रत्न  प्राप्त हुआ
, तो उसने उस बालक का नाम रामबोला रखा।
यही राम बोला बड़ा होकर तुलसीदास कहलाया।

तुलसीदास अत्यंत परोपकारी उदार और दानी प्रकृति के थे। कहा जाता है की वह हमेशा गरीबों
की सहायता करने को तैयार रहते थे। एक बार कोई ब्राम्हण अपनी कन्या के विवाह के लिए
कुछ धन की आशा से तुलसीदास के पास आया। तुलसी तो फक्कड़ आदमी थे। उन्होंने उसे अपने
मित्र अकबरी दरबार के सरदार और कवि अब्दुल रहीम खानखाना के पास भेज दिया। रहीम ने
ब्राह्मण को बहुत सा धन दिया
|  

बचपन में उन्हें माता-पिता का सुख नहीं मिला इतना तो
निश्चित है परंतु मां-बाप द्वारा उनके त्यागी जाने के विषय में बहुत सी बातें
प्रचलित हैं
|

कुछ लोग कहते हैं उनका जन्म अशुभ मूल नक्षत्र में हुआ था। इसीलिए उन्हें अशुभ
समझ कर माता-पिता ने त्याग दिया था। कुछ लोगों का ऐसा भी विश्वास है कि जन्म के
समय उनका अलौकिक रूप देखकर उनकी मां डर गई और उन्हें कुल का नाश करने वाला समझ कर
अपनी एक दासी के साथ उसके ससुराल भेज दिया
, जहां उनका
आरंभिक पालन-पोषण हुआ।

पर यह तो लगभग निश्चित ही हैं कि तुलसी को अपने माता-पिता
को सुख नहीं मिला और उनका बचपन बढ़ी गरीबी में बीता।
मान्यता है कि चुनिया नाम की दासी ने
तुलसी का बड़े प्रेम से लालन-पालन किया। परंतु दुर्भाग्य से
वर्ष के बाद ही वह इस संसार से चल बसी और वर्ष का बालक तुलसी दुनिया में अकेला रह गया।

घर-घर भीख मांगते हुए तुलसी पर एक दिन अचानक नरहरि शास्त्री
नाम के एक विद्वान की दृष्टि पड़ी। उन्होंने उनमें छिपी प्रतिभा को पहचाना और
उन्हें अपने साथ घर ले गए। शास्त्री जी ने कुछ दिनों बाद अयोध्या ले जाकर तुलसी का
यज्ञोपवीत संस्कार कराया। सब लोगों को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि तुलसी ने
बिना किसी की सिखाए ही गायत्री मंत्र का उच्चारण करना आरंभ कर दिया
| नरहरि शास्त्री ने पांचों संस्कार करवा कर
उनको राम मंत्र की दीक्षा दी और संस्कृत साहित्य का अध्ययन कराया।

तुलसी की बुद्धि बड़ी तेज थी और गुरु के सारे उपदेशों को वह
बहुत जल्दी समझ कर याद कर लेते थे। उनके गुरु उनसे बहुत प्रसन्न थे। इसके बाद काशी
में शेष सनातन जी के साथ रहकर वह
१५ वर्ष तक वेद
पुराणों का अध्ययन करते रहे।

एक दिन अचानक तुलसी का मन अपने गांव वाले घर जाने के लिए हुआ। उन्होंने अपने गुरु से आज्ञा ली और जन्मभूमि
की ओर चल पड़े। वहां जाकर उन्होंने अपने घर की जो दशा देखी उससे उन्हें बड़ा दुख
हुआ। माता पहले ही स्वर्गवासिनी हो चुकी थी
, पिता का देहांत भी कुछ दिन पहले हो गया था।
सारा घर उजड़ा पड़ा था। उन्होंने किसी प्रकार धीरज रख कर पिता का श्राद्ध किया और
उसी घर को फिर से बसाकर रहने लगे। वहां रह कर प्रतिदिन राम की कथा सुनाते और जो
कुछ मिल जाता उसी से अपना निर्वाह कर लेते
थे

तुलसी के विवाह के संबंध में कुछ ठीक पता नहीं है। उनकी
पत्नी रत्नावली के विषय में जो कथा प्रचलित है वह इस प्रकार हैं:

तुलसी अपनी पत्नी को बहुत चाहते थे। वह उसे अपनी माता के घर
तक नहीं जाने देते थे। एक दिन जब तुलसी घर में नहीं थे रत्नावली का भाई उसे लेने
आया। रत्नावली पिता के घर जाने की प्रबल इच्छा को रोक न सकी और पति की आज्ञा लिए
बिना ही भाई के साथ चली गई। संध्या समय जब तुलसी लौटे तब उन्हें घर सूना मिला।
पड़ोसियों से पूछने पर पता लगा कि रत्नावली अपने मायके चली गई है।

