अकबर के दीन-ए-इलाही का पूरा सच | Deen e llahi | Deen-e-ilahi

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अकबर के दीन-ए-इलाही
का पूरा सच 

Deen e llahi | Deen-e-ilahi


दीन-ए-इलाही शब्द का अर्थ है परमात्मा का
अपना धर्म या व्यवस्था।
भारतीय
इतिहास की अधिकांश पुस्तकों में इसे श्रेष्ठ धर्म के रूप में प्रस्तुत
किया गया
है जिनका ताना-बाना अकबर ने अपनी प्रजा की धर्म-भावना
की तृष्टि
के लिए और उसकी प्रसन्नता के लिए बुना । कहते हैं कि अक
र को जितने
धर्मों की जानकारी थी
, उन
सबको मिलाकर उसने यह धर्म
तैयार किया। दीन-ए-इलाही घर्म का प्रादुर्भाव अतिशय अहंमन्य
अकबर और अत्यधिक धर्मान्ध मुस्लिम मुल्लाओं
, जिनमें काजी, मोलवी
और मौलाना लोग शामिल थे
, निरन्तर कटु-संगर्ष के
फलस्वरूप हुआ। यह मुल्ला
वर्ग परम्परागत विचारों में पला हुआ था। सर्वशक्तिमान
तानाशाह के रूप में अकबर अपने किसी भी निरंकुश कार्य पर कोई अंकुश या प्रतिबन्ध
जगाये जाने या उस पर कोई आपत्ति किये जाने की बात सहन नहीं कर सकता
था | दूसरी ओर मुस्लिम मूल्ला वर्ग इस
बात से परेशान था कि अकबर उनके निजी विवाहित जीवन पर प्रहार करता था
, उनकी
पत्नियों और बहनों को मादक द्रव्य
, अफीम आदि खिलाकर और उनका अपहरण
करके उन्हें
अपने
हरम में ले जाता था और उनकी सम्पत्ति को लूट लेता था या जब्त कर लेता था। उसके
निरंकुश और तानाशाही आचरण से तंग आकर वे उसके विरुद्ध धार्मिक आपत्तियाँ उठाते और
प्रतिबन्ध लगाते । अकबर उनका विरोध करता और यह दावा करता कि मुझ पर तुम्हारे नियम
लागू नहीं होते
क्योकि
मैं अपने ही धर्म का पालन करता हूँ कि स्वयं परमात्मा का धर्म है ।

इस प्रकार ध्यानपूर्वक अध्ययन करने पर पता
चलेगा कि जिसे अकबर का आश्चर्यकारी धर्म कहा जाता है
, वह
वास्तव में धर्म की विपरीत दिशा है या उसके निरंकुश और तानाशाही व्यवहार पर लगाये
गए सभी
धार्मिक प्रतिबन्धों
के प्रति विद्रोह मात्र है। अकबर के दरबार में रहकर अध्ययन करने वाले ईसाई पादरी
मनसरेंट ने यही बात लिखी है कि दीन-ए-इलाही मनुष्यों की आत्माओं को कुण्ठित करने
का एक दोमहा ढंग था
| धर्म
क्या है
, उसकी
जाँच के लिए कुछ निश्चित कसौटियाँ निर्धारित हैं। हर धर्म के अपने मन्दिर अथवा
पूजा-स्थल होते हैं। दीन-ए-इलाही का ऐसा कोई उपासना-गृह नहीं था। हर धर्म में एक
पुजारी वर्ग होता है
, हर धर्म की प्रार्थनायें होती हैं, हर
धर्म में संसार के अस्तित्व की अपनी कुछ व्याख्या होती है
, परित्राण
पाने का अपना ढंग बताया जाता है
, परन्तु दीन-ए-इलाही में यह कुछ नहीं था।
इसलिए कहना होगा कि किसी कसौटी पर परखे
बिना दीन-ए-इलाही को धर्म कहकर इतिहासकारों ने एक बड़ी गलती
की है। पादरी मनसरेंट ने
एक टिप्पणी में कहा है कि दीन-ए-इलाही की एक
मुख्य बात यह थी कि अकबर पर ईमान लाओ।
अकबर हंवादी व्यक्ति था और उसकी सदा यह इच्छा रहती थी कि लोग उसे बादशाह, सर्वशक्ति-सम्पन्न, पैगम्बर, परमात्मा
सभी कुछ मानकर उसके आगे नत-मस्तक हों।


