गुरु अंगद देव जी | गुरु अंगद देव जी हिस्ट्री | Guru Angad Dev Ji History
“नकेल स्वामी के हाथ में है, मनुष्य अपने कर्मों द्वारा चालित होता है । हे नानक, यह सत्य है कि ईश्वर भोजन देता है, और मनुष्य उसे खाता है । “ — सोरठ की वार
माते दी सराय के फेरू नामक एक व्यापारी के घर भाई लैहना का जन्म हुआ । वे एक कर्त्तव्य-परायण तथा शारीरिक रूप से बलिष्ठ युवक थे । वे दुर्गा अथवा लाटां वाली के पुजारी थे । वे प्रतिवर्ष देवी के दर्शन के लिए जाया करते थे, देवी की प्रशंसा में भजन गाते तथा श्रद्धा के आवेश में नृत्य करते ।
अपने इस धार्मिक उन्माद के बावजूद उन्हें अपनी आत्मा में अतृप्त भूख का अनुभव होता जो प्रतिवर्ष बढ़ती जाती थी । एक बार खडूर में उन्हें भाई जोधा से ‘आसा दी वार’ में गुरु नानक के भजन सुनने का अवसर प्राप्त हुआ । इनसे उनके भाव जागृत हुए । उन्होंने करतारपुर में गुरु नानकदेव जी के दर्शन करने का निश्चय किया । वहां उनके दर्शन कर तथा उनके उपदेश सुनकर भाई लहना बहुत प्रभावित हुए, और उन्होंने वहीं रहने का निश्चय किया । गुरु जी के प्रति भाई लहना की निष्ठा के सम्बन्ध में अनेक घटनाओं का वर्णन मिलता है ।
जब गुरु नानक करतापुर में खेती करते थे, तो एक बार अन्य सिक्खों द्वारा गुरु जी के पशुओं के लिए कीचड़ से भरी घास को सिर पर उठाने से कतराने पर, भाई लहना इसे अपने सिर पर उठा कर ले आए । घास में से कीचड़ की बूंदें टपक-टपककर गिरने पर उनके नये वस्त्र गन्दे हो गए ।
एक बार वह नमक का एक भारी बोझ गुरु के लंगर के लिए खडूर से करतारपुर तक उठा लाए, और इसमें कोई अपमान अनुभव नहीं किया । वे रात को गुरु जी के वस्त्रों को धोकर पौ फटने से पूर्व उन्हें सुखाकर रख देते । एक बार गुरु जी के आदेश देने पर उन्होंने चिता पर ढके पड़े मृत शरीर को खाने में भी कोई आपत्ति न की । किन्तु जब वे इसे खाने के लिए आगे बढ़े तो यह स्वादिष्ठ मिष्ठान्न के रूप में परिवर्तित हो गया ।
शीत ऋतु की एक रात को गुरुजी ने सिक्खों को अपने घर की दीवार के एक गिरे हुए भाग की मरम्मत करने के लिए कहा । भाई लहना के अतिरिक्त सभी चुप रहे । उन्होंने अकेले दीवार खड़ी कर दी । गुरु जी ने उनके कार्य के प्रति असन्तोष प्रकट करते हुए उन्हें दीवार दोबारा बनाने के लिए कहा । भाई लहना ने बिना किसी शिकायत के गुरु जी की आज्ञा का पालन किया ।
एक दिन गुरु नानकदेव जी ने भाई लहना को अपनी गद्दी पर बिठाकर पांच पैसे तथा नारियल भेंट किए और भाई बुद्धा को कहा, “यह मेरा उत्तराधिकारी है, गुरु के रूप में इनकी नियुक्ति के चिह्न के रूप में इनके माथे पर तिलक करो।” इसके पश्चात् गुरु जी ने लोगों को, अपने प्रतिरूप अंगद की सेवा करने का आदेश दिया । गुरु नानकदेव जी के पुत्र इस निर्णय से बहुत अप्रसन्न हुए, किन्तु वे अपनी आत्मनिष्ठता के कारण इस उच्च पद के पात्र नहीं थे । गुरु अंगददेव अपनी आत्म-बलिदान की भावना तथा कर्तव्य-परायणता के कारण इस उच्च पद के अधिकारी थे । गुरु नानक ने उन्हें खडूर लौटने का आदेश दिया ।
भाई लैहना का क्रम-विकास पूर्ण हो गया था । वे अपने गुरु से भिन्न न रहकर अभिन्न हो गए थे । भाई गुरदास ने गुरु अंगददेव जी द्वारा उत्तराधिकार प्राप्ति का इस प्रकार वर्णन किया है –
“अंगद को वही तिलक मिला, सिर पर वही छत्र मिला, तथा उसी सच्ची गद्दी पर बिठाया गया जो गुरु नानक की थी ।“
“गुरु नानक के हाथ की मुद्रा गुरु अंगद के हाथ में चली गई और उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी ।“
“वे करतारपुर से चले गए तथा उन्होंने खडूर में गुरु जी के दीपक को प्रकाशित किया । जो आरम्भ में बोया गया था, वह इस संसार में उग आया था, कोई भी अन्य मत व्यक्त करना कपटपूर्ण चतुराई होगी ।“
