रानी लक्ष्मीबाई के बारे में | रानी लक्ष्मीबाई की पूरी कहानी | रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध | Rani LaxmiBai

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रानी लक्ष्मीबाई | Rani LaxmiBai


रानी लक्ष्मीबाई भारत की उन वीरांगनाओं में से थीं, जिनका नाम स्वाधीनता और अपनी आन-बान पर मिटने के कारण इतिहास में अमर रहेगा। सन्
सत्तावन की क्रांति वास्तव में भारत का स्वतंत्रता
  युद्ध था सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में –

चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी।

 बुंदेले हरबोलों के मुंह
हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी।।

 

महारानी उस युद्ध का प्राण और प्रेरणा थीं। शत्रु भी उनकी
वीरता और गुणों की प्रशंसा करते थे। सर ह्यूरोज ने रानी की प्रशंसा में अपनी डायरी
में लिखा था
महारानी का उच्च कुल, आश्रितों और
सिपाहियों के प्रति उनकी असीम उदारता और कठिन से कठिन समय में भी अडिग धीरज उनके
इन गुणों ने रानी को हमारा एक अजेय प्रतिद्वंद्वी बना दिया था। वह शत्रु-दल की
सबसे बहादुर और सर्वत्रेष्ठ सेना-नायिका थीं।“

वह नारी थीं, पर युद्धनीति में प्रवीण थीं, सीने पर गोलियां
झेल सकती थीं
, युद्धक्षेत्र में
सिंहनी की तरह गरजती थीं। कोमल और सुंदर होते हुए भी उन्होंने वीरों के दांत खट्टे
कर दिए थे
, रण कौशल से
उन्हें आश्चर्य में डाल दिया था। वह एक पतिव्रता नारी और ममतामयी मां थीं। पति के
बाद उन्होंने उनके कर्तव्य को प्राण रहते निभाया। अपने दत्तक पुत्र दामोदरराव को
युद्ध के मैदान में भी वह अपनी पीठ के पीछे बांधे रहीं।

वह एक धर्मपरायणा नारी थीं, पर संकीर्णता
उन्हें छू तक नहीं गई थी। उनकी सेना में मुसलमान
, पठान सभी उनके
विश्वासपात्र थे। उनके नेतृत्व में हिंदू-मुसलमान कंधे से कंधा लगा कर लड़े। सर एडविन
ने इस विषय में लिखा है कि “रानी लक्ष्मबाई हिंदू-मुसलमान सिपाहियों के लिए बहादुर
रानी बोडीशिया (इंग्लैंड की लोकप्रिय रानी) थीं।“

आइए, आप को इस वीर रानी की कहानी सुनाएं :

यह उस जमाने की बात है जब कि पूना में पेशवा का बोलबाला था।
उनके यहां कृष्णराव तांबे नामक एक मराठा ब्राह्मण का लड़का था। वह पेशवाओं का बड़ा
विश्वासपात्र था। इसी ब्राह्मण का लड़का बलवंतराव तांबे पेशवा की फ़ौज में एक ऊंचे
पद पर अफसर था। उसके पुत्र मोरोपंत के घर हमारी कहानी की नायिका मनूबाई का जन्म
हुआ।

जब अंग्रेजों ने बाजीराव पेशवा को गद्दी से उतारकर चिमनाजी
अप्णा को गद्दी पर बैठाकर मनमानी करनी चाही तो स्वाभिमानी चिमनाजी मोरोपंत को लेकर
सपरिवार काशी आ गए। बनारस में ही
१९ नवंबर,१८३५ को लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। जन्मकुंडली मिलाकर
ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि इस कन्या की कुंडली में राजयोग है।

लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मणिकर्णिका या मनूबाई था वह अभी
चार वर्ष की ही थीं कि उनकी माता भागीरथीबाई का देहांत हो गया। मोरोपंत कन्या को
लेकर बाजीराव के पास बिठूर आ गए। मनूबाई बचपन से ही निडर
, चंचल और भोली, देखने में अति
सुंदर थीं। दरबार में सबकी प्यारी थीं।

