गुरु नानक देव जी की वाणी | गुरु नानक देव जी की कहानी | गुरु नानक के उपदेश | Guru Nanak Ke Updesh | Guru Nanak Ka Jivan Parichay

गुरु नानक देव जी की वाणी | गुरु नानक देव जी की कहानी | गुरु नानक के उपदेश | Guru Nanak Ke Updesh | Guru Nanak Ka Jivan Parichay

सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव का जन्म सन् १४६६ ई. में जिला शेखूपुरा (अब पश्चिमी पाकिस्तान) में तलवण्डी नामक गांव में हुआ । आगे चलकर इस स्थान का नाम ननकाना साहिब पड़ा, और अब यह गुरु जी के अनुयायियों के लिए तीर्थ-स्थान है ।

उनके जन्म के समय, पन्द्रहवीं शताब्दी में, भारत का धार्मिक भविष्य धुँधला था । उन्होंने सात वर्ष की आयु में गाँव की पाठशाला में प्रवेश किया और उस समय प्रचलित बोलियों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया । ये प्रतिभावान बालक थे । ईश्वर के सम्बन्ध में गूढ़ सच्चाइयों की व्याख्या के लिए अपनी बावन अक्खरी में प्रदर्शित वाक्पटुता पर उनके अध्यापक विस्मित थे । उनमें असाधारण आध्यात्मिक प्रवृत्ति पाई जाती थी । वे सांसारिक व्यस्तताओं से विरक्त तथा पारिवारिक दौड़-धूप से अलग होकर निरन्तर कई-कई दिनों तक ध्यान लगाकर बैठे रहते ।

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उन्नीस वर्ष की आयु में लाला मूलचन्द की पुत्री सुलखनी से उनका विवाह हो गया, लाला मूलचन्द वर्तमान गुरदासपुर जिले के बटाला नगर के निवासी थे । उनका पारिवारिक जीवन सुखद रहा और उनके श्रीचन्द तथा लक्ष्मीचन्द नामक दो पुत्र हुए ।

श्रीचन्द अलौकिक बालब्रह्मचारी बना, किन्तु लक्ष्मीचन्द में पितृभक्ति का तथा अपने पिता के उद्देश्यों के प्रति प्रेम का अभाव था । ईश्वरीय सन्देश प्राप्त होने पर गुरु जी ने इसे संसार-भर में प्रचारित करने का निश्चय किया । उन्होंने उत्तर में काश्मीर से लेकर दक्षिण में लंका तक सारे भारत की यात्रा की । उन्होंने अफगानिस्तान, बर्मा, स्याम, तुर्की, रूस, अरेबिया आदि अनेक देशों की यात्रा की, तथा वे मक्का भी गए । वे पाक पत्तन में सूफी संस्थान तथा रावलपिण्डी के निकट हसनबदाल भी गए ।

अपनी इन यात्राओं में उन्होंने जाति-पांति के भेदभाव से ऊपर उठकर लोगों के हृदयों में सत्य को प्रकाशित किया । लोग उनके मधुर भजनों को ध्यान से सुनते और उनके उपदेशों का पालन करते । वे उनके द्वारा कठोरतापूर्वक नियमों के पालन पर बल देते थे । अन्ततः वे करतारपुर में बस गए तथा उन्होंने नियमीत धार्मिक-जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया । पौ फटने से पूर्व ‘जपु जी’ तथा ‘आसा दी वार’ का पाठ होता और तत्पश्चात् अन्य भजन गाए जाते । सायंकाल ‘रहिरास’ के पाठ के पश्चात् ‘आरती’ का गान होता । रात्रि को सोने से पूर्व ‘कीर्तन सोहिला’ का पाठ होता ।

उनके शिष्य उनके उपदेशों के प्रकाश में जीवन व्यतीत करते । उनके शिष्यों में एक लेहह्ना नामक त्रेहन उपजाति का खत्री था । उसने गुरु जी को बहुत प्रभावित किया, और आगे चलकर उनके धर्म प्रचार को अपने हाथ में लिया । गुरु जी ने उसका नया नाम अंगद रखा, जिसका अर्थ है उनके अपने शरीर का अंग । उन्होंने सत्य, शान्ति तथा अमर जीवन के दाता सर्वशक्तिमान् परमात्मा की निरन्तर पूजा का सन्देश दिया । जो व्यक्ति सत्य का आश्रय लेते हैं वे इसमें अपनी सभी कठिनाइयों का उपचार पा लेते हैं ।