लैहना ने नानक से भेंट प्राप्त की, और यह अवश्य अमरदास तक जाएगी।”
गुरु अंगद को गद्दी देने के कुछ दिनों के पश्चात् करतारपुर में संवत् १५६५ (१५३८ ई॰) को असौज के शुक्ल पक्ष की दशमी को गुरु नानकदेव जी ने यह संसार त्याग दिया।
इस प्रकार गुरु नानकदेव जी वास्तविक अर्थों में गुरु अंगद के शरीर में समा गए ।
गुरु अंगददेव जी ने नम्रता तथा ईश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वास आवधित किया । वे आदर्श शिष्य थे और सर्वशक्तिमान् ईश्वर की सहायता से उच्च पद को प्राप्त हुए । उन्होंने लंगर की प्रणाली को बनाए रखा तथा इसे और दृढ़ किया ।
यह प्रणाली मानवता की समानता में आदर्श थी । सिक्ख धर्म पूर्णतः आध्यात्मिक विचारों पर आधारित है । अंगददेव जी के अनुसार ईश्वर की निकटता अथवा उससे दूरी हमारे अपने कर्मों पर निर्भर करती है :
“ मनुष्य जो देते हैं, वही प्राप्त करते हैं, जो वे प्राप्त करते हैं, वही उन्होंने दिया था । वे अपने कर्मों के अनुसार नरक अथवा स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं ।“ — (गुरु अंगद : सारंग की वार)
उनके मतानुसार, गुण स्वयं अपना पुरस्कार है, तथा दोष स्वयं अपना दण्ड है । जिनमें दोष होते हैं, वे असफल रहते हैं, तथा इस प्रकार उन्हें कष्ट एवं दुःख मिलता है — यदि कोई गुप्त रूप से भी कोई कर्म करता है, तो भी यह सारे संसार में जाना जाता है, पुण्य-कर्म करने वाले को पुण्यात्मा के रूप में तथा पाप-कर्म करने वाले को पापी के रूप में जाना जाता है । — (गुरु अंगद : वार माझ )
तथा
यद्यपि मनुष्य को उसके कर्मों के द्वारा इधर-उधर चलाया जाता है तथापि उसकी नकेल स्वामी के हाथों में है । नानक ! यह सच है, कि ईश्वर भोजन देता है, और मनुष्य उसे खाता है । — ( गुरु अंगद : सोरठ)
गुरु जी आगे कहते हैं, “ईश्वर अपनी सृष्टि का भाग्य स्वयं लिखता है । वह हमारा भाग तथा कर्त्तव्य निश्चित कर देता है,” तथा “वह हमारे कर्मों को ध्यान से देखता है, और हमारी आवश्यकताओं की ओर ध्यान देता है।”
नानक, अपनी आजीविका के लिए चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं । हमारे लिए हमारा स्वामी चिन्ता करता है ।
जो जल में प्राणी उत्पन्न करता है,
तथा वहीं उनका पालन करता है ।
वहां कोई दुकान खुली नहीं,
तथा न ही कोई व्यापार चलता है,
न ही कोई वाणिज्य है, और न ही कोई यातायात ।
पशु ही पशुओं का भोजन है,
उन्हें ऐसा भोजन दिया जाता है।
उसने सागर में जो प्राणी उत्पन्न किए हैं,
वह उनकी भी देखभाल करता है ।
नानक, अपनी जीविका के लिए कोई चिन्ता न करो ।
जिस स्वामी ने जीवन दिया है, चिन्ता उसी का विषय है । — (गुरु अगद : रामकली)
गुरु अंगददेव जी ने १५५२ में इस अनित्य संसार को त्याग दिया । वे बारह वर्ष, छ: मास तथा नौ दिन गुरु की गद्दी पर बैठे । उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने गुरु की सेवा करने तथा उससे प्यार करने और ईश्वर की पूजा करने का उपदेश दिया । उन्होंने पंजाबी की लिपि गुरुमुखी को लोकप्रिय बनाया तथा गुरु नानकदेव जी के पदों को लेखनीबद्ध किया । आगे चलकर इन्हें ‘आदि ग्रन्थ’ में सम्मिलित कर लिया गया । उन्होंने सिक्खों को हिन्दुओं के धार्मिक पण्डितों से स्वतन्त्र कर दिया, तथा सिक्ख धर्म को, हिन्दू धर्म से पृथक् एक विशिष्ट धर्म के रूप में विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया ।
उन्होंने गुरु नानक की गद्दी के लिए गुरु अमरदास को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, तथा उन्हें गोइन्दवाल में रहकर सिक्खों का मार्ग-दर्शन करने का निर्देश दिया ।