नाना शंकरशेट | जगन्नाथ शंकर सेठ | Nana Shankar Sheth | Jagannath Shankarseth

नाना शंकरशेट | जगन्नाथ शंकर सेठ

Nana Shankar Sheth | Jagannath Shankarseth

बंबई टाउनहाल मे एक मूर्ति है ये मूर्ति जगन्नाथ उर्फ नाना शंकर शेट की है। उन्नीसवीं सदी में आजादी नष्ट होने के बाद भारत में राष्ट्रीयता उत्पन्न करने में जिन सज्जनों ने इस देश में कष्ट उठाए, उनमें नाना शंकरशेट भी थे। बंबई शहर के विकास और तमाम भारतीय नागरिकों के अधिकारों के लिए नाना ब्रिटिश सरकार से जिन्दगी भर लड़ते रहे।

नाना शंकरशेट का जन्म १० फरवरी १८०३ में बंबई के एक संपन्न परिवार में हुआ। मां-बाप के धनी-मानी होने के कारण उनको बचपन में किसी तरह के संकट का सामना नहीं करना पड़ा पर वह साढ़े तीन साल के भी नहीं हुए थे कि उनकी मां चल बसीं। नाना को मां का सुख नहीं मिला।

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संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
जगन्नाथ शंकरशेट जीवन परिचय
पूरा नाम जगन्नाथ शंकर सेठ
जन्म तारीख १० फरवरी १८०३
जन्म स्थान मुरबाद
धर्म हिन्दू
पिता का नाम शंकर सेठ
कार्य शिक्षा के प्रसार,
बांबे नेटिव स्कूल और
स्कूल बुक सोसायटी की स्थापना
एलफिस्टन हाई स्कूल और
एलफिंस्टन कॉलेज की स्थापना,
समाजसेवक
आमतौर पर लिए जाने वाला नाम नाना शंकरशेट
मृत्यु तारीख ३१ जुलाई १८६५
मृत्यु स्थान बंबई
उम्र ६२ वर्ष

घर में नौकर-चाकर बहुत थे, तो भी उनके पिता की पुत्र के प्रति जिम्मेदारी बढ़ गई। पुत्र को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले और वह सर्व गुण संपन्न हो जाए, इसके लिए उनके पिता शंकर शेट ने कोई कसर नहीं उठा रखी। सब बातें अनुकूल हों, लेकिन पात्र ही उपयुक्त न हो तो सब बातें बेकार हो जाती है। नाना के संबंध में ऐसा नहीं था। वह स्वयं सब प्रकार से योग्य थे। पिता की देख-रेख में नाना का विद्याभ्यास चल रहा था शास्ती-पंडितों के साथ-साथ यूरोपियन अध्यापक भी नाना को पढ़ाते थे, किंतु नाना अठारह वर्ष के भी न हुए थे कि उन पर एक और वज्रघात हुआ। उनके पिता की मृत्यु हो गई। नाना अकेले रह गए। घर में लगभग पांच लाख की सम्पत्ति थी। वह चाहते तो जिंदगी भर कुछ न करते और आराम से बैठ कर खाते लेकिन ऐसा उनका स्वभाव नहीं था।

भारतीयों में शिक्षा का प्रसार करना, उनका जीवन सुख-समृद्धि से भरपूर बनाना और देश की शान बढ़ाना, नाना ने यह कार्य अपने लिए चुना। नाना ने अंग्रेज़ी शिक्षा पाई थी। उसका प्रभाव उन पर था। भारतीय जब तक अंग्रेज़ी नहीं सीखेंगे तब तक अंग्रेजों से मुकाबला नहीं कर पाएंगे, ऐसा उनका मत बना। वह शिक्षा के प्रसार में लग गए। बंबई प्रांत के उस समय के गवर्नर मौट स्टुअर्ट एलफिस्टन भारतीय लोगों में शिक्षा का प्रसार करने के पक्ष में थे और इसका प्रयत्न भी कर रहे थे लेकिन जब तक उनको धनी-मानी नागरिकों का सहयोग न मिलता तब तक उन्हें कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकती थी। ऐसा सोचकर १८२२ में मौट स्टुअर्ट एलफिस्टन ने बंबई के बड़े-बड़े लोगों की एक सभा बुलाई। उसमें उन्होंने अपनी योजना लोगों के सामने रखी। उसके लिए धन देने का वचन दिया और लोगों से आर्थिक सहायता मांगी।

बंबई क्षेत्र में चिट्ठिया लिख कर पैसा इकट्ठा किया गया। इस कार्य का नेतृत्व नाना के पास अपने आप आ गया। इस प्रकार बांबे नेटिव स्कूल एंड स्कूल बुक सोसायटी की स्थापना नाना के नेतृत्व में हुई।