गुरु नानक की वाणी


उन्होंने पवित्रता को वास्तविक धार्मिक जीवन की सर्वोच्च परीक्षा माना तथा कहा – जो सत्य की खोज करता है, सन्तोष का व्रत रखता है, ध्यान के सरोवर में स्नान करता है, सहानुभूति को अपना ईश्वर बनाता है, क्षमा को अपनी जयमाला बनाता है, – वह ईश्वर का कृपा पात्र बनता है ।

आगे उनका कथन है – संयम की लंगोटी पहनो, अपने गिर्द यथार्थ इच्छाओं का वृत्त खींचो, अपने माथे पर अच्छे कर्मों का टीका लगाओ तथा भक्ति का भोजन करो । कोई बिरला ही उचित कार्य के आनन्द को अनुभव करता है ।

और उन्होंने कहा – जो असत्य बोलता है वह गंदगी खाता है । जो स्वयं भ्रम में पड़ा हुआ है, वह दूसरों को सत्य बोलने का उपदेश कैसे दे सकता है । ऐसे नेता का नेतृत्व भ्रामक ही होता है । उन्होंने मनुष्य को उसके ईश्वर के प्रति, और मनुष्यों के प्रति तथा स्वयं अपने प्रति कर्तव्यों का उपदेश दिया । उन्होंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए श्रद्धा सहित ‘नाम’ जपने पर बल दिया । जीवन भर उन्होंने लोगों को धर्म का उपदेश तथा ज्ञान का प्रकाश दिया । वे एक धार्मिक तथा समाज-सुधारक थे, उन्होंने हिन्दुओं को पाखण्ड के बन्धनों से मुक्त करवाने का प्रयास किया । उन्होंने मनुष्यों के विचारों को हिन्दुओं के रूढ़िगत रीति-रिवाजों को जटिलताओं से मुक्त किया । उन्होंने जाति-पांति की निन्दा की, और मनुष्य द्वारा उत्पन्न भेद-भावों को व्यर्थ तथा निस्सार बताया । उन्होंने मूर्खतापूर्ण रीति-रिवाजों को व्यर्थता को उद्घाटित किया । उन्होंने जाति-पांति का विरोध किया तथा सामाजिक विशेषाधिकारों की समाप्ति का समर्थन किया ।

गुरूनानक जी ने बताया कि मुल्ला तथा ब्राह्मण धर्म के क्षेत्र में उचित मार्ग दर्शन नहीं करते, तथा सच्चाई तीर्थ-यात्राओं एवं श्राद्धों से प्रवर है । उन्होंने इस तथ्य पर बल दिया कि ईश्वर के प्रति श्रद्धा और अच्छे कर्मों के द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है । उन्होंने छल, कपट अथवा पाखण्ड का प्रबल विरोध किया । उनका कथन है- “शुभ शकुन अज्ञान की उपज है ।“ भविष्य की गति को कोई नहीं जानता । ज्योतिष तथा जन्म-पत्रियों पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए । उन्होंने समकालीन धार्मिक सम्प्रदायों में प्रचलित कट्टरता तथा रीति-रिवाजों की निन्दा की । सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से पददलित निम्न जातियों के हिन्दुओं तथा निर्धन मुस्लिम किसानों ने उनके उपदेशों को पसंद किया । उन्होंने सभी वर्गों के लोगों की नैतिक तथा आध्यात्मिक विचारधारा में सुधार किया । हजारों लोग उनके प्रभाव में आकर उनके अनुयायी बन गए और गुरु नानक जी उनके प्रेम तथा निष्ठा के पात्र बने ।

