ज्योतिबा फुले का जीवन परिचय | ज्योतिबा फुले कौन थे | ज्योतिबा फुले के सामाजिक विचार | Jyotiba Phule

ज्योतिबा फुले | Jyotiba Phule

महाराष्ट्र में जिन लोगों ने स्त्री-शिक्षा और अछूतोद्धार का काम किया, उनमें ज्योतिबा फुले का नाम सबसे पहले आता है।

ज्योतिबा फुले का जन्म


ज्योतिबा फुले के एक पूर्वज सतारा शहर से २५ मील दूर कलगुट गांव में खेती-बाड़ी करते थे। एक बार जब साहूकार ने उनकी जमीन छीन ली, तब क्रोध में आकर उन्होंने उसे जान से मार डाला और भागकर खानबड़ी में जा बसे। बाद में उनके यहां एक पुत्र हुआ, जिसका नाम था – शेटिबा। यही शेटिबा ज्योतिबा के दादा थे।

पिता की मृत्यु के बाद शेटिबा के ऊपर बहुत-सा कर्जा हो गया था। इसलिए वह पुणे चले आए। पुणे में बहुत प्रयत्न करने के बाद उन्हें एक माली के घर में काम मिला। शेटिबा बहुत नेक और मेहनती थे। उनके तीन पुत्र थे। शेटिबा की कमाई सबके लिए काफी नहीं होती थी, इसलिए बेटे भी फूलों के हार, गजरे वगैरह बनाते थे । इससे लोग उनको फुले कहने लगे।

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शेटिबा के तीन पुत्रों में सबसे छोटे का नाम था – गोविंदराव। उनका विवाह चिमणाबाई से था। ज्योतिबा इन्हीं की संतान थी | उनका जन्म ११ अप्रैल १८२७ में हुआ था | ज्योतिबा एक साल के ही थे कि उनकी माता चिमणाबाई की मृत्यु हो गई। बच्चों की खातिर गोविंदराव ने दूसरी शादी नहीं की। उन्होंने एक दाई रख ली, जिसने ज्योतिबा का लालन-पालन बड़ी अच्छी तरह किया।

ज्योतिबा फुले की शिक्षा


ज्योतिबा बहुत बुद्धिमान बालक थे। लोगों ने गोविंदराव से उन्हें स्कूल में दाखिल करने को कहा। उन दिनों पुणे में एक ही स्कूल था जिसकी स्थापना कलेक्टर राबर्टसन ने की थी। उसमें बड़े-बड़े अमीरों के बच्चे पढ़ते थे। ज्योतिबा पढ़ने में बहुत तेज थे। चार साल तक उनकी पढ़ाई चलती रही। स्कूल अंग्रेजों का था। लोगों ने यह अफवाह फैलाई कि उसमें बच्चों को ईसाई बनाया जाता है। गोविंदराव ने इसे सच मानकर ज्योतिबा को स्कूल से निकाल लिया।

अब ज्योतिबा फिर माली का काम करने लगे लेकिन उनका मन तो पढ़ने में था। हाथ में डंडा लेकर वह मिट्टी में लिखते थे और पिछला पढ़ा हुआ दोहराते थे। स्कूल जाने वाले बच्चों को देखकर वह कहते थे कि “मैं भी स्कूल जाऊंगा।“

पड़ोस में एक अंग्रेज सज्जन रहते थे। उनको ज्योतिबा पर तरस आ गया और उन्होंने गोविंदराव को समझाकर ज्योतिबा को फिर स्कूल में दाखिल करवा दिया। बीच में पढ़ाई छूट जाने के कारण अब ज्योतिबा अपनी कक्षा में सबसे बड़ी उम्र के थे। इसलिए उन्हें बड़ी शर्म आती थी। फिर भी मेहनत करके उन्होंने पिछली सारी पढ़ाई पूरी कर ली। पढ़ाई के साथ-साथ वह अपने शरीर को भी मजबूत बनाना चाहते थे। इसलिए वह नियम से व्यायाम भी करते थे।

२१ वर्ष की आयु में उन्होंने अंग्रेजी की सातवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की। स्कूल में ज्योतिबा को स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व, अहिंसा आदि ऊंचे आदर्शों का परिचय मिला। महात्माओं की जीवनी पढ़कर उन्होंने दया, धर्म, प्रेम और सत्य का महत्व समझा। भगवान के सामने अमीर-गरीब और नीच-ऊंच का कोई भेद नहीं है, उन्होंने यह भी सीखा। परंतु दुनिया में उनको सत्य, दया, क्षमा आदि कहीं भी दिखाई न दिए। लोग एक-दूसरे को लूटते थे, धर्म और जाति का भेद बहुत माना जाता था। यह सब देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

