भीष्म पितामह वध | भीष्म प्रतिज्ञा | Bhishma Pitamah | Bhishma Pitamah Vadh
महाराज शान्तनु के पुत्र देवदत्त (भीष्म) गंगा से उत्पन्न हुए थे । उन्हें आठ वसुओं में से एक का अवतार माना गया है । गंगा ने किसी श्राप से श्रापित हो मृत्यु लोक में जन्म लिया था । श्राप की अवधि पूरी हो जाने पर गंगा फिर स्वर्ग चली गयी और शान्तनु की अनुमति से देवदत्त को भी साथ लेती गयी । उन्होंने जब कुछ होश संभाला, तो गंगा ने विद्योपार्जन के लिये उन्हें बृहस्पति के पास भेजा । इसके बाद इन्द्र आदि देवताओं ने उन्हें अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र दिये । फिर उन्होंने शुक्राचार्य और परशुराम के पास रहकर भी धनुविद्या का विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त किया । वे जब चौबीस वर्ष के हुए, तो गंगा ने उन्हें फिर महाराज शान्तनु को सौंप दिया। गंगा के पुत्र होने के कारण उन्हें गांगेय भी कहते थे ।
प्रिया गंगा के वियोग में महाराज शान्तनु विरह-व्यथा से बहुत ही व्यथित रहा करते थे । यूं हि कुछ समय बीता और प्रिया की याद मे महाराज का संताप भी बढ़ने लगा । किंतु एक दिन सन्योगवश वह यमुना के किनारे टहल रहे थे, की उनकी दॄष्टि एक अद्वितीया सुंदरी युवती पर पड़ी । महाराज उस पर मोहित हो गये । उन्होंने उसका नामधाम पूछा, और उन्हें मालूम हुआ, कि वह एक मल्लाह की कन्या है, और उसका नाम सत्यवती है। महाराज उससे ब्याह करने के लिये अकुला उठे । बाद में उन्होंने सत्यवती के पिता से भेंट की, और ब्याह की इच्छा प्रकट की । वह धीवर अपनी कन्या का विवाह महाराज से कर देने के लिये राज़ी था; पर वह चाहता था, कि सत्यवती का पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी हो । इस शर्त पर महाराज शान्तनू कुछ चिन्तित हुए; क्योंकि देवदत्त के रहते वे कैसे वैसी प्रतिज्ञा कर सकते थे ।
महाराज दुखी होकर अपनी राजधानी को लौट गये; पर उनके चित्त पर वह धीवर-कन्या हर समय चढ़ी रहती थी । उसी की याद में वे व्याकुल रहते थे । अन्त में किसी तरह देवदत्त को अपने पिता की व्यथा मालूम हो गयी, और वे उस धीवर के पास जाकर बोले – “आप अपनी कन्या का विवाह मेरे पिता से कर दीजिये । मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, कि मैं राज-सिंहासन पर न बैठुंगा……वरन आपकी कन्या का पुत्र ही राज्य पाएगा । ”
इस पर धीवर ने उत्तर दिया – “यह ठीक है, आप राज्य न लेंगे, पर आपके पुत्र तो राज्य के अधिकारी बनना चाहेंगे ?”
