भगवान दास | Bhagwan Das

Table of Contents (संक्षिप्त विवरण)

भगवान दास का जीवन परिचय

Bhagwan Das Biography

भगवानदास भारत के उन गिने-चुने दार्शनिकों ने से थे, जिन्होने भारतीय दर्शन परंपरा को एक नवीन एवं समृद्ध रूप दिया। इस महापुरुष ने अपना संपूर्ण जीवन स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सेवा के ऐसे कार्यों में बिताया, जिससे मानव-मात्र का कल्याण संभव था। वास्तव में, वह हमारे युग के एक महर्षि और सच्चे देशभक्त थे | यों तो, उनके सभी लोकोपयोगी कार्य सदैव अमर रहेंगे, पर उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण सेवाएं बौद्धिक रही हैं। हिंदी, अंग्रेजी तथा संस्कृत में दर्शन और साहित्य पर अनेक अमूल्य ग्रंथ लिख कर उन्होंने मानव जाति का बड़ा उपकार किया है।

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अनुक्रम (Index)[छुपाएँ]

भगवान दास का जीवन परिचय

भगवान दास का जन्म

भगवान दास की शिक्षा

भगवान दास जी का विवाह व पारिवारिक विवरण

संक्षिप्त विवरण(Summary)

भगवान दास जी के कार्य

काशी विद्यापीठ की स्थापना

भगवान दास और थियोसोफिकल सोसायटी

डॉक्टर ऑफ लिटरेचर व भारत रत्न उपाधि

भगवान दास जी और स्वराज्य व्यवस्थापिका संघ

भगवान दास जी की मृत्यु

डा०भगवानदास का जन्म १२ जनवरी, १८६९ को उस काशी नगरी के एक संपन्न वैश्य परिवार में हुआ था, जिसे प्राचीन काल से हिंदुओं का एक अत्यंत पवित्र तीर्थस्थान होने का गौरव प्राप्त है। यह स्थान संस्कृत विद्या, दर्शन तथा हिंदू संस्कृति के वैभव के लिए प्रसिद्ध है। भारत भूमि के प्रायः सभी महापुरुष-बुद्ध से लेकर मालवीय जी तक-यहां कुछ समय तक अवश्य रहे हैं।

डा० भगवानदास की प्रारंभिक शिक्षा काशी में हुई। उनकी माता जी स्वयं शिक्षा के पवित्र वातावरण में रह चुकी थीं, अत: लड़कपन में ही उन पर मातृ संस्कार का अमिट प्रभाव पड़ा। कहते हैं कि बालक को शिक्षित, महान तथा धार्मिक बनाने में सबसे बड़ा हाथ माता का होती है। डा० भगवानदास की उदाहरण भी इसी ढंग का है। माता के अतिरिक्त डा० भगवानदास की दादी भी बड़ी धर्मपरायण और विदुषी थीं। वह उन्हें नित्य-प्रति पुराण, रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाया करती थीं। उन्हीं की मृत्यु ने डा० भगवानदास को दर्शन की ओर अग्रसर भी किया। चूंकि दादी को वह बहुत मानते थे, इसलिए उनकी मृत्यु से उन्हें बड़ा चोट लगी और उनके सामने इस बात का प्रमाण उपस्थित हो गया कि मनुष्य मरणशील है तथा संसार, सुख-दुख की आंख-मिरचौली है। उसी क्षण से उन्होंने जीवन और मृत्यु के प्रश्न पर विचार करना प्रारंभ कर दिया। ईश्वर की लीला को जानने की इच्छा से उन्हें बेचैन कर दिया। आत्मा के बारे में उठने वाली शंकाओं के कारण उनका मन खिन्न हो उठा।

दसवीं कक्षा तक उन्होंने क्वींस कालेज से संबंधित स्कूल में शिक्षा पाई और उसके पश्चात कलकत्ता चले गए। वहीं उन्होंने अंग्रेजी तथा दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया |

जब डा० भगवानदास का विवाह हुआ, वह कालेज में पढ़ रहे थे, उन्हें पत्नी भी बड़ी सुशील और सात्विक विचारों की मिली। अपनी पत्नी से उन्हें कभी कोई शिकायत नहीं रही। प्रेम और आदर्शवाद का पाठ उन्होंने उन्हीं से सीखा। यह उनके जीवन की एक बड़ी सफलता थी। भगवानदास जी तो सदैव ईश्वरमय रहते ही थे, उनकी पत्नी भी ईश्वर में पूर्ण आस्था रखने वाली मिली। एक आदर्श हिंदू नारी की तरह उन्होंने सदैव पति को देवता माना और उनकी सेवा में संलग्न रहीं। डा०भगवानदास के दो सुयोग्य पुत्र थे। एक श्रीप्रकाश जी और दूसरे चंद्रभाल जी। इन दोनों ही महानुभावों पर अपने माता-पिता के आदर्श, सरल तथा धार्मिक जीवन की पूरी छाप पड़ी और अपना अधिकांश जीवन इन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लेने में बिताया ।

संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
भगवान दास जीवन परिचय
पूरा नाम भगवान दास
जन्म तारीख १२ जनवरी, १८६९
जन्म स्थान काशी (उत्तरप्रदेश)
धर्म हिन्दू
संतान २ पुत्र, श्रीप्रकाश जी,
चंद्रभाल जी
माता का कार्य गृहणी
शिक्षा प्रारम्भिक शिक्षा(काशी),
दसवीं (क्वींस कालेज के स्कूल),
अंग्रेजी तथा दर्शनशास्त्र (कलकत्ता)
कार्य तहसीलदार, डिप्टी कलेक्टर,
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के
निर्माण मे सहयोग,
काशी विद्यापीठ की स्थापना,
थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य,
सेंट्रल हिंदू कालेज के अवैतनिक मंत्री,
केंद्रीय धारासभा के सदस्य
मृत्यु तारीख १८ सितंबर, १९५८
उम्र ९० वर्ष
मृत्यु की वजह सामान्य
लेख अंग्रेजी साहित्य, दर्शन पर लगभग दो दर्जन पुस्तकें
,समन्वय(ग्रंथ), पुरुषार्थ (ग्रंथ) ,
सर्वधर्म समन्वय(एसोशियल
यूनिटी ऑफ आल रेलिजंस)
उपलब्धिया डॉक्टर ऑफ लिटरेचर उपाधि(१९३६) ,
भारत रत्न(१९५५)

भगवानदास जी ने प्रारंभ में तहसीलदार तथा डिप्टी कलेक्टर आदि पदों पर कार्य किया। फिर, भारत के महान दार्शीनिकों की भांति वह संयोगवश दार्शनिक बन गए। वह कभी दर्शनशास्त्र के अध्यापक नहीं रहे, पर आगे चलकर इतने बड़े दार्शनिक बने कि सारा संसार उनके समक्ष नतमस्तक हो गया। भगवानदास जी दर्शन का उद्देश्य मानव मात्र का आध्यात्मिक विकास मानते थे और इसके लिए शिक्षा प्रसार की अनिवार्यता पर जोर देते थे यहीं कारण था कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण में उन्होंने मालवीय जी का दाहिना हाथ बन कर काम किया। उनकी अथक, अमूल्य एवं अमर सेवाओं के लिए यह विश्वविद्यालय निस्संदेह उनका सदैव आभारी रहेगा।

उनकी सेवाओं के कारण ही इस विश्वविद्यालय के एक छात्रावास का नाम “डा० भगवानदास छात्रावास” रखा गया। हिंदू विश्वविद्यालय के अलावा काशी में एक और शिक्षा संस्था को जन्म देने में भगवानदास जी ने अथक मेहनत की। बाबू शिवप्रसाद गुप्त के सहयोग से उन्होंने काशी विद्यापीठ की स्थापना की। कुछ समय तक वह इस संस्था के प्रिंसिपल भी रहे | महात्मा गांधी द्वारा स्थापित “गुजरात विद्यापीठ” की भांति इस विद्यापीठ से भी हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को बहुत प्रेरणा मिली। इस संस्था ने नवीन शिक्षा पद्धति अपना कर ऐसे विद्यार्थियों को जन्म दिया, जो आगे चल कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी बने।