प्यार से उन्हें सब छबीली कहते थे। मनूबाई का बचपन पेशवा के
दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ खेल-कूद में बीता। तीर चलाने
, घोड़ा दौड़ाने, तैरने, यहां तक कि
पढ़ने-लिखने में भी वह नाना से किसी बात में पीछे न थी। छुटपन से ही वह बड़ी
अभिमानिनी थीं
|

मनूबाई बहुत जल्द बढ़ने लगीं।
सात-आठ वर्ष की उम्र में ही उनका कद-काठ अच्छा
दिखने लगा। इन्हीं दिनों झांसी से दीक्षित नाम के
एक राज-ज्योतिषी दरबार में आए। मोरोपंत ने उनसे कन्या के लिए कोई वर बताने को कहा।
दीक्षितजी मनू की कुंडली से प्रभावित हुए। झांसी लौटकर उन्होंने झांसी के महाराज
गंगाधरराव से लड़की की प्रशंसा की। बस
, महाराज गंगाधरराव मनूबाई को ब्याहकर ले आए। ब्याह
के बाद मनूबाई का नाम बदलकर लक्ष्मीबाई पड़ा।

इन दिनों भारत की हालत बड़ी खराब थी। कंपनी सरकार का चारों
ओर बोलबाला था। कुछ रियासतों को छोड़कर सारे हिंदुस्तान कमज़ोर पड़ गई। पंजाब के
सिख
, बंगाल के नवाब और
महाराष्ट्र के पेशवा
, सभी घुटने टेक चुके थे। कोई न कोई बहाना बताकर या वारिस न
होने पर कई रियासतें कंपनी ने अपनी हुकूमत ली थीं। राज्यों के व्यक्तिगत मामलों
, यहां तक कि
मिलना-जुलना
, शादी-व्याह और
गोद लेने के मामलों में भी उन्हें कंपनी की रज़ामंदी लेनी पड़ती थी। गंगाधरराव भी
कंपनी सरकार के हाथों की कठपुतली बने हुए थे। उनके राज्य में कंपनी की सेना रहती
थी
, जिसका खर्च झांसी
राज्य को देना पड़ता था। पर गंगाधर ने ऐसे कठिन समय में भी प्रजा के हित को नहीं
भुलाया। राज्य को कर्जे से मुक्त किया। बागडोर कंपनी के हाथ में थी। दिल्ली के
बादशाह की हुकूमत में कर और सुविधा पर खर्च किया। राज्य में अच्छे कर्मचारियों को
नियुक्त किया। उनके दरबार
मे प्रजा के सुख के लिए विद्वानों का जमघट बना रहता था। झांसी के आसपास
के राज्यों में भी महाराज राव की बड़ी प्रतिष्ठा थी।

कुछ निश्चित होकर महाराज लक्ष्मीबाई को लेकर तीर्थयात्रा को
निकले। वहां से लौटने पर लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। राज्य भर में
दिवाली मनाई गई। गंगाधरराव ने सोचा – “अब मेरी झांसी डलहौजी के पंजे में जाने से
बच गई
, राज्य का वारिस
पैदा हो गया
| पर भगवान को कुछ
और ही मंजूर था। तीन महीने भी पूरे न होने पाए थे कि बच्चा चल बसा। अब महाराज को
चारों ओर अंधकार दीखने लगा। वह इस सदमे को सहन न कर सके। उन्होंने खटिया पकड़ ली।
मरने से
कुछ दिन पूर्व
उन्होंने अपने कुल के आनंदराव नाम के बालक को
शास्त्रानुसार गोद ले लिया। उसका
नाम दामोदरराव रखा गया। महाराजा ने कंपनी सरकार से प्रार्थना की कि दामोदरराव को
झांसी का वारिस स्वीकार किया जाए।

उनकी मृत्यु के बाद १८५४ में बड़े लाट साहब का फ़रमान आया
कि महाराज गंगाधरराव के दत्तकपुत्र को कंपनी नामंजूर करती है और झांसी को लावारिस
समझकर अंग्रेजी राज्य में मिला देने का हुक्म देती है। रानी के लिए साठ हजार रुपया
की पेंशन बांध देने और उसे किला छोड़कर शहर के महल में रहने का हुक्म हुआ।