देवदत्त ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया – “यदि आप-को ऐसी शंका है, तो मैं प्रतिज्ञा करता हूँ , कि मैं विवाह ही न करूँगा – आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत पालन करूँगा ।”
उनकी इस भीषण प्रतिज्ञा से देवतागण भी चकित हुए और उन्होंने मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा, “यह भीष्म की प्रतिज्ञा है।“ उसी दिन से उनका नाम भीष्म (Bhishma) पड़ गया । पिता के सुख के लिये पुत्र का यह असाधारण त्याग सभी को अचम्भित श्रौर स्तम्भित कर देता था। महाराज शान्तनु अपने पुत्र का ऐसा अभूतपूर्व त्याग देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने भीष्म को इच्छा मृत्यु को आशीर्वाद दिया, यानी जब उनकी इच्छा होगी, तभी उनकी मृत्यु हो सकेगी ।
इसके बाद महाराज शान्तनु ने धीवर-कन्या सत्यवती से ब्याह किया । कुछ काल के बाद उससे चित्रांगद तथा विचित्रवीर्य नाम के दो पुत्र हुए, शान्तनु की मृत्यु के बाद भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार चित्रांगद को राज सिंहासन पर बैठाया । कुछ दिनों के बाद गन्धर्वो से युद्ध करते हुए चित्रांगद़ की मृत्यु हो गयी । तब भीष्म ने विचित्रवीर्य को सिंहासन पर बैठाया । भीष्म को उसके विवाह की भी चिन्ता हुई । इस बीच में भीष्म ने सुना,कि काशी नरेश की तीन पुत्रियों का स्वयंवर होने वाला है ।
भीष्म काशी पहुँचे और वहाँ आये हुए अनेक राजाओं को परास्त कर तीनों कन्याएँ हरण कर लाये। कन्याओं के नाम थे अम्बा, अम्बिका, और अम्बालिका । अम्बा ने भीष्म से कहा, कि मैं राजा शाल्व को पहले से ही वरण कर चुकी हूँ; इसलिये मैं उन्हीं से विवाह करूँगी । मुझे के शाल्व के पास भेज दीजिये ।
भीष्म ने आदर के साथ अम्बा को शाल्व के पास भेज दिया पर चूँकि भीष्म उसे हरण कर चुके थे, इसलिये शाल्व ने अभिमान-वश अम्बा को स्वीकार न किया । अम्बा को फिर वापस लौटना पड़ा, अब उसने भीष्म से कहा, कि “शाल्व मेरे साथ विवाह नहीं करना चाहता; इसलिये तुम्हीं मुझसे शादी करो।”
पर आजन्म ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा करने वाले भीष्म कैसे उससे ब्याह करते ? भीष्म ने जब इनकार किया, तो अम्बा कुद्र होकर तपस्या करके परशुराम को सन्तुष्ट करने लगी। परशुराम ने जब उससे पूछा, तो उसने भीष्म की शिकायत करते हुए कहा, कि – “ऐसा कीजिये, जिसमें भीष्म मुझसे ब्याह करें ।” परशुराम थे भीष्म के गुरु और इस समय उन्हें अम्बा की दुर्दशा देख कर उस पर बहुत दया आयी । वे अम्बा को अपने साथ लिये हस्तिनापुर में भीष्म के पास पहुँचे ।
भीष्म ने गुरुदेव का हृदय से स्वागत किया । परशुराम ने उन्हें अम्बा से विवाह करने के लिये बहुत तरह से समझाया;पर भीष्म ने नहीं माना और जब वे अपने व्रत पर अटल बने रहे; तब परशुराम को भीष्म पर बड़ा क्रोध चढ़ा, और उन्होंने भीष्म को डाटकर कहा, कि “मैं तेरा गुरु हूँ और तू मेरी आज्ञा नहीं मानता ?” भीष्म ने करवद्ध होकर कहा,-“गुरुदेव ! आप और चाहे जो आज्ञा दे, मैं अपने प्राण देकर भी उसे पूर्णं करूगा; किन्तु अपनी प्रतिज्ञा-भंग करके विवाह न करूगा।”
परशुराम ने बिगड़कर कहा,- “अरे दुष्ट ! तेरा इतना साहस ! मेरी आज्ञा न मानेगा, तो आ मुझसे युद्ध कर !”