अकबर ने मुल्लाओं के आदेशों का जो उल्लंघन
किया
, उसे
बहुधा इस बात के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि अकबर धर्मान्ध भुसलमान
नहीं था। अकबर अहंवादी व्यक्ति था और वह चाहता
था कि लोग
उसे परमात्मा और पैगम्बर मानें। परन्तु हृदय से
वह हमेशा र्मान्ध
मुस्लिम था ।


मनसरेंट ने धर्म के सम्बन्ध में अकबर की
धूर्तता को गलत न समझ लेने की चेतावनी दी है । उसने लिखा है
, “अकबर
उसी तरह व्यवहार करता रहा। उसने पोप की प्रशंसा की और पुतंगाली पादरी से कहा कि जब
वह अकबर का दूत बनकर युरोप
जाये  तो
वहाँ जाकर उसकी ओर से पोप के चरण-स्पर्श करे और उसके लिए पोप से कुछ लिखित सन्देश
लाये । वह ऐसी बातें कहता था जो कोई पवित्र आत्मा राजा ही कह सकता है । उसने यहां तक
घोषणा की कि मैं मुसलमान नहीं हूं
, मैं मुहम्मद के धर्म को नहीं
मानता और मैं केवल परमात्मा को मानता हूँ जिसका कोई
प्रतिद्वंदी नहीं
।”

      

अकबर क्योकी मौलवियों का विरोध किया करता था और कहता था
कि मैं मुसलमान नहीं हूँ इसलिए उनका धार्मिक अधिकार मुझ पर
नही चल सकता ।
परिणाम यह हुआ कि गरीब मौलवियों और बदायूनी जैसे धर्मान्ध इतिवृत्तकारों ने अपनी
सभी दैवी आपदाओं के लिए अकबर को दोष दिया। अत्याचारी अकबर की प्रजा होने के कारण
उनके पास अकबर की भर्त्सना करने का एक ही हथियार था और वह यह कि वे उसे धर्म का परित्याग
कर देने वाला कहे । उन दिनों के धार्मिक परम्परावादो मुल्लालोग बादशाह के विरुद्ध
धार्मिक प्रतिबन्ध
लागू कर सकते थे परन्तु अकबर तो मौलवियों से अधिक टेढा
था,  इसलिए
मौलवी लोग
क्रोधित
होने से अधिक कुछ भी नहीं कर सकते थे ।


मनसरट ने लिखा है कि
मौलवियों को चुनौती देने के लिए अकबर मुहम्मद साहब द्वारा नियत समय पर नमाज अदा
नहीं करता था और रमजान के दिनों में रोजे भी नहीं रखता
था | कई बार वह मुहम्मद का उपहास करता
था
, इससे
बहुत से
मुसलमान
नाराज हो गये जिनमें एक व्यक्ति
ख्वाजा शाह मंसूर भी है। मुहम्मद का उपहास करने में
अकबर का आशय यह था कि उसके सभी प्रजाजन उसे पैगम्बर और परमात्मा मानें। इसका यह आशय
नहीं है कि अकबर ने अपनी निपट धर्मान्धता त्याग दी। दूसरे धर्मों से प्रभावित होने
का स्वाँग करके अकबर मौलवियों को सोच में डाले रखता था। इस तरह मौलवियों के मन में
हमेशा यह भय बना रहता था कि कहीं अकबर इस्लाम का परित्याग न कर दे। वे जानते थे कि
यदि बादशाह ने कोई दूसरा धर्म अपना लिया तो उनका क्या हाल होगा। या तो उन्हें
धर्म-परिवर्त

