मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जीवन परिचय | Abul Kalam Azad

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जीवन परिचय | Abul Kalam Azad

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारत माँ के उन सपूर्तो में थे, जिन्होंने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन के समस्त सुख ऐश्वर्य का हंसते- हंसते बलिदान कर दिया। उनके दृढ़ निश्चय और विचारो को संसार तथा समाज का कोई भी विरोध परिवर्तित न कर सका। उनके मजबूत कदम राह मे आने वाली अनगिनत बाधाओं को हटाते हुए बढ़ते रहे। आजादी की मंजिल पा लेने के बाद भी वह जीवन की अंतिम सांस तक मातभूमि की सेवा करते रहे।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का वंश पिछली कई शताब्दियों से मुस्लिम जगत में अत्यंत सम्मानित वंश रहा है। उनके एक पूर्वज मौलावा शेख जमालुद्दीन मुगल सम्राट अकबर के काल में इस्लाम धर्म के महान विद्वान माने जाते थे | इस्लाम धर्म के पवित्र धार्मिक ग्रंथ “हृदीस” पर लिखी उनकी पुस्तक आज भी अत्यधिक प्रामाणिक मानी जाती है। सम्राट अकबर ने उन्हें अपने दरबार के मौलवियों का प्रधान बनाने की चेष्टा की, लेकिन उन्होंने इस सम्मानित और महत्वपूर्ण पद को केवल इसलिए स्वीकार नहीं किया कि उस काल के शेष मौलवियों ने धर्म संबंधी मामलों के अंतिम निर्णय का अधिकार सम्राट अकबर को सौप दिया था। मौलाना शेख जमालुद्दीन इसे इस्लाम धर्म के विरुद्ध समझते थे। आखिर, सम्राट अकबर के बार-बार के अनुरोध से तंग आकर वह धर्म और सत्य की रक्षा के लिए भारत छोड़कर मक्का चले गए।

AVvXsEgRAstnHJq7jJZDffAzFopKeLkjQAszXPa7AMbIgFkttbySNu164QOmmxhJygOmG5ozugpjrPOqC4diC5gWiAVtReitvi7v6fHLq oPQAr 0gbp1osulh A6UHUWL8j517K EnN0JedYwld0tdeLOwOh5 URR0MY 9vYAKqZ5Qh8HNhcXIQWSkh7 b=s320

मौलाना आज़ाद के एक दूसरे पूर्वज मौलाना शेख मुहम्मद साहब मुगल सम्राट जहांगीर के दरबार में थे और उनकी गणना अपने समय के इस्लाम धर्म के चोटी के विद्वानों में की जाती थी। उस समय यह नियम था कि दरबार में आने वाला हर व्यक्ति बादशाह के सामने सिर झुकाकर मुजरा करे। अकबर के जमाने में मौलवियों पर यह नियम लागू नहीं होता था, किंतु जहांगीर ने मौलवियों को भी इस नियम का पालन करने की आज्ञा दी। अब दरबार के सभी मौलवी बादशाह के सामने सिर झुकाकर मुजरा करने लगे। मौलाना शेख मुहम्मद साहब को यह बात पसंद न आई। उन्होंने बादशाह की इस आज्ञा का विरोध किया। उनका कहना था इस्लाम धर्म के अनुसार, मुसलमान का सिर केवल खुदा के सिजदे में ही झुक सकता है। एक साधारण मनुष्य, चाहे वह सम्राट ही क्यों न हो, इस सम्मान का अधिकारी नहीं हो सकता। उनके इस विरोध से जहांगीर को बहुत गुस्सा आया और उसने उन्हें ग्वालियर के किले में कैद कर दिया। वहां उन्हे चार वर्ष तक, किले की सील और ठंडभरी कोठरी में अनेक यातनाएं सहनी पड़ीं।

अपने इन्हीं पूर्वजों से मौलाना आज़ाद को विरासत में सत्याग्रह का संदेश मिला। सत्य धर्म की रक्षा के लिए जिस तरह उनके पूर्वजों ने हजारों दुख सहे, उसी प्रकार अपने कर्तव्य पालन के लिए मौलाना आज़ाद ने भी अपने जीवन का एक बहुत बड़ा भाग जेलों में बिताया।