भीष्मने कहा,-“जो आज्ञा भगवान् ! मैं युद्ध के लिये तैयार हूँ।”
इसके बाद परशुराम और भीष्म का तुमुल युद्ध आरम्भ हुआ । सत्ताइस दिन तक भीषण संग्राम होता रहा; पर कोई किसी को परास्त न कर सका । अन्त मे गंगा के बीच में आ जाने से युद्ध शान्त हुआ और परशुराम पराजित से होकर चले गये ।
अम्बा अब भी निष्फल रही । अम्बाका क्रोध भीष्म पर बहुत बढ़ा था । उसने फिर तपस्या की और इस बार उसने राजा दुपद के यहाँ पुत्र रूप में जन्म लिया और अब इस जन्म मे उसका नाम शिखण्डी पड़ा ।
इधर विचित्रवीर्य भीष्म के निरीक्षण में राज्य-भोग करता रहा ; किन्तु देव-दुविपाक से उसे क्षयरोग हो गया और उसी रोग में वह निःसन्तान दशा में ही मर गया। अब राज्य का उत्तराधिकारी कौन हो ? राजमाता सत्यवती ने भीष्म को विवाह करने की अनुमति दी पर विलक्षण ब्रह्मचर्यव्रती भीष्म अपनी प्रतिज्ञा भंग न कर सकते थे । तब उसने ब्रह्मवेत्ता कृष्ण द्वपायन व्यास को बुला भेजा; व्यासजी की कृपा से विचित्रवीर्य की दोनों विधवा स्त्रियों के एक-एक सन्तान प्राप्त हुई । एक विधवा से धृतराष्ट्र और दूसरी से पाण्डु उत्पन्न हुए । तीसरी दासी से विदुर पैदा हुए, धृतराष्ट्र जन्म से ही अन्धे थे ।
उसने धृतराष्ट्र के दुर्योधनादि सौ पुत्र हुए और दुःशला नाम की एक कन्या भी हुई । पाण्डु के पॉच पुत्र हुए, जिनके नाम थे – युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव । पाण्डु के शासन-कार्य में भीष्म उनकी बरा बर सहायता करते थे ; पर रोगग्रस्त रहने के कारण पाण्डु की शीघ्र ही मृत्यु हो गयी । तब भीष्म ने धृतराष्ट्र को राजसिंहासन पर बैठाया । सब राजकुमारों की शिक्षा का प्रबन्ध कराया; कृपाचार्य के द्वारा उन्हें सब तरह की शिक्षा मिलती रही, किन्तु बाद में द्रोणाचार्य सब राजकुमारों के गुरु हुए । धृतराष्ट्र के सभी पुत्र दुष्ट और दुगुणी थे। अन्त में जब दुर्योधन बिना युद्ध के सुई के नोक के बराबर भी भूमि पाण्डवों को देने के लिये तैयार नहीं हुआ, तो महायुद्ध ठन गया जिसमें श्रीकृष्ण ने पाण्डवों का साथ दिया । भीष्म इन सब भाइयों की लड़ाई को बिल्कुल पसन्द न करते थे । उनका समझाना-बुझाना जब कौरवो ने न माना, तो भीष्म उनके कार्यों को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे ! महाभारत युद्ध आरम्भ होने पर सम्राट दुर्योधन ने भीष्म पितामह को अपनी सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त किया ।
दस दिन तक भीष्म ने अदूभुत पराक्रम से पाण्डवो की सेना का संहार किया । प्रतिदिन वे प्रायः दस सहस्र रथियों को मारते थे । दसवें दिन भीष्म के ही बताये हुए उपाय से अर्जुन शिखण्डी को अपने रथ पर खड़ा कर लिया । शिखण्डी नपुंसक था और भीष्म उस पर शस्त्र प्रहार न कर सकते थे। शिखण्डी की आड़ से अर्जुन उन पर भयंकर बाण-घृष्टि करने लगे और उनका सारा शरीर बाणोंसे बिंध गिया। बाणों की ही शैया पर भीष्म पड़े थे ।
पाण्डवों सहित श्रीकृष्ण उन्हें देखने गये । उस समय भीष्म ने तकिया माँगा । कौरव उन्हें मुलायम तकिये देने लगे, पर उन्होंने कहा, – “अर्जुन को बुलाओ । वह मुझे तकिया देगा ।” अर्जुन ने आते ही तीन बाण उनके मस्तक पर मारे, और इस भीष्म के सीरने तकिया लगाया । भीष्म को जब प्यास लगी, तब अर्जुन ने पृथ्वी पर एक बाड़ मारा, इस तरह पाताल से जल की धारा उनके मुख मे आयी ।
शांतनु के आशीर्वाद से भीष्म को इक्छा मृत्यु प्राप्त थी, इसलिए उसी समय न मरकर दो महिने बाद, जब सुर्य उत्तरायण हुए, उन्होने अपने प्राण परित्याग किए । उनकी मृत्यु से दुर्योधन का प्रथम प्रधान सेनापति खत्म हो गया । भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को दुर्योधन ने सेना का संचालन भार दिया ।