अंग्रेज़ी स्कूल में जाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, ऐसी भावना उन दिनों लोगों के मन में बैठी हुई थी। परिणाम यह होता था कि लोग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूलों में भेजने के लिए तैयार नहीं होते थे। जब लड़कों की यह हालत थी, तो लड़कियों की शिक्षा के संबंध में सोचना ही व्यर्थ था। पर नानाजी चुप न बैठे। समस्या जटिल अवश्य थी, लेकिन नाना ने उसे भी हल किया। डा. विल्सन नाम के एक मिशनरी थे। लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की एक योजना उन्होंने तैयार की थी। पर उनके सामने प्रश्न यह था कि इस काम के लिए जगह कौन देगा? १८३० की बात है, डा. विल्सन ने अपनी योजना नाना को बताई। नाना ने तुरंत अपनी कोठी के पड़ोस का अपना दूसरा मकान लड़कियों के स्कूल के लिए दे दिया | नाना की उदारता और अपनी योजना के प्रति उनकी अनुकूलता देखकर डा. विल्सन बहुत अचरज में पड़ गए क्योंकि नाना के इस कार्य से कितने ही भारतीय उनसे नाराज हो गए थे। नाना को यह कल्पना तो थी कि उनके इस कार्य से बहुत से लोग उन पर नाराज होंगे, तो भी वे दृढ़ निश्चयी थे और एक अच्छे काम के लिए लोगों का रोष सहने के लिए तैयार थे।

नाना ने १८२२ में ही ज्ञान प्रसार का जो बीज बोया था उससे समय आने पर अंकुर फूट निकले और एलफिस्टन हाई स्कूल तथा एलफिंस्टन कॉलेज का जन्म हुआ | सरकार ने शिक्षा नियंत्रण के लिए एक मंडल स्थापित किया, जिनके कार्य के फलस्वरूप १८५७ में बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।

शिक्षा के संबंध में नाना की टृष्टि इतनी दूरगामी थी कि वे बाल अपराधियों को सुधारने के लिए स्कूल खोलने के पक्षपाती थे।

आजकल भाषा के प्रश्न पर मतभेद और झगड़े पाए जाते है। नाना को सौ साल पहले ही इस समस्या का आभास था। उनका कहना था कि अंग्रेजी के साथ-साथ मराठी और संस्कृत भी सीखनी चाहिए, लेकिन शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। ज्ञान-सूर्य की किरणे फैलाने की दृष्टि से देशी भाषाओं का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करना हमारा कर्तव्य है शिक्षा का माध्यम मातृभाषा न होने से साधारण जनता शिक्षा न पा सकेगी और मातृभाषाएं भी संपन्न नहीं होंगी। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति की खान है और हमारी भाषाओं की जननी है हिंदू धर्म के ग्रंथ, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत में है। लोगों को संस्कृत भाषा आनी ही चाहिए, ऐसी नाना की मान्यता थी। उस अंधकारमय समय में उन्होंने संस्कृत को प्रतिष्ठा दिलाई। नाना की मृत्यु के बाद बम्बई विश्वविद्यालय में उनके नाम से एक छात्रवृत्ति दी जाने लगी जो संस्कृत परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाने वाले विद्यार्थी को अब तक दी जाती है।

भारत के कई प्रसिद्ध पुरुषों ने अपने विद्यार्थी जीवन में यह छात्रवृत्ति पाई। शिक्षा के क्षेत्र में नाना ने जैसा कार्य किया, वैसा ही बंबई नगर का विकास करने में भी किया। उस जमाने में जो अंग्रेज़ अधिकारी थे, वे नगर सुधार के काम में दिलचस्पी रखते थे, लेकिन उस सुधार का क्षेत्र उनके पास-पड़ोस तक ही रहता था | शेष लोगों के स्वास्थ्य, पानी, प्रकाश आदि के बारे में वे उतना ध्यान नहीं देते थे, नाना को यह बात बुरी लगी उन्होंने कोशिश शुरू की और भारतीयों की बस्ती की गंदगी, अंधकार, पीने के पानी की कमी, संकरे रास्तों आदि को हटाने की व्यवस्था की। भारतीयों के लिए बगीचे, तालाब, दवाखाने, वाचनालय, नाट्यगृह आदि के निर्माण में वह तन, मन, धन से जुट गए।

बंबई के चर्नीरोड और मरीन लाइंस स्टेशनों के बीच एक लंबी और ऊंची दीवार दिखाई देगी। उसके पीछे हिंदुओं की श्मशान भूमि है, एक बार अंग्रेजों ने श्मशान भूमि को वहां से हटाने की कोशिश की। लोग इसके लिए तैयार नहीं थे। नानाजी ने लोगों का पक्ष लिया और अंग्रेज़ो से लड़-झगड़ कर उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।

भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड बेंटिक ने १८२७ में “सती प्रथा” बंद की। नाना इस सुधार के पक्ष में थे। उन्होंने इसके लिए आंदोलन किया। लोगों का क्षोभ भी उनको सहना पड़ा था। १८४५-४६ में बंबई में ईसाई मिशनरियों ने स्कूल के छात्रों के धर्म परिवर्तन करने का एक प्रयत्न किया था जिससे लोग बहुत नाराज हुए। शेषाद्रि गोविंद नाम के तैलंग ब्राह्मण के दो पुत्र नारायण और श्रीपति जनरल असेंबली के मिशनरी स्कूल में जाते थे नारायण बड़ा था, श्रीपति छोटा था। मिशनरियों के प्रभाव से एक दिन वे दोनों खिस्तानी बन गए। इससे बंबई में बड़ी हलचल मच गई। शेषाद्रि परिवार दुखी हुआ। नाना ने उनको आश्वासन दिया कि मै तुम्हारी भरसक सहायता करूंगा, शेषाद्रि परिवार गरीब था। अदालती कार्रवाई में लगने वाला सब पैसा नाना ने दिया। बहुत मेहनत के बाद शेषाद्रि परिवार के छोटे पुत्र श्रीपति को उन्होंने फिर हिंदू धर्म में ले लिया। उस समय की सर्वोच्च अदालत तक मुकदमा चला जिसे नाना जीत गए लेकिन ईसाई के घर में रहे हुए उस लड़के को हिंदू धर्म में पुनः लेने के लिए प्रायश्चित की जरूरत थी। इसके लिए भी नाना ने शेषाद्रि को रुपये दिए और लड़के को काशी भेजकर शुद्धि का कर्म संपन्न कराया। इसके बाद नाना ने धर्म परिवर्तन का प्रश्न अंग्रेज़ शासकों के सामने उठाया। पाठ्य पुस्तकों में खिस्तानी धर्म पर जितने पाठ थे उनको हटाया गया। धर्म परिवर्तन का संकट केवल हिंदुओं पर ही नहीं, वरन् पारसी, मुसलमान आदि सब पर था इसलिए उन सब ने नाना की मदद की।

नाना भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों के लिए भी लड़े। उस जमाने में सेशन अदालत में बैठकर न्याय-निबटारा करने का अधिकार भारतीय लोगों को नहीं था। यह हक नाना ने सबसे पहले भारतीयों को प्राप्त कराया। १८५२ के अगस्त महीने में नाना ने बंबई के प्रमुख व्यक्तियों की एक सभा का आयोजन अपनी कोठी पर किया। इसमें लोगों के अधिकारों और तमाम राजनीतिक परिस्थितियों पर विचार विनिमय किया गया। उस समय कांग्रेस जैसी कोई संस्था न थी, जो भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ती। उसी वर्ष नाना शंकरशेट के सभापतित्व में बंबई के नागरिकों की एक सभा में बांबे एसोसिएशन की स्थापना हुई। यह संस्था जनता की शिकायतें हर प्रकार से दूर कराने के लिए लड़ती थी और भारत के लोगों को राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए कार्य करती थी। इस प्रकार देश में राजनीतिक आंदोलन की जन्मदात्री पहली संस्था की स्थापना हुई। लगातार बारह वर्ष तक नाना उसके अध्यक्ष रहे। फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तय्यबजी आदि नेताओं ने आगे चलकर उसे बांबे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन के नाम से संगठित किया। इसी संस्था के प्रयत्न से १८८५ में इंडियन नेशनल कॉग्रेस का जन्म हुआ।

१८५७ में भारत का पहला स्वतंत्रता-संग्राम हुआ था। इससे सारा वातावरण क्षुब्ध हो गया था। नाना के शत्रुओं को उन्हें कष्ट पहुंचाने का अवसर मिल गया। उन्होंने अफवाह फैलाई कि नानाजी सैनिकों को मदद देते हैं। इस पर लंबी जांच-पड़ताल चली। आखिर अंग्रेज़ अधिकारियों को नाना निर्दोष है लेकिन साल-डेढ़ साल नाना को बहुत परेशानी उठानी पड़ी। जमशेदजी बाटलीवाला अथवा कावसजी जहांगीर जैसे धनाढय व्यापारी तो नाना नहीं थे लेकिन उनका दिल बहुत बड़ा था। वह स्वयं बड़े विद्वान् नहीं थे, लेकिन विद्या की महत्ता जानते थे और उसको प्रोत्साहन देते थे। संस्कृत मराठी का अभिमान रखते हुए अखिल भारतीयता के भविष्य का विचार करके वह हिंदी भाषा के समर्थक थे।

अपने समय में निरंतर क्रियाशील रहने वाले और भविष्य के बारे में दूरगामी दृष्टि रखने वाले इस महापुरुष का ३१ जुलाई १८६५ को निधन हो गया |

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