हाड़ी रानी का इतिहास । Hadi Rani Story in Hindi

हाड़ी रानी का इतिहास । Hadi Rani Story in Hindi

देश, धर्म तथा स्वाधीनता के लिए भारत की वीर ललनाएँ किस प्रकार अपने पतियों को उत्साहित कर उन्हें कर्तव्य पर स्थिर रखने के लिये आत्म-बलिदान करती थीं, इसका सीधा उदाहरण हडान्त आल्मत्यागिनी हांडी रानी की जीवनी से स्पष्ट हो जाता है ।

जिस समय नवयौवना स्त्री के मोह में पड़कर कर्तव्य से विचलित हो रहा था, उस समय उसकी स्त्री ने उनको कर्तव्य पर स्थिर रखने के लिये अपनी जो बलि चढ़ायी है, वह अतुलनीय है । उसकी तुलना संसार के किसी बलिदान से नहीं की जा सकती ।

रूप नगर की राजकुमारी प्रभावती का विवाह उनके पिता विक्रम सिंह विवस होकर औरंगजेब के साथ करना चाहते थे । लेकिन आत्माभिमानिनी प्रभावती किसी दीन क्षत्रिय से विवाह करना पसन्द करती; पर एक विधर्मी यवन सम्राट से नहीं । इसलिये उसने विधर्मी के अत्याचार से पीड़ित हो,महाराणा राजसिंह की शरण ली । वीर राजसिंह ने प्रभावती की मदद करना अपना धर्म तो माना; पर मुगल-सम्राट औरंगजेब की बड़ी सेना का मुकाबला करना खेल नहीं था । इसलिये उन्होंने कूट-नीति का ही सहारा उचित समझा ।

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राजसिह ने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त किया । थोड़ी-सी सेना लेकर वह स्वयम्‌ रूपनगर जाना चाहते थे पर मुगल सम्राट की सेना को राह में ही रोके रखने के लिये एक बड़ी सेना की आवश्यकता थी । इसलिये उन्होंने अपनी बड़ी सेना को इस कार्य के लिये भेजना चाहा । अब प्रश्न यह उठा, कि इस सेना का प्रधान नायक कौन होगा ? प्रायः सभी वीर सरदारों से पूछा गया; पर किसी की हिंम्मत इतनी थोड़ी सेना लेकर मुगलों की विराट-सेना का मुकाबला करने की न हुई । यह देखकर वीर सरदार चन्दावत से नहीं रहा गया । यद्यपि अभी २०वर्ष के नवयुवक थे, फिर भी उनका हृदय देश तथा धर्म की रक्षा के लिये सदा आतुर रहता था । इसलिये वे उसी क्षण तैयार हो गये ।

वींर चन्दावत का विवाह हांडी रानी के साथ अभी- अभी हाल में ही हुआ था । हांडी रानी को ससुराल आये अभी तीन दिन भी पूरे नहीं हुए थे । उसकी अवस्था इस समय केवल सोलह वर्ष की थी । वह जैसी रूपवती थी, गुणवती भी वैसी ही थी । पढ़ना-लिखना, सीना-पिरोना, अस्त्र-शस्त्र चलाना, आखेट करना आदि सभी गुणों में वह निपुण थी ।

