श्री कृष्ण और पांडव | Shri Krishna Pandav Agyatvas

श्री कृष्ण और पांडव | Shri Krishna Pandav Agyatvas

धर्मात्मा पाण्डव जुए में अपना सब कुछ गँवाकर वनवास का कष्ट उठा रहे थे । श्रीकृष्ण भी वहाँ पधारे हुए थे । उस समय महातपस्वी चिरजीवी मार्कण्डेय मुनि पाण्डवों के पास आते हैं और बातों-ही-बातों में उन्हें श्री कृष्ण की महिमा सुनाने लगते हैं ।

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प्रलयकाल का अपना अनुभव सुनाकर वे कहते हैं कि “अनन्त जलराशि के बीच वटपत्र पर शयन करने वाले अद्भुत शिशु के रूप में मैंने जिन परमात्मा का दर्शन किया था, वे ये ही तुम्हारे सम्बन्धी श्रीकृष्ण हैं । इन्हीं के वरदान के प्रभाव से मेरी अखण्ड स्मृति बनी हुई है और मैंने हजारों वर्षों की आयु पायी है ।“

एक बार पाण्डवों की अहितकामना से दुर्योधन के भेजे हुए महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों के साथ वनवासी पाण्डवों के अतिथि बनकर आये । भगवान् भास्कर से महाराज युधिष्ठिर को एक ऐसा चमत्कारी बर्तन प्राप्त हुआ था, जिसमें पकाये हुए अन्न से वे चाहे जितने अतिथियों को भरपेट भोजन करा सकते थे । परन्तु ऐसा तभी तक सम्भव था, जब तक कि द्रौपदी भोजन नहीं कर लेती थी । दुर्योधन के कुचक्र से दुर्वासा ऐसे समय में ही पहुँचे जब कि द्रौपदी सबको भोजन कराकर स्वयं खा चुकी थी ।

धर्मात्मा युधिष्ठिर ने मुनिमण्डली को भोजन के लिये आमन्त्रित किया और मुनि स्नान एवं नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिये गंगा तीर पर गये । ऐसे विकट समय में हजारों ब्राह्मणों को भोजन कराने का कोई साधन न देखकर द्रौपदी के मन में बड़ी चिन्ता हुई । उसने मन-ही-मन अपने हितू तथा आत्मीय श्रीकृष्ण का स्मरण किया और वे तुरंत दौड़े हुए वहाँ आये । आते ही उन्होंने कहा – “बहिन ! मुझे बड़ी भूख लगी है; जल्दी कुछ खाने को दे, द्रौपदी ने उन्हें सारी बात कह सुनायी । वह बोली कि मैं अभी-अभी भोजन करके उठी हूँ, उस पात्र में अब कुछ भी नहीं बचा है । श्रीकृष्ण ने उसकी बात को टालते हुए कहा कि “लाओ, वह पात्र कहाँ है ? मैं देखूँ तो ।” द्रौपदी ने पात्र लाकर भगवान् के सामने उपस्थित कर दिया । श्रीकृष्ण ने देखा कि उस पात्र में कहीं एक साग का पत्ता चिपका रह गया है, उसी को मुँह में डालकर उन्होंने कहा कि “इस साग के पत्ते से यज्ञभोक्ता विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि तृप्त हो जायँ ।“

इसके बाद उन्होंने सहदेव से कहा कि “जाओ, मुनि मण्डली को भोजन के लिये बुला लाओ ।” सहदेव गंगातीर पर जाकर देखते हैं कि वहाँ कोई नहीं है। बात यह हुई कि जिस समय भगवान ने साग का पत्ता मुँह में डालकर वह संकल्प पढ़ा, उस समय मुनि जल में खड़े होकर अघमर्षण कर रहे थे । उन सबको ऐसा अनुभव हुआ कि मानो उनका पेट गले तक अन्न से भर गया है । तब तो वे बहुत डरे और यह सोचकर कि पाण्डयों के यहाँ जो रसोई बनी होगी वह व्यर्थ जायगी, पाण्डवों के बीच की आशंका से चुपचाप भाग निकले । वे यह जानते थे कि पाण्डव भगवद्भक्त हैं और अम्बरीष के यहाँ उन पर जो कुछ बीती थी, उसके बाद से उन्हें भगवान के भक्तों से बड़ा डर लगने लगा था । सहदेव उन्हें गंगातीर पर न देखकर लौट आये । इस प्रकार श्रीहरि ने अपने आश्रितों की रक्षा की ।

धन्य भक्तवत्सलता ! इस प्रकार के चरित्रों से स्पष्ट ही श्रीकृष्ण की भगवत्ता और सर्वव्यापकता सूचित होती है ।

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