मौलाना आज़ाद के पिता मौलाना शेख खैरुद्दीन भी अपने पूर्वजों के समान ही इस्लाम धर्म के महान विद्वान और धार्मिक गुरु माने जाते थे। देश-विदेश में उनके अनुयायी थे। पहले वह दिल्ली में ही रहते थे, पर १८५७ की क्रांति के असफल हो जाने के बाद जब अंग्रेजों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया, और विजयी अंग्रेज सेना ने निरपराध दिल्लीवासियों का कत्ल करना शुरू किया, तो वह अपने परिवार के बचे-खुचे सदस्यों को लेकर मक्का चले गए।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म


मौलाना आज़ाद की माता मक्का के सुप्रसिद्ध विद्वान् मौलाना शेख मुहम्मद जाहिर बेतरी की सुपुत्री थीं। ११ नवंबर १८८८ को मौलाना आज़ाद का जन्म मुसलमानों के पवित्र तीर्थ स्थान मक्का में हुआ।

मौलाना आज़ाद का बचपन का नाम अहमद था, किंतु उनके पिता उन्हें फिरोज़ बख्त के नाम से पुकारते थे। “फिरोज़ बख्त” का अर्थ है, सौभाग्य या आशाओं का हीरा। पिता का रखा हुआ यह नाम, वास्तव में, मौलाना के गुणों के अनुरूप था। पुत्र के रूप में उन्होंने केवल अपने पिता की ही आशाओं को पूरा नहीं किया, बल्कि मातृभूमि की आशाओं को भी पूरा करने में उन्होंने कोई कसर नहीं उठा रखी। पर मौलाना के बचपन के ये दोनों नाम उनके बचपन तक ही रहे-बड़े होने पर उनका नाम “अबुलकलाम” हो गया। “आज़ाद” उनका साहित्यिक नाम था। देश और विदेश की अधिकांश जनता उन्हें केवल “मौलाना आज़ाद” के नाम से ही जानती है।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की शिक्षा


सन् १८९२ में, जब मौलाना आज़ाद केवल चार वर्ष के थे, उनके पिता अपने अनुयायियों के आग्रह पर भारत लौट आए और कलकत्ता में रहने लगे। वहीं मौलाना आज़ाद की शिक्षा आरंभ हुई। वह घर पर ही अपने माता-पिता और अन्य संबंधियों से पढ़ा करते थे। वह कितने प्रतिभाशाली थे यह इसी से स्पष्ट हो जाता है कि केवल बारह वर्ष की आयु में उन्होंने अरबी, फारसी और उर्दू पर अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया था। साथ ही इतिहास, भूगोल, गणित, दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र में भी उन्होंने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी। उस छोटी उम्र में ही वह अपने पिता के पास आने वाले विद्यार्थियों को, जो उम्र में उनसे कहीं बड़े होते थे, पढ़ाया करते थे।

सत्रह वर्ष की अवस्था में, १९०५ में, वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मिस्र गए और काहिरा के अल-अजहर विश्वविद्यालय में दो वर्ष तक शिक्षा प्राप्त की। वहां भी उन्होंने अपनी प्रतिभा की जबर्दस्त धाक जमाई। उनके शिक्षक उनके बारे में कहा करते थे – “वह पैदायशी आलिम है।“