उन्होंने दलित, भ्रष्ट तथा अन्धविश्वास से परिपूर्ण वर्गों को जागृत किया । गुरु नानक जी स्त्रियों के अधिकारों के प्रबल समर्थक थे । उन्होंने कहा, “स्त्री हमें गर्भ में धारण करती है, तथा उसी से हमारा जन्म होता है ।” अतः उन्होंने कहा कि ईश्वर के सामने स्त्री का दर्जा तथा उसका उत्तरदायित्व पुरुष के समान है । उन्होंने हरिद्वार के पण्डितों को उपदेश दिया कि सूर्य की पूजा करना अथवा मृतकों को जल समर्पित करना व्यर्थ है । उन्होंने लोगों को ईश्वरीय प्रेरणा से सेवा तथा बलिदान का जीवन व्यतीत करने के लिए प्रबोधित किया, तथा अच्छे कर्म करने पर बल दिया ।

उन्होंने एकान्त तपस्या की आवश्यकता को अस्वीकार करते हुए अपने अनुयायियों को बताया कि वे पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । गुरु जी ने तीन बातों पर विशेष बल दिया । नामतः नाम, कृत् तथा वन्द, अर्थात् ईश्वर का चिन्तन करना, ईमानदारी से परिश्रम करना तथा दूसरों में बांटकर खाना । उनके अनुसार ये आदर्श ही सुखद तथा सामंजस्य जीवन के आधार हैं ।

छल-कपट की कमाई को उन्होंने मुसलमानों के लिए सूअर के मांस के समान तथा हिन्दुओं के लिए गाय के मांस के समान हराम बताया । उन्होंने कहा – जो व्यक्ति परिश्रम करके कमाता है, और अपनी कमाई में से कुछ दान करता है, वह वास्तविक मार्ग ढूंढ़ लेता है ।

उनका विश्वास था कि नाम जपने से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार इन पांचों दोषों पर विजय प्राप्त कर सकता है, गुरु नानकदेव जी के मतानुसार ईश्वर की इच्छा अनन्त है, वह अपनी इच्छा के अनुसार अन्तरिक्ष में इस संसार को रचना करता है । ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, उसने ब्रह्माण्ड की रचना की है, तथा उसमें मूल मन्त्र में उल्लिखित गुण हैं । वह सर्वव्यापक तथा सर्वत्र विद्यमान है । प्रत्येक हृदय में उसका निवास है । वह दाना तथा बीना है, अर्थात् सब कुछ समझता तथा देखता है ।

गुरु नानक जी ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं देना चाहते थे । उन्होंने इसकी स्थापना के लिए कोई तर्क प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया । उनके मतानुसार ईश्वर सारी मानवता का ईश्वर है, वह जाति-पांति, रंग तथा लिंग पर आधारित भेद-भाव से ऊपर है । वह सत्य नाम, स्रष्टा, निर्भय तथा अजातशत्रु है । वह अनन्त है, आवागमन से ऊपर है, तथा आत्म-विद्यमान है । ईश्वर के सम्बन्ध में उनके विचारों का भाव निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत है –

तुम्हारी लाखों श्रांखें हैं, किन्तु फिर भी एक भी आंख नहीं । तुम्हारे लाखों पांव हैं, किन्तु फिर भी एक भी पांव नहीं । तुम गन्ध-रहित हो, किन्तु फिर भी तुम्हारे में से लाखों सुगन्धियां निकलती हैं । हे ईश्वर ! अपने ऐसे आकर्षणों से तुमने मुझे मोह लिया है । तुम्हारा प्रकाश सर्वत्र विद्यमान है । गुरु नानक के मतानुसार सबसे अच्छा धर्म वह है जो ईश्वर के प्रेम पर बल देता है । सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह है, जो सदा ईश्वर के सामने रहता है, और मानव-जाति की सेवा करता है । ईश्वर को कैसे देखा जाए, और उससे कैसे प्यार किया जाए ?

गुरु नानक जी ने ‘जपुजी’ में इस प्रश्न पर विचार किया है –

हम उसे क्या भेंट करेंगे, ताकि हम उसके दरबार को देख सकें ? हम अपने मुख से क्या कहेंगे, जिससे वह हमें अपना प्यार दे ? प्रातःकाल की अमृत वेला में ‘सत्य नाम’ की अनुकम्पा का चिन्तन करो । अपने अच्छे कर्मों से तुम सत्य की प्राप्ति कर सकते हो, किन्तु पूर्ण मुक्ति केवल ईश्वर की कृपा से ही सम्भव है । हमें ईश्वर के नाम की पूजा करनी चाहिए, उसके नाम में विश्वास करना चाहिए, यह सर्वदा सत्य है।

