ठाकुर रोशन सिंह की जीवनी । Thakur Roshan Singh in Hindi

ठाकुर रोशन सिंह की जीवनी । Thakur Roshan Singh in Hindi

श्री रोशन सिंह शाहजहाँपुर ज़िले के नवादा नामक ग्राम के रहने वाले थे । इस ग्राम में मुख्यतः क्षत्रिय लोगों का ही निवास था और यह गॉव साहस तथा वीरता के लिये प्रसिद्ध था । रोशन सिंह एक ऐसे लडके थे, जिन्होने अपने ग्राम मे साहस और धैर्य से सबको चकित कर दिया । चूँकि यहाँ पढ़ने-लिखने का रिवाज बहुत कम था, इसलिये ठाकुर साहब ने बचपन से ही तलवार, बन्दूक, गदा आदि का अभ्यास किया था । बन्दूक चलाने में तो ये इतने प्रवीण थे, कि उड़ती हुई चिड़िया को भी आसानी से मार गिराते थे । कुश्ती भी मे खूब लड़ते थे । यही कारण था, कि काकोरी के अभियुक्तों में श्री मुकुन्दीलाल के सिवा इनसे अधिक बलवान और कोई न था । बचपन में यद्यपि इन्हें शिक्षा नहीं मिली थी फिर भी इन्होंने अपने सामर्थ से आगे चलकर उर्दु और हिन्दी पढ़ ली थी । अंग्रेजी भी जानते थे और जेल में आकर उन्होंने बँगला भी सीख ली थी ।

ठाकुर रोशन सिंह आर्य समाजी थे । प्रायः जो धार्मिक कट्टरता पायी जाती है, वह इनमें न थी। ये बडे ही निष्ठा के साथ रहते तथा नियमानुसार पूजा-पाठ किया करते थे । इनके धैर्य और कष्ट सहिषणुता का इसी से अनुमान किया जा सकता है,कि जिस समय हवालात में थे, उसी समय इनके पिता का स्वर्गवास हो गया, पर पिता के निधन का अत्यन्त दुःख समाचार सुनकर भी ये ज़रा विचलित न हुए । ऑखों में आँसू भी न आये। केवल दो-तीन बार ज़ोर-ज़ोर से ‘ॐ तत्सत्’ कहा और फिर अपना काम नियमित रूप से करने लगे ।

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असहयोग-आन्दोलन के आरम्भ से ही इन्होंने उसमें काम करना शुरू कर दिया था और शाहजहाँपुर तथा बरेली जिले के गाँव मे घुम-घुम कर ये ग्रामीण तक स्वराज संदेश सुनाते रहे । इन्हीं दिनों बरेली में गोली चली और इस सम्बन्ध में इन्हें दो वर्षे की सख्त कैद की सजा मिली । ये सजा पुरा कर निकलने के बाद ठाकुर रोशन सिंह, श्री रामप्रसाद से मिले और क्रान्तिकारी दल में शामिल हो गये । फासी के समय इनकी उम्र लगभग २६ साल की थी । ये एक बढे ही निस्वार्थ कार्यकर्ता थे । अपनी समस्त योग्यता शक्ति तत्परता और एकाग्रता के साथ, ये आजन्म देश सेवा के काम में लगे रहे और अंत मे देश सेवा ही करते इन्होंने अपना प्राण त्यागा ।

काकोरी पड़यत्र के मामले में गिरफ्तार होने के बाद फॉसी के समय तक उनका व्यवहार एक विचित्र उदासीनता और बेपरबाही का था । उन्होंने शायद कभी यह चिन्ता नहीं की, कि मामले में क्या होगा और प्राण-दण्ड से क्या होगा ? मामला पेश हुआ, समाप्त हुआ, फॉसी की सज़ा भी हो गयी; परन्तु उनके मन में विकार उत्पन्न न हुआ । जब जैसा समय आया, तब वैसा ही व्यवहार किया । जिस बात को पकड़ा, अन्त तक उस पर हिमालय की भाँति अटल रहे । लखनऊ जेल मे जब विशेष व्यवहार की प्राप्ति के लिये अभियुक्तों ने अनशन किया, तब उन्होंने बड़ी ही वीरता का परिचय दिया । खुद लोगों की हालत डाबॉडोल थी । सरकारी कर्मचारी नली आदि के द्वारा थोड़ा बहुत दूध ज़बरदस्ती पिला दिया करते थे; किन्तु उन्होंने सिवा पानी के और कोई पदार्थ नहीं ग्रहण किया। अनशन करते थे, फिर भी कोई नैमितिक कार्य बन्द न था। दिनचर्या का पालन सदा की भाति ही होता रहा ! कहते हैं, पन्द्रह दिन के अनशन के बाद भी इनमें शिथिलता न आयी थी । यह उन्ही जैसे वीर, संयमी और मन के दृढ़ व्यक्ति का काम था ।