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का साहित्य


मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के सार्वजनिक जीवन का आरंभ १९०९ में अपने पिता की मृत्यु के बाद हुआ। पहले तो वह, अपने पिता की तरह ही लोगों को मुस्लिम धर्म की शिक्षा-दीक्षा देते रहे, किंतु बाद में उनका ज्यादा समय साहित्य की सेवा में बीतने लगा। फिर १९१२ में उन्होंने उर्दू-साप्ताहिक “अल हिलाल” का प्रकाशन और संपादन आरंभ किया, जो अपने समय का सबसे प्रभावशाली पत्र सिद्ध हुआ। आज भी “अल हिलाल” का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इस पत्र के द्वारा मौलाना आज़ाद ने राष्ट्र को धार्मिक एकता और जागरण का संदेश दिया। उन्होंने निष्णक्ष और निडर होकर पत्रकारिता के धर्म का पालन किया, जिसका फल यह हुआ कि भारत की अंग्रेजी सरकार उनकी और “अल-हिलाल” की दुश्मन बन गई। मौलाना आज़ाद और “अल-हिलाल” उनकी आंखों में कांटों की तरह खटकने लगे। उसने कई बार दस-दस हजार रुपये की नकद जमानतें “अल-हिलाल” से मांगी और जब्त कर ली। फिर भी “अल-हिलाल” की भाषा, शैली और विचारों में कोई अंतर नहीं आया। आखिर, १९१५ में, सरकार भारत-सुरक्षा कानून की आड़ लेकर उसका प्रकाशन बंद कर दिया।

अल-हिलाल के बंद हो जाने के बाद १९१६ में मौलाना आजाद ने “अल-बलाग” नाम के पत्र का प्रकाशन और संपादन आरंभ किया। इस पत्र की भाषा, शैली और नीति भी वही थी, जो “अल-हिलाल” की थी। अंग्रेज सरकार “अल-बलाग” की सच्ची और निर्भीक आवाज से भी चिढ़ गई और कुछ महीने बाद उसके प्रकाशन पर भी उसने रोक लगा दी। साथ ही उसने मौलाना आजाद को बंगाल से निवासित कर दिया। पंजाब, बंबई और उत्तर प्रदेश में मौलाना आज़ाद के जाने पर तो पहले से ही प्रतिबंध लगा हुआ था, इसलिए वह बिहार के रांची शहर में रहने लगे। पर अंग्रेज सरकार को इतने से भी संतोष न हुआ। उसने मौलाना आज़ाद को उनके घर में नजरबंद कर दिया। नजरबंदी की यह सजा १९२० में समाप्त हुई।

नज़रबंदी के इन वर्षों में मौलाना आज़ाद ने महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की। उन्होंने अपने जीवन के संस्मरण लिखे, जो “गुबारे-खातिर” के नाम से प्रकाशित हुए। यह पुस्तक अपनी भाषा और शैली के लिए उर्दू साहित्य में अत्यंत प्रसिद्ध है। दूसरी पुस्तक, कुरान शरीफ की टिप्पणी थी, जो आज भी कुरान शरीफ पर लिखी गई टिप्पणियों में स्वाधिक प्रामाणिक मानी जाती है। इस पुस्तक से मौलाना की धार्मिक और दार्शनिक विद्वत्ता का अच्छा परिचय मिलता है। सच तो यह है कि अगर मौलाना आज़ाद राजनीतिक क्षेत्र में न आते, तो उर्दू साहित्य के भंडार में और भी अनेक अमूल्य रत्नों की वृद्धि होती।

मौलाना को भाषण देने का शौक बचपन से ही था। जब वह बहुत छोटे थे, तभी किसी ऊंची जगह पर खड़े हो जाते और अपनी दोनों बड़ी बहनों को सामने खड़ा कर लेते। फिर, उनके मन में एक प्रिय खेल था, लेकिन आगे चलकर यहीं खेल उनके जीवन का एक मुख्य अंग बना |

