मुख्तार अहमद अंसारी | Mukhtar Ahmed Ansari

मुख्तार अहमद अंसारी | Mukhtar Ahmed Ansari

डॉक्टर मुख्तार अहमद अंसारी हमारे देश के एक बहुत बड़े नेता थे । अपने समय के देशभक्तों में उनका स्थान बहुत ऊचा था। उनका पूरा नाम था, डा. मुख्तार अहमद अंसारी।

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मुख्तार अहमद अंसारी का जन्म


मुख्तार अहमद अंसारी का जन्म २५ दिसंबर, १८८० को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक गांव यूसफपुर में हुआ था । उनके पिता का नाम हाजी अब्दुरहमान था। वह एक बहुत बड़े जमींदार थे।

मुख्तार अहमद अंसारी की शिक्षा


बचपन में डा. अंसारी ने अपने गांव के ही स्कूल में शिक्षा पाई। इसके पश्चात् वह मद्रास के एक स्कूल में भर्ती हो गए। फिर मैट्रिक पास करने के उपरांत वह निजाम कालेज, हैदराबाद, में दाखिल हुए। इसके बाद उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की।

डा. अंसारी बचपन से ही बड़े होशियार और परिश्रमी थे। सब लोग उनकी प्रखर बुद्धि का लोहा मानते थे। हैदराबाद सरकार भी उनकी प्रतिभा से प्रभावित हुए बिना न रह सकी । १९०१ में उसने उन्हें छात्रवृत्ति देकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड भेजा। वहां वह एडिनबरा विश्वविद्यालय में दाखिल हुए और लगभग नौ वर्ष तक पढ़ते रहे। इस बीच उन्होंने डाक्टरी की कई उपाधियां प्राप्त की। डा. अंसारी की प्रतिभा की इंग्लैंड में भी शीघ्र ही धाक जम गई।

मुख्तार अहमद अंसारी के कार्य


उन्हें लंदन के बड़े अस्पताल चेरिंग क्रास का हाउस सर्जन नियुक्त किया गया । फिर अगले वर्ष वह लंदन के लाक अस्पताल के रेजिडेंट मेडिकल अफसर के पद पर नियुक्त हुए। इसी वर्ष उन्होंने एडिनबरा से सर्जनी की एक उच्च उपाधि प्राप्त की और लाक अस्पताल में, औरतों और बच्चों के वार्ड में, उन्हें हाउस सर्जन नियुक्त किया गया। संभवतः वह पहले भारतीय थे, जिन्हें इंग्लैंड में इस पद पर नियुक्त होने का अवसर मिला।

सन् १९११ में दिल्ली आकर उन्होंने प्रैक्टिस आरंभ की। उनका चिकित्सालय फतेहपुरी में था। चूंकि उनके हृदय में सबके लिए स्नेह था और हाथ में सफाई थी, इसलिए स्वभावतः ही उनके चिकित्सालय में सुबह-शाम रोगियों की अच्छी-खासी भीड़ लगी रहती थी। तुर्की-बल्कानी युद्ध छिड़ने पर १९१२ में भारत ने चायलों के इलाज के लिए अपने यहां के डाक्टरों का एक दल तुर्की भेजने का निश्चय किया ऐसे अवसर पर मानव मात्र के दुख में दुखी होने वाले डा. अंसारी भला कैसे चूकते। उन्होंने अपना काम छोड़ दिया और डाक्टरों के उस दल में शामिल हो गए। वहां जाकर उन्होंने घायलों की बड़ी तत्परता से सेवा की। उनकी निस्वार्थ सेवा भावना सचमुच अनुकरणीय थी। तुर्की के सुल्तान तो उनके कामों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें एक ऊंची उपाधि देकर सम्मानित किया।

मुख्तार अहमद अंसारी का राजनीतिक जीवन


इसके कुछ वर्ष बाद, १९१७ में डाक्टर अंसारी राजनीति के मैदान में कूदे। उन दिनों स्वाधीनता की लड़ाई जारी थी और राजनीति का मैदान खतरों से भरा था। पर वीर अंसारी उन खतरों से घबराए नहीं, वह उनके साथ हंस-हंसकर खेलने लगे। सन् १९१८ में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का जो अधिवेशन हुआ, डा. अंसारी उसके मुख्य आयोजकों में से एक थे। इस अधिवेशन में उन्होंने बड़ा ही ओजस्वी और विद्रोहात्मक स्वागत भाषण किया, फलतः अंग्रेज सरकार बौखला उठी। उसने उनके उस भाषण की समस्त कापियां जब्त कर ली। उस समय वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के भी मंत्री थे। मुस्लिम लीग के इस अधिवेशन के प्रति अंग्रेज सरकार ने बड़ी कठोर दमन नीति अपनाई। फलस्वरूप, सारे देश में खिलाफत का आंदोलन शुरू हो गया | महात्मा गांधी को भी इस आंदोलन से सहानुभूति थी। इस आंदोलन का प्रभाव केवल तुर्की पर ही नहीं बल्कि भारतीय मुसलमानों पर भी, जो कांग्रेस में सम्मिलित हुए थे, बहुत अधिक पड़ा।