मामले की तमाम कार्यवाही में उनके खिल़ाफ कोई खास सबूत न था। फिर भी सेशन्स जज महोदय ने उन्हें सज़ा दे ही दी । सज़ा भी मामूली नहीं;फाँसी की । तीन अभियागों में धारा १२१ अ और धारा १२० ब के अमियोगों पर पाँच-पाँच वर्ष की सख्त कैद और धारा ३९६ के अनुसार फाँसी की सजाए दी गयी । इन्हें फाँसी होने का अन्देशा किसी को न था; इसलिये जब जज ने इन्हें फाँसी की सज़ा दी, तब इनका हिचचाना स्वाभाविक होता; परन्तु फॉसी की सज़ा सुनकर भी उन्होंने ऐसे धैर्य, साहस और शौर्य का प्रदर्शन किया, कि उसे देखकर सभी दंग रह गये। लोगों को आश्चर्य हुआ, कि जिसके खिलाफ कोई खास सबूत नहीं, उसको इतनी सख्त सज़ा कैसे दी गयी ? इसलिये जब इस मामले की अपील चीफ-कोर्ट में की गयी, तथ सबको आशा थी, कि रोशनसिंह अवश्य छूट जायेंगे । परन्तु यह आशा सिर्फ भ्रम सिद्ध हुई । चीफ कोर्ट ने भी सज़ा बहाल रखी । फिर कौंसिल के प्रस्तावों, क्षमा प्रार्थनाओं और प्रीवी कौंसिल की अपीलों के अवसर आये और सब व्यर्थ सिद्ध हुए और फाँसी देना ही निश्चित हुआ ।

फाँसी के लगभग १ सप्ताह पूर्व १३ दिसम्बर को उन्होंने अपने एक मित्र के नाम यह पत्र लिखा था:-

“इस सप्ताह के भीतर ही फॉसी होगी । ईश्वर से प्रार्थना है, कि वह आपको मुहब्बत का बदला दे । आप मेरे लिये हरगिज़ रंज न करे। मेरी मौत खुशी का बायस होगो । दुनिया में पैदा होकर मरना ज़रूर है । दुनिया में बद फेल करके मनुष्य अपने को बदनाम न करे और मरते वक्त, ईश्वर को याद करे, यही दो बातें होनी चाहिये और ईश्वर की कृपा से मेरे साथ ये दोनों बाते हैं । इसलिये मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है । दो साल से मैं बाल-बच्चों से अलग हूँ । इस बीच ईश्वर के भजन का खूब मौक़ा मिला । इससे मेरा मोह छुट गया और कोई वासना बाकी न रही । मेरा पूर्ण विश्वास है, कि दुनिया की कष्ठ-भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की ज़िन्दगी के लिये जा रहा हूँ । हमारे शास्त्रो में लिखा है, कि जो आदमी धर्मयुद्ध में प्राण देता है, उसकी वही गति होती है, जो जंगल में रहकर तपस्या करने वालों की होती है ।

ज़िन्दगी जिन्दा दिली को जान ऐ रोशन !
वरना किंतने मरे और पैदा होते जाते हैं ।।
आखिरी नमस्ते । आपका-रोशन ।”

फाँसी के दिन श्री रोशन सिंह पहले से ही तैयार बैठे थे । ज्यो ही बुलावा आया, ठाकुर रोशन सिंह गीता हाथ में लिये मुसकुराते हुए चल पड़े । फाँसी पर चढ़ते हुए उन्होंने “वन्दे मातरम्” का नाद किया और ‘ओ३म्” का स्मरण करते हुए लटक गये । जेल के बाहर उनका शव लेने के लिये आदमियों की बहुत बड़ी भीड़ एकत्र थी । देह-संस्कार करने के लिये भीड़ के लोगों ने श्री रोशन सिंह का शव ले लिया । वे जुलूस के साथ उस शव को ले जाना चाहते थे । किन्तु अधिकारियों ने जुलूस की इजाज़त नहीं दी । निराश हो, लाश वैसे ही श्मशान में लायी गयी और वैदिक विधि से शमशान-भूमि में उसका दाह-संस्कार हुआ।

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