जिस शक्ति के आगे पेशवाओं ने सिर झुका दिया, दिल्ली के बादशाह
कठपुतली बनकर रह गए
,
उसके आगे एक नारी भला क्या कर सकती थी ? कंपनी सरकार के
दमन-चक्र के आगे राजा-प्रजा जिसने भी सिर उठाने की कोशिश की
, उसे वहीं कुचल
दिया गया।

जनता के सब् की जब हृद हो गई तो विस्फोट हुआ। अठारह सौ
सत्तावन का स्वतंत्रता संग्राम इसी विस्फोट का परिणाम था। यह केवल सिपाही-विद्रोह
ही नहीं था-इसमें राजा
, रंक सभी शामिल थे। नाना साहब, तात्या टोपे, बहादुरशाह और
रानी लक्ष्मीबाई इस विद्रोह के प्राण थे। मेरठ
, दिल्ली, लखनऊ, बनारस, पटना और
बुंदेलखंड इसकी हलचल के केंद्र बने
हुए थे।

 

रानी लक्ष्मीबाई वैसे अपना अधिकांश समय पूजा-पाठ में बिताती
थी। पर उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि वह अपना शेष जीवन अनाथ विधवा की तरह न
बिताकर एक देशभक्त नारी की तरह बिताएंगी। इसी लिए वह तलवार चलाने और घुड़सवारी का
बराबर अभ्यास करती रहीं।

झांसी में ४ जून, १८५७ को हवलदार गुरुबख्शसिंह ने विद्रोह का झंडा
ऊंचा किया
| झांसी की हुकूमत
रानी लक्ष्मीबाई को सौंपकर वीरों का यह दल कंपनी सरकार से अधिकार छीन लेने के लिए विद्रोह
की चिनगारी फैलाता हुआ आगे बढ़ गया। विद्रोहियों ने उत्तेजित होकर झांसी में भी
हुछ हत्याकांड किया। पर इसमें
रानी का हाथ नहीं था।

स्वयं मार्टिन नाम के एक अंग्रेज ने, जो विद्रोहियों से बचकर निकल गया था, रानी के दत्तक पुत्र
दामोदरराव को लिखा था –“आप की माता के साथ बड़ी क्रूरता और अन्याय का बर्ताव हुआ।
उनके संबंध में सच्चा हाल जैसा मैं जानता हूं वैसा कोई नहीं जानता। अठारह सौ
सत्तावन के जून महीने में झांसी में यूरोपियनों का जो वध हुआ
, उसमें उन बेचारी
का कोई हाथ न था।“

लक्ष्मीबाई उन साहसी महिलाओं में से थी जो परिस्थिति के अनुकूल कार्य करने में कुशल होती है। उन्होंने बहुत-से
उतार-चढ़ाव देखे थे। एक गरीब ब्राह्मण के घर में जन्म लेकर राजरानी बनीं। पर किस्मत
ने फिर पलटा खाया
,
पुत्र मर गया, पति भी स्वर्ग सिंधार गए। कंपनी सरकार ने
सिंहासन अपने अधिकार में कर लिया
, पर रानी ने आशा नहीं छोड़ी। वह जागरूक रहीं।
आने वाली परिस्थितियों के अनुकूल अपने को बनाने के लिए प्रयत्नशील रहीं। जब राज्य
की बागड़ोर संभाली
,
तो सबसे पहले प्रजा के सुख-सुविधा की ओर ध्यान दिया। राज्य
की सुरक्षा के लिए सेना का संगठन और बारूद व तोपखाने की सुव्यवस्था की गई। वह बड़ी
शान और योग्यता के साथ शासन करती थीं। एक अंग्रेज सज्जन मि. टेलर ने इस विषय में
लिखा है “-रानी अपने पद के योग्य धैर्य और निश्चय-बुद्धि से काम करती थीं।“

उनके भव्य और आकर्षक व्यक्तित्व और वेशभूषा के विषय में मि.
गिलीन नामक लेखक ने अपनी पुस्तक में लिखा है – “रानी की कं
चुकी पर सुनहरी जरीदार कमरपट्टा बंधा रहता था।
उससे दमिश्क की बनी नक्काशीदार
, चांदीमढ़ी पिस्तौल लटकती रहती थी। उसी के पास
जहर-बुझा पेश-कब्ज भी रहता था। साड़ी के बदले वह ढीला पाजामा पहनती थीं। इस सुंदर
रानी को इस पोशाक में देखकर लोगों को किसी युवक का भ्रम होता था।“

