सूर्यपुत्र कर्ण । कर्ण का चरित्र चित्रण । Karna

सूर्यपुत्र कर्ण । कर्ण का चरित्र चित्रण । Karna

महाभारत-काल में तृतीय पार्डव अर्जुन वींर माने गये हैं । यों तो सभी एक-से-एक वीर थें, पर अर्जुन उन सबमें श्रेष्ठ योद्धा समझे जाते थे, क्योंकि बाण-विद्या में वे सबसे आगे बढ़े हुए थे । ऐसे अर्जुन के साथ यदि किसी में मुकाबला करने की हिम्मत थी, तो वह कर्ण में ही थी । परन्तु कर्ण की जन्म-कथा बढ़ी विचित्र है।

महाभारत में लिखा है, कि इनका जन्म सूर्य के औरस और कुन्ती के गर्भ से हुआ था । कुमारी अवस्था में जन्म होने के कारण कुन्ती ने धात्री की सहायता से बच्चे को एक टोकरी में बन्द कर नदी में बहा दिया था । अधिरथ नामक सूत और उसकी स्त्री राधा को वह टोकरी पानी में बहुती हुई दिखाई दी । अधिरथ नदी से उसे निकाल लाया और खोलकर उसने देखा, तो उसके भीतर एक नवजात शिशु मिला । उस शिशु की भुजा पर कवच और कानों में कुंडल भी थे । सूत दम्पती ने उस बालक का अपने बच्चे की तरह लालन-पालन करना शुरू किया। जब बच्चा कुछ बड़ा हुआ, तब शिक्षा-दीक्षा के लिये हस्तिनापुर भेज दिया गया ।

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हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रगण आचार्य द्रोण से सामरिक शिक्षा प्राप्त करते थें । धनु- विद्या का अध्ययन और अभ्यास करने की प्रवित्ति कर्ण में आरम्भ से ही थी । कुछ ही समय में कर्ण अर्जुन की समानता करने लगे । जब पाँचों पांडव, धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि पुत्रगण और कर्ण की धनुविद्या की शिक्षा समाप्त हुई, तब सबकी परीक्षा की तैयारी हुई । विशाल मण्डप बनाया गया। दर्शकों की बड़ी भारी भीड़ उपस्थित हुई। पाण्डवो में अर्जुन धनुविद्या में सबसे प्रवीण प्रमाणित हुए, अर्जुन के इस कौशल को देख, जनता के आनन्द और उत्साह की सीमा न रही। परन्तु सबके बाद जब कर्ण ने भी अपनी अपूर्व योग्यता दिखायी, तब सब लोगों ने यही कहा, कि “यदि अर्जुन की समानता कोई कर सकता है, तो वह कर्ण ही कर सकता है।”

धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि पहले से ही पाण्डव से ईर्ष्या करते थे । वे पांडवों की योग्यता और वीरता की समानता तो कर ही नहीं सकते थे, इसलिये वे हर बात में मन-ही-मन डरते और उनसे जले-भुने रहते थे । कण की योग्यता देख, दुर्योधन ने उससे मैत्री कर ली और उसे भी अपने पड़यन्त्र में मिला लिया। दुर्योधन ने इस मैत्री को पुष्ट करने के लिये मौका पाकर कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया । अब वह भी पांडववो से ईर्ष्या करने लगा ।

उसके व्यवहार में इस प्रकार का अन्तर पड़ते तथा उसे दुर्योधन आदि के नीच कार्यो का समर्थक बनते देख, गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शस्त्र आदि की शिक्षा नहीं दी ।