करने को विवश किया जायेगा या तंग करके मार दिया जायेगा। मौलवियों के सामने इस भय
को लगातार बनाये रखने की दृष्टि से अकबर बहुधा दूसरे
धर्मो के प्रति
अपने प्रेम का दिखावा करता रहा जिसका उद्देश्य यह था कि मौलवी लोग उसकी कामासक्ति
पर आपत्ति न कर सकें। वह अन्य धर्मों के पुरोहितों को अपने आसपास बनाये रखता था।
इसके दो लाभ थे
, एक
तो यह कि यह देखकर उसके अहं की तुष्टि होती थी कि सभी धर्मों के प्रमुख लोग उसके
चारों ओर रहते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं। दूसरे
, इससे
मुस्लिम मौलवी लोग उससे दूर ही बने रहते थे। मनसरेंट
ने लिखा है कि
“जब ईसाई पादरी लोग महल के क्षेत्र में जाकर बस गये तब अकबर उनके आवासों पर गया
और उसने ईसा और मरियम के प्रति श्रद्धा के रूप में साष्टांग दण्डवत् किया।” मनसरेंट
ने यह भी लिखा है कि किस तरह अकबर के शासनकाल में इस्लाम का पूर्णतः बोलबाला था । दौलापुरम्
(धौलापुर) आगरा से
, जोकि राज्य की राजधानी है, और
फतेहपुर से
,
जहाँ
यह महान् बादशाह रहता है
, एक बराबर दूरी पर है। मुसलमानों के धार्मिक
उत्साह के कारण असंख्य मन्दिर नष्ट हो गये हैं। हिन्दू मन्दिरों की जगह पर
मुसलमानों के
मकबरे और दरगाहें बना दी हैं
, जहाँ
उन लोगों की इस तरह पूजा की जाती है मानो वे सन्त हों।”


इससे भारत के इतिहासकारों को विश्वास हो जाना
चाहिए कि भारत में मध्यकाल के जो मुस्लिम मकबरे और मस्जिदें मिलती हैं वे प्राचीन हिन्दू
मन्दिर और राज-प्रासाद थे। इनसे इस भ्रान्त प्रचार का भी विश्वास नहीं कर लेना
चाहिए कि मुसलमानों ने जो भवन बनाये उनमें वे मुस्लिम और हिन्दू शैलियों को मिलाना
चाहते थे। इसलिए यह कहना ग़लत होगा कि हिन्दू शैली से प्रभावित होकर अक
र ने
फतेहपुर सीकरी का निर्माण किया।


विसेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर
द्वारा चलाये गये धर्म दीन-ए-इलाही को मानने वालों की संख्या कभी भी काफी नहीं
रही। ब्लोचरमन ने अबुल फ़ज़ल और बदायूंनी से १८ प्रमुख नाम एकत्र किये हैं। इस
सूची में बीरबल ही एकमात्र हिन्दू था। अबुल फ़जल के कत्ल के बाद इस संस्था के
जीवित रहने की आशा नहीं की जा सकती थी
, क्योंकि बदायूनी के अनुसार वह अकबर का सबसे बड़ा चापलूस था
और वह लोगों से कहा करता था कि अपना सम्पूर्ण धार्मिक ईमान अकबर पर ला
, वह इसका सबसे बड़ा समर्थक था और
अकबर
की मृत्यु
के बाद तो इसका कोई अस्तित्व न रहा। यह सारी योजना अकबर के अहं का परिणाम थी जो
स्वयं निरंकुश तानाशाही शासन का परिणाम था । दीन-ए-इलाही अकबर की मूढ़ता का
परिचायक था
, बुद्धिमानी
का नहीं।


स्मिथ ने दीन-ए-इलाही को निराधार धर्म कहकर
ठीक ही किया है। सच्चाई यह है कि अकबर के इस
धर्मका
उद्देश्य केवल यह था कि धार्मिक और सामाजिक सब चीजों पर उसका प्रभुत्व हो ।

           

यह याद रखना चाहिए कि स्वयं अकबर इस नये धर्म
का अनुपालनकर्ता नहीं था । यदि उसने
किसी नये धर्म की स्थापना की होती तो वह सबसे पहले यह घोषणा
करता कि मैं इस धर्म का अनुयायी हूं और अब मुझे मुसलमान न माना जाये। ऐसी स्थिति
में वह अपनी पत्नी और अपने बच्चों का नाम बदल देता । यदि नया धर्म बना होता तो वह
मुस्लिम मौलवियों को भगा देता और उनके स्थान पर नये धर्म के मौलवियों को रखता ।
यदि अकबर ने वास्तव में एक नये धर्म की स्थापना की थी तो उसके पास इतना सैनिक बल
था कि वह हजारों व्यक्तियों को नया धर्म स्वीकार करने पर विवश कर सकता था
|
                    

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