रानी को गद्दी पर बैठे अभी केवल कुछ ही दिन हुए थे कि
सदाशिवराव ने अपने को गद्दी का हकदार बताकर करेरा नामक स्थान पर स्वयं को झांसी का
राजा घोषित कर दिया। इस विद्रोह को कुचलकर रानी अभी
निश्चित भी न हो पाई थीं कि ओरछा
के दीवान नत्थे खां ने बीस हजार सिपाहियों को लेकर झांसी पर हमला कर दिया। पर रानी
ने संगठन के बल पर विजय प्राप्त की।

अब तक तो कंपनी सरकार उत्तर भारत में गदर दबाने में लगी हुई
थी। उधर से नि
टकर जनरल ह्यूरोज
आदि सेनापतियों ने सोचा कि जब तक झांसी से रानी को निकाल बाहर न कर दिया जाएगा
, मध्य भारत में
बलवाइयों को कुचला नहीं जा सकेगा। कई
अंग्रेज़ अफसरों की तो यह राय थी कि गदर का गढ़ ही
झांसी है। अतएव सर हयूरोज की एक बड़ी सेना ने झांसी को आ घेरा। सेना के कूच का
समाचार जानकर अपनी राजधानी की रक्षा के लिए रानी ने भी तैयारी शुरू कर दी। झांसी
के आसपास का सारा हिस्सा इसलिए वीरान करवा दिया कि अंग्रेजों की फौज को दाना
, पानी और चारा न
मिल पाए। पर रानी का उद्देश्य पूरा न हो सका
, क्योंकि टीकमगढ़ के राजा और सिंधिया ने कंपनी
सरकार की सेना के लिए सभी सुविधाएं जुटा दी।

इस लड़ाई में रानी ने अपनी फौज की कमान संभाली। किले पर कुल
१५ तोपें थीं।
उनमें कड़क बिजली
,
घन गर्जन और भवानी शंकर नाम की तोपें विशेष उल्लेखनीय हैं।
रानी का विश्वासी (तोपची) गुलाम गौस खां एक बहुत बहादुर और दिलेर सिपाही था। सेना
में बीर बुंदेले और लड़ाकू अफगानी बहादुर भी थे। रानी रात-रात जागकर चारों ओर की
व्यवस्था की देखभाल स्वयं करती थी। जब-जब मोर्चे टूटे रानी ने खुद उन्हें संभाला।
खूब घमासान लड़ाई हुई। किले के प्रवेश-द्वार का रक्षक खुदाबख्श और तोपची गौस खां
मारा गया। बारूदघर में जब एक गोला आ पड़ा तो भयंकर धमाका हुआ। सैंकड़ों बहादुर
सिपाही रुई की तरह उड़ गए।

शहर में दुश्मनों की फौजों ने मार काट मचा रखी थी। प्रजा
त्राहि-त्राहि कर उठी
| रानी ने तात्या टोपे को सहायता के लिए बुलावा तो भेजा था, पर अंग्रेजों ने ऐसी कड़ी नाकाबंदी की कि बाहरी
सहायता पहुंचना असंभव हो गया। रानी दोनों हाथों में तलवार लेकर मुंह में रास पकड़
रणचंडी की तरह युद्धक्षेत्र में कूद पड़ी। बारह दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ। साधन घट
जाने पर सरदारों ने रानी को समझाया कि अब लड़ाई जारी रखना असंभव है।

झांसी शुत्रुओं के हाथ में छोड़कर जाना होगा – “इस विचार से
ही रानी को मर्मांतक पीड़ा हुई। उन्होंने विकल होकर अपने सिपाहियों से कहा – “आप
लोग अपनी रक्षा के लिए यहां से जा सकते हैं। मैं तो गोला-बारूद के ढेर पर बैठकर आग
लगा लूंगी
, पर जीते जी अपनी
झांसी छोड़कर नहीं जाऊंगी।“