डा० बी.वी.केसकर, पं० कमलापति त्रिपाठी, हरिहरनाथ शास्त्री, लालबहादुर शास्त्री आदि नेता इसी विधापीठ की देन हैं फिर, आचार्य नरेंद्रदेव, संपूर्णानंद, श्रीप्रकाश आदि विद्या विशारद इस विद्यापीठ के अध्यापक रह चुके हैं। वास्तव में, काशी विद्यापीठ डा०भगवानदास के स्वप्नों तथा आदर्शों का उज्जवल प्रतीक है।

जब डा०एनी बेसेंट ने भारत में “थियोसोफिकल सोसायटी” की स्थापना की, तो दार्शनिक प्रवृत्ति होने के कारण भगवानदास जी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। कुछ ही समय पश्चात वह उसके सदस्य बन गए और उसके फलने-फूलने में भरसक सहयोग किया।

डा० भगवानदास सभी धर्मों की एकता के अनन्य पुजारी थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि सभी धर्म सत्य की शिला पर आधारित होने के कारण ईश्वर प्राप्ति के साधन हैं अपने इस विश्वास को रचनात्मक स्वरूप देने के लिए उन्होंने “सर्वधर्म समन्वय” (एसोशियल यूनिटी ऑफ आल रेलिजंस) नामक पुस्तक भी लिखी, जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस पुस्तक के द्वारा सभी धर्मों में समन्वय कराने का उन्होंने प्रयास किया है। हठधम्मियों तथा कट्टरपंथियों की असाध्य बीमारी के लिए तो यह पुस्तक मूल संजीवनी ही सिद्ध हुई है।

अंग्रेजी साहित्य और दर्शन पर लगभग दो दर्जन पुस्तकें डा० भगवानदास ने लिखा जो आज भी देश-विदेश में उनके यश का विस्तार कर रही हैं। हिंदी में उन्होंने दर्शन संबंधी दो महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे-“समन्वय” और “पुरुषार्थ” । साहित्य के बारे में भी अपने मौलिक विचारों को उन्होंने कुछ पुस्तकों के रूप में प्रस्तुत किया।

शिक्षा, दर्शन, राजनीति, साहित्य और राष्ट्रभाषा हिंदी की सेवाओं के उपलक्ष्य में वह १९१६ में संयुक्त प्रांतीय राजनीतिक-सामाजिक सम्मेलन के अध्यक्ष बनाए गए फिर १९२१ में वह हिंदी साहित्य सम्मेलन के कलकत्ता अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत हुए | सेंट्रल हिंदू कालेज के अवैतनिक मंत्री पद पर उन्होंने १९०९ से १९१४ तक कार्य किया। देश-सेवा की प्रवित्ति में योगदान करने के कारण एक वर्ष उन्हें जेल में भी बिताना पड़ा। १९३५ से १९३८ तक यह केंद्रीय धारासभा के सदस्य रहे। धर्म उन्हें आजीवन प्रिय रहा। वृद्धावस्था में भी वह देश सेवा के कामों से पीछे नहीं हटते थे। उनका विचार था कि सच्चा संन्यास कर्म त्यागने में नहीं, वरन उसके फल की इच्छा न करने में है।

दर्शनशास्त्र बड़ा नीरस विषय समझा जाता है और प्राय: लोग दार्शनिकों को पागल समझते हैं। कितु भगवानदास जो में यह बात नहीं थी। वह काफी हसमुख थे। उनके भाषणों में भी शांति, बोर और हास्य रस का अच्छा समावेश होता था। उनका मत था कि दर्शनशास्त्र मोक्ष का साधन और जीवन की सारी समस्याओं को सुलझाने की कुंजी है। जिस समाज के जैसे दार्शनिक विचार होंगे, वैसे ही उसके सामाजिक नियम, संस्कार, विधान, शासन पद्धति, आदि भी होंगे। स्थान और समय के भेद से सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन भले हो जाएं, किंतु मूल सिद्धांत सदैव अटल रहते हैं। अपनी इस मान्यता के अनुसार ही उन्होंने पश्चिमी और पूर्वी दर्शनों का समुचित समन्वय किया जो समकालीन भारतीय दर्शन को उनकी एक महान देन है।