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का राजनीतिक जीवन


सन् १९२० में नज़रबंदी से रिहा होने के बाद मौलाना आज़ाद कांग्रेस में आ गए। १९१९ में अमृतसर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा गांधी ने पहली बार देश को संत्याग्रह का संदेश दिया था। मौलाना आज़ाद ने सत्याग्रह के इस संदेश को देश के कोने-कोने में पहुचाने में कांग्रेस की बहुत बड़ी सहायता की। देश के विभिन्न शहरों और गांवों में उन्होंने अनगिनत भाषण दिए, जिसके परिणामस्वरूप मुस्लिम जनता में देश की आज़ादी के लिए जबर्दस्त चेतना पैदा हुई। मौलाना के इन भाषणों का देश की मुस्लिम जनता पर इतना प्रभाव पड़ा कि इस्लाम धर्म के भारतीय विद्वानों की लाहौर में एक बैठक हुई और उन्होंने मौलाना को भारत के मुसलमानों का इमाम (प्रधान) बनाने का निश्चय किया। लेकिन जब मौलाना आज़ाद से इस पद को स्वीकार करने की प्रार्थना की गई, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था कि धार्मिक अधिकार किसी एक ही व्यक्ति के हाथों में सौंप देने से धर्म की प्रगति में बाधा पड़ सकती है। इस प्रकार, इतने बड़े सम्मानित पद को अस्वीकार करके मौलाना आज़ाद ने त्याग की अपनी वंश-परंपरा को पूरी तरह निभाया।

सन् १९२१ के कांग्रेस सत्याग्रह में अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ मौलाना आज़ाद भी गिरफ्तार किए गए। उन्हें एक वर्ष की सज़ा दी गई। इस मुकदमे के दौरान उन्होंने अदालत में जो बयान दिया था, उससे उनके राष्ट्र-प्रेम और विद्वत्ता का अच्छा परिचय मिलता है। उनका वह बयान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक अमर और अमूल्य अध्याय है। उन्होंने कहा था, “अदालतों में इंसाफ के नाम पर जो जुल्म किए जाते हैं, वे बयान से बाहर है। अफसोस है कि अभी तक तवारीख (इतिहास) में ऐसा वक्त नहीं आया कि नाइंसाफी और जुल्मों के इन वाकयात को खत्म किया जा सके। महात्मा ईसा को भी इसी तरह एक मुजरिम की हैसियत से एक गैरमुल्की अदालत के सामने खड़ा होना पड़़ा था। महान दार्शनिक सुकरात और महान वैज्ञानिक गैलीलियो को भी इसी तरह की अदालतों के सामने एक मुज़रिम की हैसियत से खड़ा होना पड़ा था। उन्हें जो सजाएं दी गई, वे बयान से बाहर है। यह अदालत भी उन्हीं अदालतों जैसी है, और यह याद करके कि ऐसी ही अदालतों में इस तरह की पाक और अज़ीम हस्तियां मुजरिम की हैसियत से खड़ी हो चुकी हैं, मेरा सिर उस पाक परिवरदिगार की याद में झुक जाता है। हिंदुस्तान में अपने हकूक (अधिकार) हासिल करने के लिए जंग शुरू हो चुकी है। मौजूदा सरकार की नज़र में यह तहरीक (आंदोलन) जबर्दस्त गुनाह है। लेकिन मेरा यकीन है कि आज़ादी इंसान का खुदादाद हक है। गुलामी की जंजीरों के लिए चाहे कितने ही खूबसूरत अल्फाज दिए जाएं, फिर भी गुलामी गुलामी है और खुदा व कुदरत के कानून के खिलाफ है। अपने मुल्क की गुलामी से निजात (छुटकारा) दिलाना मेरा फर्ज़़ है।”

उनके इस बयान में उनकी राष्ट्रीयता कितने खरे सोने की तरह जगमगा रही है। अपने इन शब्दों पर वह जीवन की अंतिम घड़ी तक अडिग रहे। मुस्लिम लीग के लाख प्रलोभन और विरोध उनकी राष्ट्रीयता को बदल नहीं सके। सन् १९२३ में जब वह जेल से रिहा हुए, तब कांग्रेस दो दलों में बंट चुकी थी। एक था गरम दल, जो कौसिलों में जाने के पक्ष में था और दूसरा था नरम दल जो महात्मा गांधी के सिद्धांतों के अनुसार अंग्रेजी सरकार के साथ किसी भी तरह का सहयोग करने के लिए तैयार नहीं था। अतः सितंबर १९२३ में दिल्ली में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने कहा, “हर शख्स को यह आज़ादी दी जाए कि वह अपनी मर्जी के मुताबिक, चाहे कौसिल में जाकर मुल्क की खिदमत करे या कांग्रेस के असली प्रोग्राम के मूताबिक काम करे।“ उनके इस महान कार्य का यह फल हुआ कि कांग्रेस की बिखरी शक्ति फिर एकत्र हो गई। इस प्रकार, कांग्रेस में एकता पैदा करके उन्होंने देश की बहुत बड़ी सेवा की वरना आजादी की मंजिल हमसे और भी दूर हो जाती।