अनुभवी सरदारों ने बार-बार समझाया कि स्वाधीनता युद्ध को
चालू रखने के लिए रानी का जीवित रहना जरूरी है। रानी ने भी सोचा – अब भविष्य में
केवल झांसी के लिए नहीं
, सारे भारत की स्वाधीनता के लिए युद्ध करूंगी। यह निश्चय कर
अपने दत्तक पुत्र को पीठ से बांध रानी झांसी से बाहर निकल गई। टूसरे दिन बचे हुए
सिपाहियों ने वीरता से लड़ते हुए प्राण दे दिए। अंधेरी रात में भागते-छिपते रानी
ने झांसी से २१
मील दूर भांडरे गांव में आकर विश्राम किया।

सर ह्यू को जैसे ही यह खबर मिली कि रानी निकल भागी हैं, उसने कुछ चुने
सिपाही उनका पीछा करने के लिए भेजे। जब यह दल भांडरे पहुंचा रानी उस समय भोजन कर
रही थीं। ज्यों ही उनकी नज़र दूर
से आते हुए अंग्रेज
घुड़सवारों पर पड़ी वह खाना-पीना छोड़
, बच्चे को पीठ पर बांध तुरंत घोड़े पर सवार हो गई। लेफ्टिनेंट वाकर ने रानी
का रास्ता रोक लिया। रानी ने तलवार का एक वार 
किया। वाकर जमीन पर औंधा आ गिरा। मौका देखकर रानी ने घोड़े को सरपट
दौड़ाया। सौ मील घोड़े को सरपट दौड़ाती हुई वह रात के
१२ बजे कालपी के किले के फाटक पर जा पहंचीं। उस
समय नाना साहब के भाई रावसाहब किले में थे उन्होंने रानी का स्वागत किया। कालपी का
किला एक सुदृढ़ किला था। वहां सेना और युद्ध की सामग्री भी काफी थी। कमी केवल इस
बात की थी कि वहां कोई संगठनकर्ता नहीं था ऐसी आशा जागी कि रानी के आ जाने से वह
कमी भी पूरी हो जाएगी और सब को बड़ी खुशी हुई। फिर तो वहां बांदा के नवाब और
बानपुर के राजा भी अपनी-अपनी सेना लेकर सहयोग देने के लिए आ पहुंचे।

रानी संगठन, मोर्चाबंदी और व्यवस्थापूर्ण ढंग से काम करने
का महत्व समझती थी। पर रावसाहब आदि सहयोगियों ने संस्कारवश स्त्री की अधीनता में
रहकर काम करना अपनी शान के विरुद्ध समझा। इसका नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों की सेना
के संग कालपी से कुछ दूर जब कोंच नामक स्थान पर सेना की मुठभेड़ हुई तो सही
नेतृत्व के अभाव में कालपी की सेना हारकर पीछे हटी। रानी की सलाह फिर अनसुनी कर दी
गई
|

असहयोग हो जाने पर भी रानी अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटीं।
वह
२५० घुड़सवारों को
लेकर यमुना की तरफ रक्षा का भार संभाले रहीं। पर रावसाहब की असंगठित सेना पर जब
पीछे से शत्रु सेना ने हमला बोल दिया तो उनके छक्के छूट गए
, भगदड़ मच गई।
मैदान हाथ से जाता देखकर रानी ने एकदम बिजली की तरह टूटकर तोपखाने पर हमला कर
दिया। शत्रु के तोपची घबराकर भागने लगे। पर नई सेना आ जाने से शत्रु फिर डट गए। यह
देखकर पेशवा की सेना भाग खड़ी हुई। कालपी छोड़कर रावसाहब के साथियों ने ग्वालियर
से
४६ मील दूर
गोपालपुर में आकर आश्रय लिया। तब तक तात्या टोपे भी इस दल में आकर मिल गए। यहां सब
मिलकर भी कुछ तय नहीं कर पा रहे थे कि आगे क्या किया जाए
, पर बहाटुर रानी
यहां भी बाजी मार ले गई। उन्होंने कहा – “कालपी का ही भरोसा था
, वह हाथ से निकल
गईं। जब तक युद्ध के लिए सामग्री
, सुदृढ़ किलाबंदी की व्यवस्था नहीं होती, अंग्रेजों का
मुकाबला करना असंभव है। इस समय हमारे सामने बस एक ही रास्ता है कि ग्वालियर पर
कब्जा कर लिया जाए। चाहे महाराजा जयाजीराव और उनके मंत्री
अंग्रेज़ो के भक्त हैं. पर सेना
उनसे विमुख है।“