मुख्तार अहमद अंसारी शुरू से ही महात्मा गांधी के साथ काम कर रहे थे । अतः मौलाना मुहम्मद अली की गिरफ्तारी के बाद नजरबंदों की सहायता के लिए जो समिति नियुक्त हुई, डाक्टर अंसारी उसके प्रधान बनाए गए। १९२० में नागपुर में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अधिवेशन के अध्यक्ष भी डा. अंसारी ही चुने गए। फिर १९२२ में वह गया में हुए खिलाफत कांफ्रेंस के अध्यक्ष बने।

सन् १९२७ में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। दो एकता सम्मेलन भी हो चुके थे, पर स्थिति बिगड़ती जा रही थी। उधर इंग्लैंड से साइमन कमीशन भी आने वाला था। यह कमीशन भारत के स्वभाग्य-निर्णय के अधिकार का फैसला करने के लिए नियुक्त किया गया था, पर इसमें एक भी भारतीय सदस्य न था। यह बात भारत के आत्मसम्मान के लिए एक चुनौती थी। इस कमीशन के संबंध में कांग्रेस को कैसी नीति ग्रहण करनी होगी, इस बात का भी निर्णय करना था। ऐसे समय में कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए डा. अंसारी से बढ़कर उपयुक्त व्यक्ति और कौन हो सकता था? डा. अंसारी मुसलमानों और हिंदुओं दोनों में लोकप्रिय थे। अतः उस वर्ष उन्हें ही कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया।

इसी अधिवेशन में उक्त कमीशन के बहिष्कार का महत्वपूर्ण प्रस्ताव स्वीकृत किया गया। इस अवसर पर डा. अंसारी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में, हिंदू-मुस्लिम एकता पर बहुत जोर दिया था। जब इंग्लैंड से शाही कमीशन भारत आया, तब डा.अंसारी ही कांग्रेस अध्यक्ष थे । बाद में, यही कमीशन “साइमन कमीशन” के नाम से विख्यात हुआ। स्थान-स्थान पर उसका बहिष्कार हुआ और काले झंडे दिखाए गए। सारा भारत “साइमन वापस जाओ” के नारों से गूंज उठा।

मुख्तार अहमद अंसारी की मृत्यु


डा. अंसारी को कांग्रेस के जिस किसी भी पद के लिए चुना गया, उन्होंने बड़ी सफलता से अपना कर्तव्य निभाया। १९३३ में जब कांग्रेस संसदीय दल की रथापना हुई, तो वह उसके संस्थापक प्रधान बनाए गए। उनके जैसे योग्य प्रधान के नेतृत्व में कांग्रेस ने विधान सभा के चुनाव देश भर में सफलतापूर्वक लड़े। इसके बाद आने वाले चुनावों के लिए भी लोगों ने उनकी सेवाओं पर बहुत आशाएं लगा रखी थी, पर विधाता ने वह समय आने से पहले ही मई १९३६ में उन्हें उठा लिया और सारा देश शोक-सागर में डूब गया।

दारुल अस्लाम की स्थापना


डा. अंसारी राजनीतिक क्षेत्र के महारथी और देशभक्त तो थे ही, उनमें और भी बहुत सारे गुण थे। उनका हृदय बहुत विशाल था। खिलाफत कमेटी, कांग्रेस या मुस्लिम लीग, जिसे भी रुपयों की आवश्यकता होती, वह दिल खोलकर देते। उन्होंने अपने भवन में भारत से बाहर मुसलमानों के लिए एक निवास स्थान बना रखा था। उसका नाम था – दारुल अस्लाम । यह एक ऐसा केंद्र था, कि जब कोई नेता बाहर से आता, तो यहीं ठहरता । इस प्रकार, कई बार तो डा. अंसारी को एक साथ सैंकड़ों अतिथियों के भोजन का प्रबंध करना पड़ता था। वह ऐसे कामों में आनंद अनुभव करते थे और पानी की तरह धन बहाते थे।

जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली की स्थापना


डा. अंसारी को शिक्षा के कामों में भी बड़ी रुचि थी। उन्होंने एम.ए.ओ. कालेज की, ट्रस्टी के रूप में, अमूल्य सेवा की। १९२० में उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली की नींव रखी। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसेन इसके उपकुलपति बने। यह एक राष्ट्रवादी शिक्षा केद्र है और आज भी बड़ा सराहनीय काम कर रहा है।

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