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महाराज हरिश्चंद्र की कथा | Raja Harishchandra Katha

महाराज हरिश्चंद्र की कथा | Raja Harishchandra Katha

सतयुग के अन्तिम कालमें सूर्य वशी इक्ष्वाकु वंश में सत्यवादी महाराज हरिश्चंद्र अयोध्या में राज्य करते थे । वे बड़े सतगुणी महापुरुष थें और सदैव पुण्य और तप करने में ही उनका समय व्यतीत होता था । वे बड़े ही विद्वान, सत्यवादी, पराक्रमी, दाता, धर्मवान और दयावान थें । उनके राज्य में सत्य का ही शासन था – सत्य ही न्याय था, और सत्य के सिवा कहीं भी मिथ्या व्यवहार न था। राजा और प्रजा में खूब प्रेम था । मनुष्य-मनुष्य में पूर्ण समानता थी और उस धर्मराज्य में कोई मनुष्य किसी से बढ़ कर सुख-सुभीते नहीं चाहता था । सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के राज्य में न्याय का तराजू सबके लिये बराबर था । उनकी सती-साध्वी महारानीं शैच्या (कुछ स्थानो पर इन्हे तारामती से नाम से भी जाना गया है) भी धर्म, सत्य, और न्याय के प्रति वैसा ही अनुराग रखती थीं।

राजा, रानी सब तरह सुखी थे, पर उन्हें कोई सन्तान न होने से उनका सुख सन्ताप में परिणत हो जाता था । महर्षि वसिष्ट उनके कुल-गुरु थे, और उन्होंने राजा से वरुण देव की उपासना करने के लिये कहा । राजा ने वैसा ही किया । वरुण की कृपा से महारानीं शैव्या को रोहित नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ, पर इसमें शर्त यह थी, की वरुण देव की तुष्टि के लिये राजा उस पुत्र की बलि चढ़ायें । पुत्र-मोह से राजा वैसा न कर सके, इस लिये वरुण के कोप से राजा को जलोदर रोग हो गया । राजकुमार रोहित अपने पिता के कष्ट दूर करने के लिये, अपनी बलि देने को तैयार हो गया । पर वसिष्ठ ने अपनी युक्ति से रोहित को बचाया; वह इस तरह कि एक ब्राह्मण को सौ गायें देकर उसका लड़का खरीद लिया । उस ब्राह्मण-पुत्र का नाम था शुन:शेफ। फिर यह निश्चय हुआ, कि रोहित के बदले इसी लड़के की बलि चढ़ायी जाये । किन्तु विश्वामित्र को उस लड़के पर दया आयी। उसका प्राण बचाने के लिये उन्होंने उससे वरुण देव की आाराधना करने के लिये कहा ।

लढ़के की आराधना से वरुण प्रसन्न हुए । उन्होंने उसका वलिदान लिये बिना ही हरिश्चन्द्र का रोग दूर कर दिया । महाराज हरिश्चंद्र चक्रवर्ती नरेश थे, अब उन्हें राजसूय यज्ञ करने को सूझी । यज्ञ निर्विघ्न समाप्त होने पर एक दिन विश्वामित्र आये । गुरु वसिष्ठ ने विश्वामित्र से राजा की सत्य-प्रियता, उदारता और दान-शीलता की बड़ी प्रशंसा की । लेकिन विश्वामित्र ने ये सब बाते पहले नहीं मानीं, वसिष्ठ के आग्रह करने पर विश्वामित्र ने राजा की परीक्षा लेने का निश्चय किया ।

एक दिन राजा हरिश्चंद्र जंगल में शिकार खेलते हुए मार्ग भूल गये । उसी समय विश्वामित्र एक ब्राम्हण के रूप में पहुँचे, और राजा से कुछ याचना करने लगे । राजा ने उन्हें अपनी राजधानी में बुलाया, अचानक एक दिन विश्वामित्र दरबार में उपस्थित हुए और बोले – “राजन ! यदि आप मुझसे अभिलषित वस्तु दे सकते हैं, तो अपना राज्य और सर्वसुख अर्पण कर दीजिये ।”

राजा अत्यन्त दानी और उदार थे । ज्ञानी ऋषियों और ब्राम्हणो को सन्तुष्ट करने में वे कभी किसी भी त्याग से नहीं हिचकते थे । उन्होंने तुरन्त अपना राज्य और सर्वस्व विश्वामित्र को अर्पण कर दिया । इसके बाद विश्वामित्र ने उनसे उचित दक्षिणा भी माँगी । अब राजा दक्षिणा कहाँ से दे ? क्योंकि राजपाट और सब खज़ाने तो वे पहले ही दान कर चुके थे। स्त्री और पुत्र के अतिरिक्त उनके पास कुछ भी न बचा था । प्रजा उस समय रो रही थी । राज्य में सर्वत्र शोक छा गया था ।