एकमत होकर ग्वालियर की ओर सबने कूच कर दिया। रावसाहब इसी
ख्याल में रहे कि पेशवा के अधीन राजा होने के कारण सिंधिया उनका स्वागत करेगा। इसी
ख्याल में वे लोग बेखवर थे कि सिधिया ने अचानक उन पर हमला कर दिया। सेना में भगदड़
मच गई। रानी भला अपनी योजना कैसे विफल होने देती। वह सिंहनी की तरह तड़प उठीं।
अपने ढाई सौ विश्वासी सैनिकों को लेकर उन्होंने सिंधिया के तोपखाने पर हमला बोल
दिया। रानी की यह हिम्मत देखकर युवक जयाजीराव भी तिलमिला उठा। दोनों ओर से जमकर
लड़ाई हुई। रानी देश की स्वतंत्रता और आन पर मिटने के लिए लड़ रही थीं
, जबकि जयाजीराव
अंग्रेज सरकार से वाहवाही लूटने के लिए। रानी ने दुर्गा का रूप धारण किया और शत्रु
की सेना में भगदड़ मच गई। ठीक समय पर दूसरी ओर से तात्या टोपे ने भी हमला कर दिया।
सिंधिया दो पाटों के बीच में आकर धौलपुर की ओर भागा और आगरा पहुंच कर अंग्रेजों की
सुरक्षा में जाकर उसकी जान में जान आई।

ग्वालियर का किला हाथ में आ गया। नाना साहब को पेशवा घोषित
किया गया। किला
, और खजाना पाकर और
अधिकार से मदमस्त होकर सब बेफिक्र हो गए और उत्सव तथा राग-रंग में आने वाले खतरे
को भूल गए। विजय-रंग में चूर मुखिया यही सोच बैठे कि पूर्ण स्वराज्य मिल गया। रानी
यह सब देखती और अफसोस करती।

इधर अंग्रेजों ने अपनी तैयारी पूरी कर ली। सर ह्यूरोज और
कर्नल नेपियर के नेतृत्व में अंग्रेजों की सेना ने मुरार पर कब्जा कर लिया।
रावसाहब के आदमी अभी जलसों की थकावट ही दूर कर रहे थे कि शत्रु सेना ने बेखबर सेना
पर हमला बोल दिया। अब सबकी आंखें खुलीं
, पर हो क्या सकता था ? जीती हुई बाजी
हाथ से निकल चुकी थी। रानी अपने अरमान और मनसूबों को इस प्रकार मिटते देख कलपकर रह
गई।

रावसाहब को इस बात का बड़ा घमंड था कि वह नाना के वंशज है।
भला एक स्त्री को सेना संचालन का भार वह क्यों सौंपने लगे। रानी ने अपनी ओर से
पूरी सावधानी बरती। ग्वालियर को आने वाले सभी मागों पर सेना की टुकड़ियां तैनात कर
दी। पूर्व की ओर का रक्षा-भार उन्होंने खुद संभाला। मर्दों का बाना धारण कर सैनिक
वेश में वह सधे हुए तेज घोड़े पर सवार हुई। अपने विश्वासी अंगरक्षकों और मंदवरा तथा
काशी नाम की युद्ध प्रवीण सखियों को साथ में लेकर वह युद्धक्षेत्र में उत
री

दोनों ओर से तलवारो की आवाज आने लगी । गोलों की आवाज़, मारो-काटो के
स्वर
, घोड़ों की
हिनहिनाहट और रणभेरी से युद्धक्षेत्र गूंज उठा। प्यासी धरती खून से सिंच गई।
महारानी के व्यूह को भेदकर आगे बढ़ना सेनापति सर ह्यूरोज की सेना के लिए असंभव
गया। रानी के वफादार पठान सिपाहियों ने अंग्रेजों की सेना के छक्के छुड़ा दिए। पर
शत्रुओं की सेना का संचालन बहुत सुंदर था। तुरंत ही सहायक सेना के आ पहुंचने से
शत्रु नए जोश से आगे बढ़े। रानी ने जब अपनी सेना को पीछे हटते देखा तो तड़प उठी।
हुंकार भरकर खुद आगे बढ़ी। कमजोर पड़े सिपाहियों की हिम्मत बंध गई और उन्होंने जोर
से हमला किया। ब्रिगेडियर स्मथ को दूसरी ओर मुड़ता देखकर रानी ने उसका मार्ग रोक
लिया। सूर्यास्त होने को था। रानी को अजेय समझ अंग्रेज पीछे हटे और उस दिन विजय का
सेहरा रानी के सिर बंधा। पर रानी का प्यारा घोड़ा इस युद्ध में बुरी तरह घायल हो
गया।

