राजा नन्द कुमार केस । Trial of Raja Nandkumar Case
राजा नन्दकुमार का जन्म भद्रपुर में सन् १७०५ ई० में हुआ था । इनके पिता पद्मनाम एक प्रतिष्ठित और प्रभावशाली व्यक्ति थे । वे बंगाल के नवाबों के यहाँ एक उच्च पदाधिकारी थे । बाल्यावस्था से ही नन्द कुमार बड़े तेजस्वी, बुद्धिमान और साहसी थे । फारसी भाषा उस समय की राजभाषा हुआ करती थी, इसलिये उन्होंने बंगला और फारसी भाषाओं का अच्छा अभ्यास कर लिया था ।
उस समय बंगाल की बड़ी ही विचित्र दशा थी । अलीवर्दी खाँ अपने स्वामिपुत्र का वध करके राजगद्दी पर बैठ गया था । अंग्रेजो का प्रभाव बंगाल में बढ़ता जा रहा था । राजा नन्द कुमार नवाब अलीवर्दी खाँ के यहाँ राज्य-कर संग्रह करने के लिये नियुक्त किये गये थे । नन्द कुमार उदार चित्त के व्यक्ति थे, इसलिये अधिक कड़ाई से कर वसूल नहीं करते थे । अन्त में नवाब ने उन्हें निकाल दिया ।
अलीवर्दी खाँ की मृत्यु के बाद उनके दौहित्र सिराजु दौला गद्दी पर बैठे और वे कलकत्ते के अंग्रेज व्यापारियों पर कड़ी नज़र रखने लगे । सिराजु दौला ने कलकत्ता में अंग्रेजो का दमन किया था । इसके बाद नन्द कुमार हुगली के दीवान बनाये गये । इसी समय नन्द कुमार ने अंग्रेजो को एक लड़ाई में परास्त किया था । पलासी-युद्ध के बाद जब अंग्रेजो का प्रभाव बंगाल में और भी बढ़ा, तो फिर उनकी मित्रता नन्द कुमार से हो गयी थी । इसलिये उन्होंने उन्हें कई ज़िलो का कर वसूल करने का काम दिया । इससे नवाब मीरज़ाफर नन्द कुमार को अंग्रेजो का मित्र समझ कर उन पर अविश्वास करने लगा ।
अंग्रेजो ने मीर जाफ़र को गद्दी से उतार कर जब मीर कासिम को बैठाया, किन्तु बाद में अंग्रेजो ने फिर कासिम को राज्य से हटाकर मीरजाफर को पुनः नवाब बनाया, तब नन्द कुमार को अपना मददगार समझकर मीर जाफर उन्हें मुशिदाबाद ले गये और नन्द कुमार को अपना मन्त्री बनाया।
उस समय कई घटनाए ऐसी हुई, जिनके कारण नन्द कुमार ने अंग्रेजो के अत्याचारों का घोर विरोध किया । इससे अंग्रेज उन पर बहुत नाराज हुए । अंग्रेजो ने देखा, कि नन्दकुमार जब तक नवाब के मन्त्री रहेंगे, तब तक नवाब से रुपये नहीं ऐठे जा सकेंगे । इसलिये उन्हें हटाने के लिये अंग्रेज उनकी झूठी शिकायत करने लगे ।
लकाइव के भारत से चले जाने पर बारेन हेस्टिंग्स यहाँ का गवर्नर जनरल हुए । उसके क्रूर शासन से सब तरफ त्राहि-त्राहि मची थी; पर हेस्टिग्स ठीक ब्रिटिश-नीति के अनुसार प्रभाव बढ़ाता जाता था । नन्द कुमार पर एक मुक़दमा चलाया गया, पर वे बेदाग छुट गये । इसके बाद जाली दस्तावेज़ों के लिये उन पर ५ मई सन् १७७५ को फिर मुकदमा चलाया गया । वे दोषी प्रमाणित किये गये और १६ जून को उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गयी । निरपराध राजा नन्दकुमार को अन्यायपू्र्वक ५ अगस्त १७७५ को फॉसी दे दी गयी ।
बंगाल का एक अपूर्व रत्न अंग्रेजो के अन्याय का पुरी तरह से शिकार हुआ ।