संक्षेप में, गुरु नानकदेव जी ने यह प्रचार किया कि ईश्वर के प्रति मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि उसका सम्मान किया जाए तथा उससे प्यार किया जाए, और अपने शरीर, हृदय, बुद्धि, आत्मा तथा अन्ततः संसार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन किया जाए ।

आधुनिक युग में पश्चिमी देशों में प्रचारित होने वाले साहित्य में उनके ‘जपुजी’ का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । यह आध्यात्मिक दर्शन से परिपूर्ण है । इसकी काव्य-शैली प्रभावपूर्ण है । यह उनके दर्शन का सार तथा उनकी काव्य-कला का उत्कर्ष प्रस्तुत करता है । इसमें संगीतमय लय भी है, जिससे काव्य को प्रतिध्वनि प्राप्त होती है । यह ईश्वर की महानता का वर्णन करता है । जो ‘जपुजी’ का जाप करते हैं, वे अपने स्रष्टा तथा समाज के साथ अपने सम्बन्ध को समझ लेते हैं । गुरु नानक के अनुसार – “यदि कोई व्यक्ति ईश्वर का गान करता है, उसी का श्रवण करता है, अपने अन्दर उसके प्रेम को प्रसारित करता है तो उसके सभी दुःख दूर हो जाएंगे, तथा परमात्मा उसकी आत्मा में स्थायी शान्ति उत्पन्न करेगा । ”

आगे उनका कथन है –

यदि मनुष्य को सच्चा गुरु मिल जाए, तो उसका मन भटकना छोड़ देता है, उसके अन्दर आनन्द की सरिता बह निकलती है । स्वतः अलौकिक संगीत उत्पन्न हो जाता है तथा मनुष्य निर्भय आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है । मनुष्य संसार से विरक्त रहता है, और अपने अन्तर में ईश्वर की प्राप्ति अनुभव करता है । गुरु ऐसी नदी के समान है, जिसका जल सर्वदा स्वच्छ रहता है, उससे मिलने पर तुम्हारे हृदय की मैल धुल जाती है ।

सच्चा गुरु हमें पूर्ण स्नान करवाता है । वह क्रूर व्यक्तियों तथा दानवों को देवताओं तथा फरिश्तों के रूप में परिवर्तित कर देता है । जब ईश्वर मनुष्य की रक्षा के लिए अपनी अनुकम्पा भेजता है । तो वह गुरु के उपदेश पर आचरण आरम्भ कर देता है । नानक कहते हैं, तुम सभी सुनो, रोग के उपचार का यही ढंग है ।कोई व्यक्ति ढेरों के ढेर पुस्तकों का अध्ययन कर सकता है, फिर उससे भी अधिक पुस्तकों का अध्ययन कर सकता है; किन्तु सच्चाई केवल एक है, और उसी का महत्त्व है । और सभी कुछ अहंकार, तथा अहंवादी मन का क्रोध है ।

पांच सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी गुरु नानक देव जी को भारत में तथा विदेशों में एक महान् धार्मिक नेता के रूप में स्मरण किया जाता है । गुरु नानक जी संसार के युवक नेताओं में से थे । उनका सन्देश हमारे लिए परम महत्त्वपूर्ण है, और यह दैनिक जीवन में हमारा मार्ग-दर्शन करता है ।

गुरु नानक की मृत्यु


उन्होंने एक खुले दीवान में अपने शिष्य अंगद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और उसे अपनी गद्दी सौंप दी ।

उन्होंने कहा कि मेरा उद्देश्य सफल हो गया है । तत्पश्चात् गुरु नानकदेव जी ने अपने ऊपर एक चादर तान ली । दिव्य संगीत सुनाई पड़ा । आकाश से पुष्प-वर्षा हुई, और गुरु जी का स्वर्गवास हो गया । हिन्दू उनके शरीर को जलाना तथा मुसलमान दबाना चाहते थे । चादर उठाई गई तो उनका शरीर वहां न मिला । वह परमात्मा में समा गया था । विक्रमी संवत् १५३६ (तदनुसार ईस्वी सन् १५३८) में असौज के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन गुरु जी ने यह संसार छोड़ा ।

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