ज्योतिबा फुले का अछूतो के लिए कार्य


एक बार ज्योतिबा अपने एक दोस्त की शादी में गए। वहां एक ब्राह्मण पुरोहित ने उन्हें बरात में सम्मिलित होने से रोक दिया। शादी में विघ्न नहीं डालना चाहिए, यह सोचकर ज्योतिबा अलग हो गए। लेकिन यह अपमान बहुत दिनों तक उनके मन में कांटे की तरह चुभता रहा। इस घटना ने ज्योतिबा को गंभीरता से सोचने और सामाजिक स्थिति का अध्ययन करने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने पाया कि अछूत कहे जाने-वाले निचले वर्ग के लोगों की स्थिति जानवरों से भी गई-बीती है। लोग अज्ञान और दरिद्रता से पीड़ित थे | ज्योतिबा मैट्रिक पास थे घर के लोग चाहते थे कि वह अच्छे वेतन पर सरकारी कर्मचारी हो जाएं, लेकिन ज्योतिबा ने अपना सारा जीवन दलितों की सेवा में बिताने का निश्चय किया।

ज्योतिबा फुले का स्त्री शिक्षा के लिए कार्य


उन दिनों स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब थी। चौका-बर्तन करना और बच्चों को संभालना, बस इतना ही उनका दायरा था। बचपन में शादी हो जाती थी और पढ़ने-लिखने का सवाल ही नहीं उठता था। दुर्भाग्य से अगर कोई बचपन में विधवा हो जाती थी तो उसकी शक्ल देखना तक लोग अशुभ मानते थे। ज्योतिबा ने सोचा कि यह तो बड़ा अन्याय है। भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माताएं अगर अंधकार में डूबी रहीं तो फिर हो चुका। पीढी-दर-पीढी अंधकार ही फैला रहेगा और देश की कोई भी पीढ़ी सबल, शिक्षित नहीं हो सकेगी। वह इस परिणाम पर पहुंचे कि यदि बच्चे की मां पढ़ी-लिखी होगी, तभी वह संतान को ज्ञान का प्रकाश दे सकेगी। उन्होंने अपने सभी मित्रों से इसके बारे में सलाह की और स्त्री-शिक्षा के काम में जुट गए।

ज्योतिबा फुले द्वारा स्कूल स्थापना


ज्योतिबा फुले ने १८५४ में लड़कियों के लिए स्कूल खोला। समूचे भारत में लड़कियों का यह पहला स्कूल था। शुरू में आठ ही लड़कियां थीं, पर धीरे-धीरे संख्या बढ़ती गई। स्कूल में वही अकेले शिक्षक थे, क्योंकि सनातनी लोग दुसरे शिक्षकों को नहीं आने देते थे। अकेले परिश्रम करते हुए वह थक जाते थे, इसलिए सबसे पहला काम ज्योतिबा ने यह किया कि अपनी पत्नी सावित्री को शिक्षा दी। अब पढ़ाई के काम में वह भी मदद करने लगी। रास्ते में लोग उस पर फवतियां कसते और कपड़ों पर मिट्टी-कीचड़ फेंकते। लेकिन वह डगमगाई नहीं, धीरज से पढ़ती और लड़कियों को पढ़ाती रही।

सनातनी लोगों के धमकाने से गोविंदराव ने ज्योतिबा और सावित्री को घर से निकाल दिया। अब ज्योतिबा ठेकेदारी का काम करके जीविका चलाने लगे और बाकी समय समाज-सेवा में लगाने लगे।

लड़कियों की पढ़ाई अब बढ़ने लगी थी और उनके स्कूलों की संख्या भी अधिक हो गई थी। अब ज्योतिबा ने मेहतरों, भंगियों, चमारों आदि अछूत कहे जाने वाले लोगों के लिए ज्ञान मंदिर खोला। कितने ही अनाथ बच्चों को अपने ही घर में पालना शुरू किया। पुणे में सार्वजनिक पानी की टंकी थी। लेकिन अछूतों के लिए उसे छूना मना था। उन्हें घंटों धूप में खड़े होकर पानी की भीख मांगनीं पड़ती थी। ज्योतिबा को यह बुरा लगा। उन्होंने अपने घर की टंकी सबके लिए खोल दी। सनातनी लोगों ने चिढ़कर उनको जाति से बाहर निकाल दिया।