राजा जब अपने पुत्र और स्त्री सहित विदा होने लगे, तब विश्वामित्र ने सामने पहुँचकर उन्हें दक्षिणा देने की प्रतिज्ञा की याद दिलायी । राजा ने छाती ठोंककर कहा – “हाँ, भगवन् अवश्य दूँगा, पर मुझे थोड़ा समय दीजिये।” विश्वामित्र ने कितनी ही बाधाए उपस्थित कीं, पर हरिश्चन्द्र उन सबको पार करके काशी पहुँचे । काशी में भी विश्वामित्र ने ब्राम्हण का वेश बनाकर उनकी कितनी ही कठिन परीक्षाए लीं, पर सत्यावादी हरिश्चन्द्र सभी में उत्तीर्ण होते गये । विश्वामित्र को दक्षिणा देने के लिये अन्त में हरिश्चन्द्र ने अपनी रानी शैव्या और पुत्र रोहित को एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया ।

विश्वामित्र के आने पर हरिश्चन्द्र ने उन्हें वह धन दे दिया और कहा – “भगवन् ! अपनी स्री और पुत्र को बेचकर यह धन पाया है, इसे लीजिये और मुझे ऋण से मुक्त कीजिये ।” पर विश्वामित्र इससे सन्तुष्ट न हुए । उन्होंने कहा कि – “मुझे एक महान् यज्ञ करना है जिसके लिए यह धन तो बहुत कम है ।“ अंत मे विश्वामित्र के बहुत आग्रह करने पर हरिश्चंद्र को स्वयम्‌ ही एक डोम के हाथ बिकना पढ़ा और जो धन मिला, वह उन्होंने प्रसन्न चित्त से विश्वामित्र को दे दिया। देवतओ ने ने राजा की बड़ी प्रशंसा की ।

राजा हरिश्चन्द्र अब चाण्डाल की दासता करने लगे । ये शमशान में रहकर, दाह-कर्म करने वालों से कर लेतें थे और उनके मुर्दे जलाते । उधर उनकी रानी शैव्या पुत्र सहित उस ब्राम्हण के यहाँ दासता करती । एक दिन राजकुमार रोहित ब्राम्हण के लिये फूल चुनने को गया और जब फुल लेकर लौटा, तो विश्वामित्र द्वारा प्रेरित एक सर्प ने रोहित को डस लिया । रोहित की उसी समय मृत्यु हो गयी । रानी ने जब पुत्र की मृत्यु सुनी, तो वह बेचारी बडी़ दुखी हुई । रोती हुई रानी अपने पुत्र का दाह-कर्म करने के लिये शम्शान पहुँची । डोम का काम करने वाले राजा हरिश्चन्द्र ने रानी को न पहिचाना और वे उससे श्मशान का कर माँगने लगे ।

शैव्या ने रोकर कहा कि – “मैं एक अनाथिनी अबला हूँ, मेरे पास देने के लिये कुछ भी नहीं है।” रानी अपना राज-सुख याद करके बहुत विलाप करके रोने लगी, तब हरिश्चन्द्र ने उसे और रोहित को पहिचाना । विलाप करने लगे । फिर वे शैव्या का कर माफ़ी कराने के लिये अपने चाण्डाल स्वामी के पास गये । इधर विश्वामित्र की माया ने शैव्या को लड़के के रक्त से रंग दिया और उसे बालघातिनी(अपने ही पुत्र का वध करने वाली) प्रसिद्ध किया । इस बीच में चाण्डाल सहित हरिश्चन्द्र भी वहाँ आ पहुँचे|

चण्डाल ने हरिश्चंद्र को आज्ञा दी, कि इस बालघातिनी स्त्री को मार डालो । लाचार होकर हरश्चिन्द्र ज्योंही खडग लेकर उसे मारने के लिये खड़े हुए, उसी समय विश्वामित्र सहित देवताओं ने पहुच कर हरिश्चंद्र का हाथ पकड़ लिया । उन्होंने राजा के सत्यव्रत की बड़ी प्रशंसा की। राजकुमार पुनः जीवित कर दिया गया ! विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर अपने कितने ही तपका फल राजा को दिया । हरिश्चंद्र को राज-पाट सब मिल गया, और वे फिर अयोध्या में सत्य-धर्म का राज्य दीर्घ काल तक करते रहे । अन्त में रोहित को राज्य देकर वे सूरपुर सिधार गये ।

अनन्त विपत्तियों में भी मनुष्य को धैर्य तथा सत्य को नहीं खोना चाहिये, यही शिक्षा सत्यवादी हरिश्चन्द्र से मिलती है ।

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