परन्तु प्रह्मास्त्रों के बिना किसी की बाण-विद्या पूरी नहीं हो सकती । इसीलिये कण महेन्द्र-पर्वत पर गया और वहाँ समस्त विद्याओं के पारंगत पण्डित परशुराम का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया । परशुराम बहुत दिनों से क्षत्रिय-विरोधी थें | उनकी प्रतिज्ञा थी, कि क्षत्रियों को कभी शस्त्रास्र की शिक्षा नहीं दूँगा । कर्ण को यह बात मालूम थी । अत: वह अपने को ब्राहमण बता कर उनका शिष्य बन गया । उसकी अपूर्व योग्यता देख, परशुराम हर एक विषय बडे प्रेम से सिखाने लगे और कर्ण भी बड़े ध्यान और परिश्रम के साथ उन्हें सीखने लगा । कुछ दिन व्यतीत हो जाने पर एक बार परशुराम अपनी शिष्यों सहित समुद्र-किनारे पहुँचे। शर क्रीड़ा करने के बाद परशुराम जब बहुत थक गये, तो वहीं एक पहाड़ी टीले पर लेट गये । कर्ण भी पास ही बैठा था । परशुराम बहुत ही वृद्ध थें । उन्होंने कर्ण को और भीं निकट बुलाया और उसकी जह्गा पर सिर रख कर सो गये । ठंडी हवा लगने के कारण थोड़ी ही देर में उन्हें प्रगाढ़ निद्रा आ गयी । इसी समय कोई भयकर कीड़ा पथरीली दुरारों से निकल कर कर्ण की जह्गा को छेदने लगा । कर्ण को भीषण पीड़ा होने लगी, पर चूँकि गुरुदेव जाँघ पर सिर रख कर सो रहे थे, वह न तो हट सका और न जाँघ ही उठा सका । कीड़ा जाँघ छेदता हुआ शरीर में घुसने लगा । रक्त की धारा बह चली । जब वह गर्म खून परशुराम के शरीर में लगा, तब उनकी निद्रा भंग हुई । उन्होंने उठकर सब हाल पूछा और बहुत दुख प्रकट किया । पर कर्ण की इस धीरता से और उसके रक्त की परीक्षा से परशुराम अब समझ गये, कि यह ब्राह्मण नहीं, बल्कि क्षत्रिय-कुमार है । उन्होंने उसको बहुत डॉटा और तिरस्कार किया; क्योंकि उसने उन्हें धोका दिया था। अन्त में उन्होंने उसे यह श्राप दे दिया, कि “यद्यपि तूने धोके से मेरे शिष्यत्व में रहकर सब कुछ सीख लिया है; पर याद रख, कि जब तेरे सिर पर मौत मँडराने लगेगी, तब तेरी एक भी विद्या काम न आयेगी, और तू सारा ज्ञान भूल जाएगा । “

गुरु के साथ धोकेबाज़ी करनेके कारण कर्ण वहाँ से हटा दिये गये। अब वे दुर्योधन के खास सलाहकार बने । अब ये आनन्द-पूर्वक अपना राज-कार्य देखने और दुर्योधन का मन्त्रित्व करने लगे । दुर्योधन कोई भी काम करता था , तो कर्ण की राय लेकर ही करता था । इन्होंने पद्मावती नामक कन्या का पाणिग्रकण किया। वृषसेन, शूरसेन, चित्रसेन और वृषकेतु आदि इनके पुत्र हुए । इनकी राजधानी चम्पानगर में थी । (कुछ लोग कहते हैं, कि बतेंमान भागलपुर ही चम्पानगर है )

एक बार दुर्योधन आदि चित्रांगद राजकन्या की स्वयंवर-सभा में पहुँचे थे । उस समय उस कन्या को हरण करने के काम में कर्ण ने दुयोंधन की बड़ी सहायता की थी । इसी समय मगध-राज जरासन्ध के साथ उनका युद्ध हुआ । इस युद्ध में कर्ण ने जरासन्ध को नीचा दिखाया । जरासन्ध ने इनकी वीरता पर मुग्ध होकर इन्हें मालिनी नाम की नगरी दे दी ।

यह तो हुई कर्ण की वीरता की बात । वीरगण स्वभावतः दानी भी होते हैं । कर्ण की दानशीलता जगप्रसिद्ध थी । अर्जुन के कहने से एक बार देवराज इन्द्र इनके यहाँ ब्राह्मण के रूप में पहुँचे । दाता कर्ण प्रत्येक भिक्षार्थी को मुँह-माँगी वस्तु दान करते थे । इन्द्र ने उनसे वह कवच और कुंडल माँगे, जो कर्ण को अपने पिता सूर्य से प्राप्त हुए थे । कर्ण जानते थे, कि ये दोनों वस्तुएँ जब तक उनके पास रहेंगी, तब तक कोई उन्हे मार नहीं सकेगा । वे कवच और कुंडल उनके लिये कितने मूल्यवान थे, यह इसी से मालूम हो जाता है की कवच-कुण्डल क्या थे, कर्ण के प्राण थे । पर कर्ण दाता थे और कभी किसी याचक को निराश लौटाना तो वे जानते ही नहीं थे । उन्होंने वैसे मूल्यवान कवच-कुंडल भी प्रसन्नता के साथ प्रदान कर दिये ।

कहा जाता है, इनकी दानव्यता की परीक्षा के लिये एक बार भगवान स्वयं ऋषि बनकर आये थे और इनके सबसे छोटे पुत्र-रत्न वृषकेतु का मांस खाने की इच्छा प्रकट की थी । कर्ण ने इससे भी मुँह नहीं मोड़ा ।

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