एक बार एक बूढ़ा मेहतर रास्ते में बेहोश पड़ा था। पड़ोस में एक ब्राह्मण की कोठी थी, लेकिन किसी ने उसे पानी तक नहीं पिलाया। ज्योतिबा ने दूर से पानी लाकर उसे पिलाया और हाथ पकड कर घर पहुंचा दिया। एक बार एक भिखारी अपनी फटी-पुरानी धोती में भिक्षा बांधकर जा रहा था। अनाज रास्ते में बिखरता जाता था ज्योतिबा ने उसे अपना दुपट्टा दे दिया। ज्योतिबा भलाई और नेकी के ऐसे अनेक काम करते थे। वह किसी बच्चे को स्कूल में दाखिल कराते, किसी की चोट पर पट्टी बांधते और किसी को खाना देते। लोग अकारण ही उन्हें बहुत सताते थे। एक दिन कुछ लोगों ने ज्योतिबा के गले में मरे हुए सांप और बिच्छुओं की माला डाल दी । पर ज्योतिबा ने उनको क्षमा कर दिया। इस पर वे उनके शिष्य बन गए।

ज्योतिबा फुले की संतान


जब उनके पिता गोविंदराव बीमार हुए तब ज्योतिबा, पत्नी सहित उनको देखने गए। वहां सावित्री के पिता भी थे। ज्योतिबा के कोई संतान न हुई थी, इसलिए सबने उनसे दूसरी शादी करने को कहा।

सावित्री दुखी हुई, लेकिन मान गई। पर ज्यातिबा ने कहा कि मैं तो हमेशा से यह कहता आया हूँ कि दो या तीन शादी करना बुरा है, बाल-विवाह भी अच्छा नहीं है और नारियों को शिक्षा दी जानी चाहिए। इसका उलटा आचरण भला मैं कैसे करूं? मैं दूसरे विवाह का विचार भी मन में नहीं कर सकता।

समाज के लोग क्या कहेंगे इसकी बिल्कुल परवाह न करते हुए ज्योतिबा ने एक आरमाणित विधवा को अपने घर में जगह दी, जो मां बनने वाली थी। ज्योतिबा की पत्नी ने उसे अपनी लड़की की तरह रखा और जब उसके लड़का हुआ तो उसे गोद ले लिया।

उन दिनों जब लड़की विधवा हो जाती थी, तो उसके सारे गहने उतार कर बाल काट देते थे। लड़कियां बहुत रोती थीं, मां-बाप को भी बुरा लगता था, लेकिन समाज के भय से इस प्रथा का पालन किया जाता था। ज्योतिबा ने सारे नाई-समाज को इकट्ठा करके यह काम न करने का आदेश दिया।

ज्योतिबा ने मजदूरों-कामगारों के संघ बनाए। आजकल उनको बोनस मिलता है। उनके काम करने के दिन और छुट्टी के दिन निश्चित है। लेकिन मजदूरों के अधिकारों के लिए सबसे पहले ज्योतिबा ने ही आवाज उठाई थी।

ज्योतिबा फुले के राजनीतिक विचार


इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के पुत्र ड्यूक आफ कनाट जब भारत आए तो बड़े-बड़े लोगों को बुलाया गया। इन लोगों के कीमती कपड़े और आभूषण देखकर ड्यूक भारत की अमीरी की सराहना करने लगे। तभी पुराने कपड़े पहने, हाथ में डंडा लिए हुए ज्योतिबा आकर पास ही बैठ गए। उनकी सूरत देखकर लोग हंसने लगे। ड्यूक से परिचय होने के बाद उन्होंने कुछ कहने की अनुमति मांगी और भारत की सच्ची दशा का वर्णन किया। अब ड्यूक की आंखें खुली और लोग ज्योतिबा की ओर आदर से देखने लगे।

कांग्रेस की स्थापना के समय ज्योतिबा ने पुणे में अनेक सभाओं में लोगों को कांग्रेस का कार्य समझाया। फिर जब तिलक और आगरकर को राजद्रोही मानकर कैद कर लिया गया था तो उनके लिए ज्योतिबा ने जगह-जगह घूमकर बड़े कष्ट से जमानत की रकम जमा की और मुकदमे का खर्च उठाया।

अकाल के दिनों में ज्योतिबा ने भूखों की असीम सेवा की, जिसके सम्मान में लोगों ने उनको महात्मा की उपाधि दी। ज्योतिबा के तेजस्वी विचारों से वडोदरा के महाराज सयाजीराव गायकवाड़ भी प्रभावित हुए थे।

ज्योतिबा फुले की मृत्यु


जीवन के अंतिम दिनों में ज्योतिबा के दाहिने हाथ को लकवा मार गया था। उसके बाद वह बाएं हाथ से लिखते थे। उन्होंने दीनबंधु नामक पत्र निकाला। उनकी मृत्यु २८ नवंबर १८९० में हुई। उन्होंने अपना सारी आयु दलितों, अनाथों और अछूतों के उद्धार में बिताई।

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