डा० भगवानदास की प्रतिभा ने शास्त्रार्थं का कलेवर भी पूरी तरह बदल दिया। वह प्राचीनतम आर्ष वचनों का ही ऐसा अर्थ लगाते थे, जो नए देश, काल, पात्र, निमित्त, आदि के लिए तो उपयुक्त होता ही था, प्राचीन भाव से भी मेल खाता था यही कारण है कि उनके ग्रंथ नवीन का प्रतिपादन करने पर भी प्राचीन और प्राचीन के अनुशासन में रहने पर भी नवीन तथा मौलिक जान पड़ते हैं। वह कहा करते थे कि “सत्य एक है – विद्वान चाहे उसे कितनी ही तरह से व्यक्त करें।“

डॉ० भगवानदास की स्मरणशक्ति अद्भुत थी। संस्कृत के अनेक श्लोक उन्हें कंठस्थ थे। अवसर पड़ने पर वह श्रुति, स्मृति और पुराण आदि के अवतरण तुरन्त पेश कर देते थे। पर विद्वान होते हुए भी वह सांसारिक व्यवहार में कुशल थे। उनकी इस महानता का कारण उनका देशन संबंधी प्रगाढ़ ज्ञान ही कहा जा सकता है। वह उन थोड़े से व्यक्तियों में थे, जिन्हें विद्या का अजीर्ण नहीं होता, जो अपने उपार्जित ज्ञान को पचा सकते हैं। उनके विचारों में स्थिरता और स्पष्टता कूट-कूट कर भरी थी। उनकी इस विद्वत्ता के कारण ही काशी हिंदू विश्वविधालय ने १९२९ में और प्रयाग विश्वविद्यालय ने १९३७ उन्हें “डॉक्टर ऑफ लिटरेचर” की उपाधि से सम्मानित किया।१९५५ मे उन्हे भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया |

सत्ता या अधिकार प्राप्त करने का लोभ भगवानदास जी में बिलकुल ही नहीं था वह केवल काम करने में विश्वास करते थे, फल प्राप्ति में नहीं। एक बार बनारस म्युनिसिपल बोर्ड के समय कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने उनसे कहा कि वह भी चुनाव के लिए खड़े हो। चुनाव पर उन्होंने यह प्रस्ताव अमान्य कर दिया और कहा – “यदि जनता को मेरी आवश्यकता होगी, तो वह स्वयं मुझे चुन लेगी।“ हुआ भी ऐसा ही वह सर्वसम्मति से म्युनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन बनाए गए। इस पद पर रह कर उन्होंने काशीवासियों की इतनी सेवा की कि वहां का कोई भी नागरिंक उन्हें कभी नहीं भूल सकता।

डा० भगवानदास को अध्ययन और डायरी लिखने का विशेष शौक था। वह वृद्धावस्था में भी अधिक विश्राम नहीं करते थे, पुस्तकों में लीन रहते थे | फिर जिस किसी भी व्यक्ति से वह मिलते थे, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, उससे हुई बातचीत को अपनी डायरी में अवश्य नोट कर लेते थे।

डा० भगवानदास अपने सिद्धांत पर दृढ़ रहने वाले व्यक्ति थे। जो विचार उनकी बुद्धि और विवेक की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, उनका वह निर्भीकता से विरोध करते थे। युद्ध के समय एक प्रसिद्ध संत द्वारा किए गए यज्ञों का उन्होंने पुस्तक लिख कर तीव्र विरोध किया था। इसी प्रकार, राजनीति में उन्होंने आदर्शवाद की परंपरा का सदैव समर्थन किया। पहले जब “स्वराज्य व्यवस्थापिका संघ” की स्थापना हुई और “स्वराज्य” शब्द की व्याख्या की गई, तब वह उससे सहमत नहीं थे। उन्होंने कांग्रेस के नेताओं के सामने अपने विचार रखे और गांधी जी से काफी विचार-विमर्श किया, किंतु उस समय उनके विचारों को पसंद नहीं किया गया। अंत में, जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पास किया, तब उनके विचारों की सत्यता प्रकट हुई।

इस महामानव का १८ सितंबर, १९५८ को देहावसान हुआ। उस समय उनकी अवस्था लगभग ९० वर्ष की थी।

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