कृष्णपक्ष की घनी अंधेरी रात थी और उस पर बरसात के दिन
रास्ते में नदी पड़ती थी जो वर्षा के कारण जल से लबालब भरी थी। तुलसी ने ना आगे
देखा ना पीछे बस उमड़ती हुई नदी में कूद पड़े और तैर कर फटाफट उस पर पहुंच गए।
उनकी कपड़े भीगे हुए थे पर उन्हें इसकी चिंता न थी। वह उसी हालत में ससुराल जा
पहुंचे। अपने पति को इस हालत में आया देख रत्नावली को बहुत शर्म और झुंझलाहट आई।
उसने ताना देते हुए तुलसीदास को
कहा :

“मेरी हाड़ मांस की देह से आप इतना प्रेम करते हैं, उतना प्रेम यदि
आप भगवान राम से करें तो फिर संसार से आपको कोई दुख न रह जाए।“

कहते हैं कि पत्नी के इस उलहाने से तुलसी के मन को बड़ी चोट
लगी। उनका सोया हुआ विराग जाग उठा और वह तुरंत वहां से चले आए। अब उन्होंने राम
भक्ति में अपना मन लगाया और संसार का माया मोह छोड़ दिया। तभी से वह भगवान का भजन
करते हुए तीर्थ स्थानों में घूमने लगे।

तुलसीदास का जीवन बड़ी मुसीबतों में बीता था। वह खुद बचपन
में ही अनाथ हो गए थे। पंडितों की दुनिया साधारण लोगों की दुनिया से अलग थी। बहुत
से पंडितों ने तुलसीदास का मजाक बनाया था। लेकिन इन सब बातों से तुलसी निराश नहीं
हुए। उनकी कविता में आशा और विश्वास का स्वर पाया जाता है। उनके चरित्र की तीन
विशेषताएं थी जो उनके साहित्य से जानी जा सकती हैं। वह बहुत नम्र और भावुक स्वभाव
के थे तथा राम में उनका टूट विश्वास था।

कहां जाता है कि आरंभ में तुलसी संस्कृत में अपनी कविताएं
लिखा करते थे। उस समय की सभी पंडित आमतौर पर संस्कृत में लिखते थे
, परंतु साधारण जनता संस्कृत नहीं जानती थी। अत:
लोक कल्याण के लिए तुलसी ने जनता की भाषा में ही काव्य की रचना की।

काशी से तुलसी अयोध्या चले गए और १५४७ ई॰ में रामनवमी के
दिन उन्होंने अपने “रामचरितमानस” की रचना आरंभ की।
वर्ष ७ महीने २६ दिन में यह ग्रंथ
समाप्त हुआ। तुलसीदास का यह संसार प्रसिद्ध ग्रंथ अवधि भाषा में लिखा गया है। रामचरितमानस
को लोग रामायण भी कहते हैं।

तुलसीदास के समय जनता में पारस्परिक भेदभाव हुआ था। धर्म के
क्षेत्र में कोई शिव को पूजता था
, तो कोई विष्णु को। यह लोग आपस में लड़ते-झगड़ते
रहते थे। इसीलिए तुलसी ने उन सब के बीच शांति बनाए रखने के लिए एक ऐसा मार्ग
निकाला जिसमें सभी देवता एक ही भगवान के अलग-अलग रूप माने जाते थे। उन्होंने राम
को भगवान मानकर उनसे शिव की उपासना करवाई दूसरी ओर शिव को राम का भक्त मानकर इस
झगड़े को काफी शांत कर दिया।

तुलसी ने हिंदू समाज में प्रचलित दोषों और अत्याचारों को
जनता को बताया। लोगों के मन में भगवान के प्रति विश्वास और आत्म बल पैदा किया।
“रामचरितमानस ” के अतिरिक्त तुलसीदास ने कई दूसरे ग्रंथ भी लिखे हैं
उनमे  कवितावली, गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनय-पत्रिका आदि
प्रसिद्ध है

तुलसीदास सूरदास के समय में हुए थे। कहां जाता है कि एक बार
दोनों कवियों की भेंट भी हुई थी। उस समय तक सूरदास बुढ़े हो चुके थे और बहुत कम
काव्य रचना करते थे। तुलसीदास अभी युवा थे और काव्य रचना आरंभ ही कर रहे थे।

तुलसीदास को चित्रकूट अयोध्या और काशी बहुत प्रिय थे। अपनी
अंतिम दिनों में तुलसीदास काशी में थे। वहां
वह बीमार हो गए थे, जिसके कारण उन्हें बहुत दुख उठाना पड़ा। कहते हैं कि उन
दिनों काशी में एक भयंकर बीमारी फैली थी जो शायद प्लेग की बीमारी थी। इससे बहुत से
लोग मरने लगे थे। १६२३ ई. के श्रावण मास में उनकी मृत्यु हो गई। परंतु कुछ लोग इस
तिथि से सहमत नहीं है और
वह कहते हैं कि
कृष्ण पक्ष की तीज को उनका देहावसान हुआ। 

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