महाभारत में श्रीकृष्ण | श्रीकृष्ण महाभारत | Shri Krishna Mahabharat | Mahabharat Shri Krishna

महाभारत में श्रीकृष्ण | श्रीकृष्ण महाभारत | Shri Krishna Mahabharat | Mahabharat Shri Krishna

श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में आजकल अनेकों प्रकार की मनमानी कल्पनाएँ की जाती हैं । कोई कहते हैं कि श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे । कोई कहते हैं कि श्रीकृष्ण नामके व्यक्ति कुछ हजार वर्ष पूर्व हुए तो हैं, परन्तु वे केवल एक लोकोत्तर मानव थे।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण का जो स्वरूप मिलता है, वह तो विशुद्ध ज्ञान है । वैसे कोई व्यक्ति जगत्‌ में नहीं हुए । कुछ लोगों का कहना है कि श्रीकृष्ण नाम के अनेक व्यक्ति हो चुके हैं — भागवत के श्रीकृष्ण अलग थे और महाभारत के अलग । यही नहीं, कुछ तो यहाँ तक कह बैठते हैं कि वृन्दावन के श्रीकृष्ण और थे, मथुरा के और तथा द्वारका के श्रीकृष्ण तीसरे ही थे।

प्रस्तुत लेख में महाभारत के आधार पर यह दिखलाने की चेष्टा की जायगी कि महाभारत और भागवत के श्रीकृष्ण एक ही थे और वे पूर्णतम पुरुषोत्तम थे । गीता में उन्होंने जो अपना स्वरूप बतलाया है, वही उनका वास्तविक स्वरूप है और महाभारत के विभिन्न स्थलों से इसी बात की पुष्टि होती है।

जगन्नियन्ता, देवाधिदेव, अखिललोकपति भगवान् नारायण ही वासुदेव श्रीकृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए थे, भागवत की भाँति महाभारत ने भी इस बात को स्वीकार किया है विस्तृत जानकारी के लिए पढ़े आदि पर्व अध्याय ६४

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धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में बड़े-बड़े महर्षियों के साथ देवर्षि नारद भी यज्ञ की शोभा को देखने के लिये पधारते हैं । अन्यान्य राजाओं के साथ भगवान् श्रीकृष्ण को सभामण्डप में उपस्थित देखकर उन्हें भगवान् नारायण के भूमण्डल पर अवतीर्ण होने की बात स्मरण हो आती है और वे मन-ही-मन पुण्डरीकाक्ष श्रीहरि का चिन्तन करने लगते हैं । इसके बाद सभा में जब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आगन्तुक महानुभावों में सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय, उस समय कुरुकुल वृद्ध वीरशिरोमणि महात्मा भीष्म यह कहते हुए कि “मैं तो भूमण्डल भर में श्रीकृष्ण को ही प्रथम पूजने के योग्य समझता हूँ”

भरी सभा में उनकी महिमा का बखान करने लगते हैं । वे कहते हैं – वासुदेव ही इस चराचर विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलय-खरूप हैं और इस चराचर प्राणि-जगत का अस्तित्व उन्हीं के लिये है । वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव परम पूजनीय हैं ।“

देवर्षि नारदजी भी इस प्रस्ताव का समर्थन करते हैं । यही नहीं, इस प्रस्ताव का अनुमोदन करने वाले सहदेव पर देवतालोग आकाश से पुष्पवृष्टि करते हैं और आकाशवाणी भी ‘साधु-साधु’ कहकर उनकी सराहना करती है।

श्रीकृष्ण के बालचरित्रों का वर्णन साक्षात्रूप से महाभारत में नहीं मिलता । इसका कारण यही है कि उन चरित्रों का महाभारत के मुख्य कथानक से कोई सम्बन्ध नहीं है । अवश्य ही हरिवंशपर्व में, जो महाभारत का ही परिशिष्ट भाग है, इस कमी को पूरा किया गया है । फिर भी प्रशंगवश महाभारत के ही विभिन्न पात्रों द्वारा श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है । भीष्मपितामह के उपर्युक्त प्रस्ताव का विरोध करते हुए चेदिराज शिशुपाल, जो श्रीकृष्ण का जन्म से ही विरोधी था और रुक्मिणी-हरण के बाद से तो उनसे और भी अधिक जलता था, बालकपन में क्रमशः उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वृषासुर और कंसके मारे जाने, शकट के गिराये जाने तथा गोवर्धन पर्वत के उठाये जाने आदि का उल्लेख करता है ।

यद्यपि इन सब घटनाओं का उल्लेख उसने श्रीकृष्ण की निन्दा के तात्पर्य से ही किया है, फिर भी उसने इन सब की सच्चाई को स्वीकार किया है । शत्रुओं के द्वारा वर्णन किये हुए इन अलौकिक चरित्रों से श्रीकृष्ण की लोकोत्तरता तो प्रकट होती ही है; साथ ही जो लोग भागवत के श्रीकृष्ण को महाभारत के श्रीकृष्ण से भिन्न मानते हैं, उन्हें अपने मत पर पुनर्विचार करने के लिये पर्याप्त कारण भी मिल जाता है । अस्तु, इस प्रशंग पर शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को तथा उनकी प्रशंसा करने वाले भीष्मपितामह को बहुत-कुछ खोटी-खरी सुनायी । किन्तु श्रीकृष्ण वीरतापूर्वक उसके सारे अपराधों को सहते रहे ।

अन्त में जब उन्होंने देखा कि अन्य सभासदों के समझाने पर भी वह किसी प्रकार शान्त नहीं होता, तब उन्होंने अपने सुदर्शनचक्र का स्मरण किया और सबके देखते-देखते उस तीखी धारवाले चक्र से उसका सिर धड़से अलग कर दिया । उस समय सभा में उपस्थित सब लोगों ने देखा कि शिशुपाल के शरीर से एक बड़ा भारी तेज का पुञ्ज निकला और वह जगद्वन्द्य श्रीकृष्ण को प्रणाम कर उन्हीं के शरीर में प्रवेश कर गया ।

इस अलौकिक घटना से श्रीकृष्ण की भगवत्ता तो प्रमाणित होती ही है, साथ ही जो लोग वहाँ उपस्थित थे, उन्हें इस बात का भी प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया कि चाहे कोई कैसा भी पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथ से मारे जाने पर उसकी सायुज्यमुक्ति हो जाती है, वह भगवान् के स्वरूप में लीन हो जाता है । यही उनकी अनुपम दयालुता है । वे मारकर भी जीव का उद्धार ही करते हैं ।

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