दूसरे दिन भी घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर के काफी जवान मारे
गए। तीसरे दिन ह्यूरोज ने जोरदार तैयारी करके हमला किया। रानी की टुकड़ी को बचाकर
उसने रावसाहब की टकडी पर जोरदार चोट की। रावसाहब के एक के बाद एक दोनों मोर्च तोड़
दिए गए। सेना संचालन
ढिला होने के कारण
सेना संगठन
टूट गया। पेशवा की
फौज के पांव उखड़ गए। हिम्मत करके रानी आगे बढ़ीं पर अंग्रेजों की फौज ने उन्हें
घेर लिया। दोनों हाथों में तलवार लेकर वह शत्रुओं के बीच में रणचंडी की तरह दिखाई
पड़ीं। उनकी तलवार के आगे जो भी शत्रु आया
, यमलोक सिधारते उसे देर नहीं लगी। शत्रु कुछ देर
के लिए तो चकित रह गए। मौका देखकर रानी अपने दस-बारह साथियों के साथ शत्रु के घेरे
के बाहर निकल गई। जब कर्नल स्मिथ को पता चला कि रानी घेरे से बाहर निकल गई है तो
उसने चुने हुए कुछ सवारों की टुकड़ी को उनका पीछा करने के लिए दौड़ाया। रानी घोड़े
पर दौड़ी जा रही थीं। उनके संग उनकी दोनों बिश्वासी सहेलियां भी थीं
| दोनों ओर से गोलियां दागी जा रही थीं। रानी के
भी एक गोली पांव में लगी पर उस बीरांगना ने हिम्मत नहीं छोड़ी। तलवार थामे घोड़ा
दौड़ाती ही गईं। घोड़े पर पीछे बालक दामोदरराव भी था। इतने पर भी रानी ने शत्रुओं
को पास नहीं फटकने दिया। रानी ने अपने बचाव के लिए एक सिपाही पर प्रहार किया कि
इतने में उन्हें अपनी प्रिय सखी की चीख सुनाई पड़ी। रानी ने घूमकर उस अंग्रेज घातक
का सिर उड़ा दिया। रानी ने फिर आगे घोड़ा दौड़ाया
, पर शत्रु पीछा
करते चले आ रहे थे। सामने एक नाला था
, रानी का सधा हुआ
घोड़ा पहले ही दिन के युद्ध में घायल हो गया था। यह नया घोड़ा था। नाले को देखकर अड़
गया। रानी के कुल पांच-छः साथी बचे थे। मोर्चा बनाकर वे कुछ देर लड़े पर पीछे से
एक अंग्रेज सवार ने रानी के सिर पर तलवार से एक वार किया और दूसरा सीने पर।
मरते-मरते भी रानी ने उस अंग्रेज सवार को खत्म कर ही दिया। उधर और लोग शत्रुओं को
उलझाए रहे
, इधर रानी के
विश्वासी अंगरक्षक रामचंद्राव ने रानी का श
पास की एक कुटिया में रखकर चिता में आग लगा
दी। अठारह सौ सत्तावन की जितनी विभूतियां हुई उनमें से रणक्षेत्र में लड़कर वीरगति
पाने वाली केवल रानी लक्ष्मीबाई ही थी। उनकी आयु भी बहुत कम यानी २३ साल थी। एक
स्त्री के लिए यह सचमुच बहुत गौरव की बात थी। इस साहसी महिला का नाम हमारे देश के
इतिहास से कभी मिट नहीं सकता। सुभद्रा कुमारी के शब्दों में –

रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी ।

अभी उम्र केवल तेइस थी, मनुज नहीं अवतारी
थी
,

हमको जीवित करने आई, बन स्वतंत्रता-नारी थी |

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,

बुंदुले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी बाली रानी थी ।।

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