जब उसे वीर सरदार चन्दावत के युद्ध में जाने की खबर मिली, तथा उसके आनन्द की सीमा न रही । उसे इस बात का गर्व था, कि चन्दावत के युद्ध से विजय प्राप्त कर आने से वह एक वीर सरदार की रमणी कहलायेगी । वीर चन्दावत अन्तःपुर में आये । हांडी रानी ने स्वयं अपने हाथ से उन्हें रणक्षेत्र के लिये सुसज्जित किया । जब वे तैयार हो गये, तब बड़ी प्रसन्नता से रानीं उनको विदा कर स्वयं परमात्मा से उनके विजय कर सकुशल लौट आने की प्रार्थना कर रही थी, कि इतने में अपने पतिदेव को लौटते देख, बड़ी आश्चर्य हुई और उनसे लौटने का कारण पूछा । चन्दावत ने कहा,-“प्राणवल्लभे ! मेरी इस युद्ध से लौट आने की कोई आशा नहीं है । तुम अभी नवयौवना हो, संसार के अनुभव से शून्य हो । ऐसा न हो, कि यौवन के मद में मतवाली होकर अर्थ का अनर्थ कर डालो । देखना ! कुल की लाज रखना । पतिव्रत-धर्म से पगी हुई रानी के हृदय पर चन्दावत के सन्देह-युक्त वचनो से बड़ा भारी आघात पहुँचा; पर उसे सहन करती हुई वींरवाला ने कहा, -“स्वामी ! जिस प्रकार आपलोग धर्म, देश, तथा जाति के लिये अपनी जान कुर्बान करना अपना कर्तव्य समझते हैं, उसी प्रकार हम स्त्रियां भी अपने स्वामी, धर्म, देश, जाति तथा पतितव्रत के लिये प्राण देना जानती है, । सन्तोष रखिये और सहषे युद्धमें जाइये, यदि आप विजयी होकर आयंगे, तो मैं आपको विजयमाला पहनाऊँगी और आजीवन दाम्पत्य-सुख का भोग करूगी, और यदि आप वीर-गति को प्राप्त हुए, तो निश्चय जानिये, कि मैं भी सती होना जानती हूँ । इसलिये आप निःसंकोच होकर युद्ध में जाइये । अपने कर्तव्य पथ से न हटिये।”

रानी के ये वचन सुनकर चन्दावत का उत्साह द्विगुणित हो गया, और वे सेना लेकर मुगलों का मुकाबला करने को चल पड़े । लेकिन उनका चित्त फिर विचलित हो गया और अपनी स्त्री के चरित्र सम्बन्ध में नाना प्रकार की भली-बुरी भावनाएँ उठने लगीं । अन्त में उनसे न रहा गया और उन्होंने पुरोहितजी को बुलाकर रानी के पास जाने तथा उसे अपने धर्म की रक्षा करने के लिये उपदेश देने को भेजा । हांडी रानी यहाँ आशा लगा कर बैठी थी कि विजय की खबर शीघ्र ही आयेगी और वह अपने पतिदेव को विजय-माला पहनायेगी । प्रभावती के सतीत्व की रक्षा होगी । राणावंश की लाज रह जायेगी । पर ज्योंही पुरोहितजी ने आकर सतीत्व-रक्षा की बात कही, त्योंही हांडी रानी के हृदय में ये शब्द बाण से लगे और वह फूट-फूट कर रोने लगी । वह अपने सौन्दर्य तथा पति के अविश्वास को हज़ार बार धिक्कारने लगी । फिर धीरज बाँध कर वह सोचने लगी, कि यदि मैं अपने स्वामी को अपने सतीत्व का सन्तोषजनक उत्तर न दूँगी, तो वे अपने कर्तव्य से छूट जायेंगे और राणा वंश पर भारी कलंक का टीका लग जायेगा । धर्म की नाव डूब जायेगी ।

ऐसा विचार कर हांडी रानी भीतर कमरे में गयी और एक पत्र लिख कर दासी को दिया और कहा, इस पत्र को तथा मेरे कटे हुए मुण्ड को पुरोहितजी के हवाले कर दो ।” यह कह उसने तलवार के ही वार से अपना सर धड़ से अलग कर दिया । जब वह पत्र तथा अपनी पत्नी का कटा हुआ मस्तक चन्दावत को मिला, तब उसे हर्ष और दुख दोनों हुए; पर उत्साह दूगुना हो गया । वीर चन्दावत ने उस मस्तक को अपने सीने से लगाकर रख दिया और अपने कर्तव्य का पूर्णातया पालन कर युद्ध में वीर-गति को प्राप्त हुआ।

हांडी रानी के इस बलिदान ने उसे संसार के सतीयो एक उच्च स्थान दिया । रानी इस लोक से तो चली गयीं पर अमर हो गयीं, इसकी तुलना संसार के किसी बलिदान से नहीं दी जा सकती । धन्य है वह देवी, जिसने अपने स्वामी को कर्तव्य पर स्थिर रखने के लिये अपने जीवन की भी बलि चढ़ा दी ।

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