श्री मन्मथनाथ गुप्त । Manmath Nath Gupta

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श्री मन्मथनाथ गुप्त । Manmath Nath Gupta

श्री मन्मथनाथ गुप्त का जन्म बनारस में ७ फरवरी १९०८ में एक प्रतिष्ठित बैद्य-वंश में हुआ था । इनके पितामह श्री आद्यानाथ गुप्त १८८० ई० में हुगली (बंगाल) से बनारस जा बसे थे। इनके पिता का नाम श्री बीरेश्वर गुप्त था । बचपन से ही श्री मन्मथनाथ गुप्त बड़े तेज़ और प्रतिभावान व्यक्ति थे । ५ वर्ष की अवस्था में ही गणित के कठिन-कठिन प्रश्न बड़ी आसानी से हल कर देते थे । इनके पिता ने इन्हें किसी स्कूल में न भेज कर अपनी ही देख-रेख में प्रारम्भिक शिक्षा दी । उसके बाद इन्हें एक संन्यासी बनाने के उद्देश्य से एक सन्यासी गुरु के पास संस्कृत पढ़ने के लिये भेज दिया ।

दो वर्ष तक ये अपने पिता के साथ वीराटनगर (नेपाल) में रहे । वहाँ से आने के कुछ ही दिनों बाद असहयोग आन्दोलन चला और इनके पिता ने इन्हें काशी के गान्धी राष्ट्रीय विद्यालय में भर्ती करा दिया, जहाँ वे स्वयं भी शिक्षक थे । इन्हीं दिनों १९२१ ई० में युवराज भारत में आये थे और सबके बहिष्कार के लिये हर जगह हड़ताल आदि की गयी । इसी सम्बंध में बनारस में वहाँ के नेताओं के साथ बहिष्कार और हड़ताल का नोटिस बाँटते हुए वे भी गिरफ्तार हुए और तीन महीने की जेल की सज़ा काट आये ।

उस दिन नोटिस बॉटते वक्त इनके पिता ने जब इनसे कहा, कि “तुम नोटिस तो बाँट रहे हो; पर इसके कारण तुम्हें जेल जाना पड़ेगा । तुम्हारी उम्र अभी सिर्फ १४ साल की है । तुम क्या जेल की यातनाओ को बर्दाश्त कर सकोगे ? ” उत्तर देते हुए श्री मन्मथनाथ गुप्त ने बडी बहादुरी से कहा, -“बाबूजी ! मैं अपनी मातृभूमि के लिये सब कुछ सहने को तैयार हूँ। “

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इस मुकदमे में फँसने के पहले से ही ये सार्वजनिक काम में भाग लेने लगे थे । तीन महीने की सजा काट कर जेल से निकलने के बाद वे महात्मा गान्धी द्वारा स्थापित सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय संस्था काशी विद्यापीठ में भर्ती हो गये और वहाँ की ‘विशारद’ परीक्षा (मेट्रिक) पास कर विद्यापीठ के कालेज में पढ़ने लगे । इन्हीं दिनों (१९२३ ई) इनकी भेंट बंगाल के एक सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी से हुई और बहुत बहस तथा सोच-विचार के बाद, जब इन्हें यह विश्वास हो गया, कि इसी रास्ते से भारत का अधिक कल्याण होगा, तथ ये क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गये । काकोरी के डाके के बहुत पहले से ही पुलिस की नज़र इन पर गड़ गयी थी और बराबर इनका पीछा किया जाता था । काकोरी षड़यन्त्र की गिरफ्तारी की तारीख २६ सितम्बर १९२५ को ही ये गिरफ्तार कर लिये गये । षंडयन्त्र के मुकदमों की सब बातो की इन्हें जानकारी न थी और इस कारण इन्होंने यह समझ लिया था, कि मुझे फाँसी हो जायेगी । यह सोचकर उन्होंने एक दिन अपने पिताजी जब जेल में इनसे मिलने गये थे, से कहा, कि “अब मुझे इस संसार से चला ही जानिये। यह कहते वक्त पिताजी के सामने ही उनकी अँखों में ऑसू के आ गये। बहादुर पुत्र के उस वीर पिता ने कहा, “I don’t expect tears in the eye of my son”) अर्थात् – मैं अपने पुत्र की आँखों में ऑसू देखने की आशा नहीं करता ।’

काकोरी के हवालातियों में एक को छोड़कर संभवतः सबसे छोटे श्री श्री मन्मथनाथ गुप्त ही थे । फिर भी ये बहुत गम्भीर थे । इनकी यह गम्भीरता उनके विशेष अध्ययन के फलस्वरूप थी । मुकदमे में ये मुख्य अपराधियों में एक समझे जाते थे तथा सरकार की दृष्टि में बड़े खतरनाक व्यक्ति गिने जाते थे । मुकदमे में सेशन्स से इन्हें १४ साल की सख्त कैद सज़़ा मिली । पुलिस ने इसे कम समझ कर अपील की; पर इनके मामले में उसे मुँह की खानी पड़ी । इनकी सज़ा और अधिक न बढ़ी । सज़ा के बाद श्रीविष्णु शरण दुबलिस के साथ नैनी जेल में भेजे गये । वहाँ साधारण कैदी सा व्यवहार होने के विरोध में दल की आज्ञा के मुताबिक इन्होंने भी अनशन शुरू कर दिया और लगातार ४६ दिनों तक बराबर अनशन करते रहे । अन्त में देश नेताओं के कहने से उन्होंने अनशन त्याग दिया । इसके पहले हवालात में रहते समय भी सबके साथ इन्होंने भी १५ दिनों तक अनशन किया था ।

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