सन् १९३० के आंदोलन में जब कांग्रेस के अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया, तब मौलाना आजाद को उनकी जगह कांग्रेस अध्यक्ष नामजद किया गया। लेकिन कुछ समय के बाद ही उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। मौलाना आज़ाद की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता बड़ी असाधारण थी। इसीलिए प्रायः हर बात में गांधीजी उनकी सलाह लिया करते थे। राजनीति की बारीकियों को मौलाना बखूबी समझते थे। इसीलिए १९३७ में भारत के आठ प्रांतों में कांग्रेस मंत्रिमंडलों की स्थापना होने पर, उनकी सहायता के लिए कांग्रेस ने जो समिति बनाई, उसमें बाबू राजेंद्र प्रसाद और सरदार बल्लभभाई पटेल के अलावा मौलाना आज़ाद को भी रखा गया। इस समिति के सदस्य की हैसियत से उन्होंने उत्तर प्रदेश के शिया और सुन्नी मुसलमानों के झगड़े को समाप्त किया | बिहार में किसानों और जमींदारों के बीच समझौता कराया और दुसरे प्रांतों में भी इसी तरह के कई झगड़े समाप्त कराने में सहायता पहुंचाई।

सन् १९४२ में जब कांग्रेस ने “भारत छोड़ो” आंदोलन आरंभ किया, तब मौलाना आज़ाद भी अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें अहमदनगर के किले में कैद कर दिया गया। किंतु इसी कारावास काल में उन्हें अपनी अत्यधिक प्रिय पत्नी से हाथ धोना पड़ा। उनकी पत्नी का उन्हीं दिनों देहांत हो गया।

सन् १९४५ में तीन वर्ष के कारावास के बाद, जब मौलाना आज़ाद रिहा हुए, तो फिर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। इस बार अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने शिमला कांफ्रेंस में भाग लिया, उन्होंने मुस्लिम लीग के अध्यक्ष श्री मुहम्मद अली जिन्ना के साथ ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि श्री स्टैफर्ड क्रिप्स से भारत की आज़ादी के संबंध में बातचीत की। यह काफ्रेंस श्री जिन्ना की जिद के कारण असफल रही।

इसके बाद, १९४६ में ब्रिटिश मंत्रिमंडल के तीन सदस्य-लार्ड पेथिक लारेंस, सर स्टैफर्ड क्रिप्स और ए.बी. एलेक्जेंडर भारत आए, तो फिर मौलाना आज़ाद ने कांग्रेस अध्यक्ष के नाते कांफ्रेंस में भाग लिया। इस कांफ्रेंस के फलस्वरूप देश में मुस्लिम लीग और कांग्रेस की मिली-जुली अंतरिम सरकार कायम हुई।

कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर मौलाना आज़ाद छः वर्ष तक रहे। इतने दिनों तक कोई भी व्यक्ति कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं रहा। सन् १९४७ में देश के विभाजन और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् मौलाना आज़ाद को भारत सरकार के शिक्षा मंत्री का पद दिया गया। इस पद पर वह लगातार ग्यारह वर्ष तक रहे और उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक देश की सेवा की।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की मृत्यु


१८ फरवरी १९५८ को मौलाना आज़ाद के दिमाग पर अचानक लकवे का आघात हुआ और वह बेहोश होकर गिर पड़े। इस दुखद सूचना से देश के साथ-साथ विदेशों में भी चिंता की एक लहर दौड़ गई। बड़े-बड़े डाक्टरों ने उन्हें होश में लाने की कोशिश की। लेकिन सब बेकार सिद्ध हुआ। २२ फरवरी १९५८ की रात को २:०० बजे वह बेहोशी चिरनिद्रा में परिवर्तित हो गई।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *