मोहमद पैगम्बर और उनकी संबंधी । Hazrat Muhammad Sahab
कुरान में अनेक वाक्य महात्मा मुहम्मद (पैगम्बर मोहमद) के परिवार और इस्लाम धर्म में उनकी स्थिति के सम्बन्ध में भी कहे गये हैं । अपने धर्म-प्रवर्तकों को ईश्वर या उसका अवतार बना डालना, धर्मानुयायियों का स्वभाव है, इसीलिये कुरान में “मुहम्मद प्रेरित के अतिरिक्त कुछ नही” (३:१५:१) वाक्य बार-बार दुहराया गया है ।
कुरान मे मुहम्मद के प्रभु-प्रेरित होने के विषय में निम्नलिखित बात कही गयी है –
जिसके पास तौरात (मूसा को दिया गया ईश्वरीय ग्रंथ, यहूदियों की धर्म पुस्तक) और इंजील (ईसा को दिया गया ईश्वरीव ग्रंथ, ईसाइयों की धर्म पुस्तक) में से उद्धरण है । जिसका उपदेश पुण्य कर्म के लिये है और पाप कर्म के लिये निपेध । जो पवित्र (वस्तु) को भक्ष्य (हलाल) और अपवित्र की अभक्ष्य (हराम) करता है । जो उन (धर्मानुयायियों) से उनके ऊपर भार और फन्दे को अलग करता है । उस निरक्षर प्रेरित ऋषि के जो अनुयायी, विश्वासी तथा सहायक हैं, और उसके साथ उतरे प्रकाश (क़ुरान) का अनुसरण करते हैं, वह पुण्य के भागी हैं।” (७:१६:६)
महात्मा का सम्मान
“ मैं मुहम्मद तुम्हारे सबके पास उस प्रभु का भेजा हुआ हूँ, जिसका शासन पृथ्वी और आकाश, दोनों में है ।” (७:२०:१)
कह : मैं नया प्रेरित नहीं है……. जो कुछ प्रभु मेरे पास भेजता है; मै उसी का अनुसरण करता हूँ । मंगल और अमंगल की सुनने वाला छोड़ मैं कुछ नहीं हूं।” (४६:१:६)
इस्लाम में मुहम्मद ईश्वर या ईश्वर के अवतार नहीं माने गये, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान कम है । कहा है – “तेरे (मुहम्मद के) साथ हाथ मिलाने वाले भगवान के साथ हाथ मिलाते हैं । (मुहम्मद का हाथ नहीं) परमेश्वर का हाथ उनके हाथों में है ।” (४८:१:१०)
मुहम्मद और इंजील की भविष्यवाणी
हे विश्वासियो (मुसल्मानो !) प्रेरित (मुहम्मद) के स्वर से तुम ऊँचा न चिल्लाओ, और उसके साथ उस प्रकार से बातचीत न करो, जैसे तुम आपस में एक दूसरे से बोलते हो ।”(४६:१:२)
“परमेश्वर और देवदूत, प्रेरित के पास आशीर्वाद भेजते हैं । हे विश्वासियो ! (तुम भी) उस के लिये आशीर्वाद और शान्ति की कामना करो ।” (३३:७:४)
मुसल्मानों का यह भी विश्वास है कि यहूदियों की भाँति ईसाइयों के भी धर्मग्रन्थ में मुहम्मद के प्रेरित होकर आने की भविष्यवाणी है; किन्तु वह इसे स्वीकार नहीं करते । कुरान में इसे इस प्रकार से प्रदर्शित किया गया है –
“जब मरियम के पुत्र ईसा ने कहा-हे इस्राइल की सन्तानो ! (यहूदियो !) मैं प्रभु प्रेरित होकर तुम्हारे पास आया हूँ; पहिली (पुस्तकों) तारात आदि को प्रमाणित मानता हूँ; और एक प्रेरित का शुभ समाचार देता हूँ, जो मेरे बाद आवेगा, उसका नाम मुहम्मद है । फिर जब वह (मुहम्मद) उनके पास प्रमाण के साथ आया, (तो) कहते हैं- यह साफ जादू (धोखा) है ।“ (६१ : १ : ६)
हजरत मोहम्मद साहब का विवाह
कितने ही नये मुसल्मान महात्मा पर अपने मुसल्मान हो जाने का अभार (इहसान) रखते थे । जिस पर कहा गया है –
“तुझ पर इहसान रखते हैं कि मुसल्मान हो गये, कह मुझ पर इहसान मत रखो, यह परमेश्वर ने तुम्हारे ऊपर उपकार किया है, कि तुमको सच्चा रास्ता दिया ।” (४६:२:७)
हजरत मोहम्मद का प्रथम विवाह श्री खदीजा के साथ २५ वर्ष की अवस्था में हुआ था । विवाह के बाद वह २५ वर्ष तक जीवित रहीं । मदीना-प्रवास से ३ वर्ष पहले, जब हजरत मोहम्मद ५० वर्ष के हो गये थे, उनका स्वर्गवास हुआ । इस्लाम की शिक्षा सर्वप्रथम इन्होंने स्वीकार की । कई कारणों से मजबूर होकर हजरत मोहम्मद को १० विवाह और करने पड़े, किन्तु यह सब ५३ वर्ष की अस्वथा के बाद हुए ।
महात्मा के पास एक जैद नाम का दास रहता था । उसके मुसल्मान हो जाने पर उन्होंने इतना ही नहीं कि उसे दासता से मुक्त कर दिया, प्रत्युत अपना पोष्यपुत्र बनाकर उसका विवाह अपनी फूफी, ‘उमैया’ की लड़की जैनब (Zainab) से करा दिया । जैनब की बड़ी-बड़ी इच्छाओं और उच्च-वंश के अभिमान ने दासता मुक्त जैद के साथ पटरी न जमने दी । दोनों में बराबर झगडा होने लगा । अनेक बार ‘जैद’ ने सम्बन्ध-विच्छेद (तलाक) करना चाहा, किन्तु बार-बार महात्मा “अपनी स्त्री को अपने पास रहने दे और भगवान् से डर” – कह कर उसे रोक दिया करते थे, यद्यपि बार-बार परीक्षा ने उन्हे निश्चित कर दिया था, कि उन दोनों का मन मिलना कठिन है, किंतु संबंध-विच्छेद से उत्पन्न होने वाली कठिन समस्या को देखकर वह इसी तरह टालते जाते थे । जैनब और उसके भाई मुसल्मान होने के कारण कुरैशियों के कोप-भाजन हुए थे, और उन्होने भी घर-बार छोड मदीना में प्रवास किया था । तलाक़ देने पर जैनब का विवाह होना कठिन था । मुसल्मान होने से मुसल्मानो से अलग संबंध हो नहीं सकता था, और मुसल्मान में भी कुरैशी के वंश की प्रतिष्ठा के ख्याल से किसी अकुरैशी से विवाह अयुक्त था, यद्यपि इससे बहुत पहिले ही आदेश मिल चुक था-
“भगवान ने पोष्यपुत्रों को तुम्हारा पुत्र नहीं बनाया, यह तुम्हारी कपोल-कल्पना है। (३३:१:४)
इससे जैनब के साथ व्याह करने में, इस्लाम धर्म के अनुसार कोई बाधा न थी, परन्तु महात्मा लोकापवाद से डरते थे । लोग कहेगे – मुहम्मद ने अपनी पतोहू घर में रख ली । किंतु इस्लाम के प्रवर्तक की यह निर्बलता बहुत हानिकर होती; यदि वह शिक्षा को लोकपवाद से डरकर छोड़ देते; जिसके कि वह खुब प्रचारक थे । फिर तो उनके अनुयायी क्यों न वहिर्मुख हो जाते । इसलिए कुरान ने आदेश दिया –
“भगवान् से डर, तू जो कुछ अपने भीतर छिपाना चाहता था, भगवान् उसे प्रकाशित करना चाहता है । तू मनुष्यो से डरता हैं, किन्तु परमेश्वर से डरना ही सर्वोत्तम है । जब ‘जैद’ उससे इच्छा पूर्ण हो गई; तो हम (ईश्वर) ने उसे (जैनब को) तुझे व्याह दिया । यह इसलिये कि मुसल्मानों पर अपने मौखिक (पुत्रों) की स्त्रियों से ब्याह करने में हरज न हो” । (३३:५:३)
पैगंबर मोहम्मद की पत्नी का नाम
मदीना-प्रवास से पहिले महात्मा मुहम्मद ने एक ही ब्याह किया था। यह था श्री खदीजा के साथ । वह प्रवास से ३ वर्ष पुर्व ही स्वर्गवासिनी हो गई थीं । बाकी विवाह जो मदीना में आने पर ५३ वर्ष के बाद हुए उनकी संख्या ९ से अधिक बतलाई जाती है । प्रधान स्रियों के नाम ये हैं –
१-श्री ‘आयशा द्वितीय खलिफा ‘अबूबकर’ की पुत्री । २-श्री ‘हफसा’, तृतीय खलिफा ‘उमर’ की पुत्री । ३-श्री सौदा’। ४-श्री ‘उम्म सल्मा’ । ५-श्री ‘जैनव’ । ६-श्री उम्म ‘हबीता । ७-श्री ‘जबेरिया’। ८-श्री ‘मैमूना’ । ९-श्री ‘सफ़िया’ ।
इनमें से पहिली छ कुरैश-वंश की थीं । आत्मरक्षा के लिये सब तरह से हारकर मुसल्मानों ने तलवार की शरण ली । उन्हें इस्लाम के शत्रुओं-कुरैश और उनके साथी यहूदियो से अनेक लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं, जिनमें अनेक मुसल्मान वीरगति को प्राप्त हुए । उनकी स्रियाँ विधवा हो गईं । अब उनके पालन-पोषण का प्रश्न उठा, मुसल्मानों की संख्या कम थी और उतने ही में प्रबन्ध करना था । इस छोटी सी बिरादरी के साथ सम्बन्ध की अनिवार्यता ने महात्मा मुहम्मद को और भी मजबूर किया कि वह उन विधवाओं और उनके सम्बन्धियों को सन्तुष्ट करने के लिये और भी शादियाँ करें । ऐसी ही काठनाईयों में, ‘खुनैस’ की विधवा ‘हफसा’, ‘अब्दुल्ला’ की विधवा ‘जैनब’, और ‘अबूसल्मा’ की विधवा ‘उम्म सल्मा’ से विवाह करना, ‘उबैदुल्ला’ की विधवा उम्म “हबीबा” से भी उपरोक्त कारणो से ब्याह हुआ । जो तीन विवाह कुरैश से अलग वंशों में हुए, वह भी लड़ाकूसरदारों को ब्याह-सम्बन्ध से शांत रखने के लिये । श्री ‘अबूबकर’ के आग्रह ने “आयशा” से ब्याह करने पर मजबूर किया । इन सब बातो से यह भली प्रकार पता चल सकता है की महात्मा मोहम्मद ने यह अनेक व्याह विषय-भोग के लिये नहीं, किन्तु, अन्य ही किन्ही सदिच्छाओं से प्रेरित होकर किया । प्रेरित मुहम्मद के अपने ब्याह के विषय में कुरान यह की निम्न प्रकार की आज्ञा है ।
नवी के विवाह योग्य स्त्रिया
“हे प्रेरित, जिन पत्नियों को तूने स्त्रीधन (वह धन जो व्याह के समय पुरुष स्त्री के लिये स्वीकार करता है; और जिसे पुरुष के अपराध से व्याह सन्बन्ध टुटने पर स्त्री को दी जाती है) दे दिया; जो तेरे दाहिने हाथ की सम्पत्ति (युद्ध में दासी बनाई गई स्त्रियां) हुई; तेरे चचा, फूफी, मामा और मौसी की बेटियाँ, जिन्होंने तेरे साथ प्रवास किया, तथा कोई भी मुसमान स्त्री जिसने अपने को, नवी (प्रेरित) के लिये अर्पण कर दिया, और नबी तू उनके साथ व्याह करना चाहे; यह सब तेरे लिये विहित हैं ।“ (३३:६:६)