वेलुत्तंपी दलवा का इतिहास | Velu Thampi Dalawa History

वेलुत्तंपी दलवा का इतिहास | Velu Thampi Dalawa History

उत्तर भारत में जैसे राजस्थान है, दक्षिण भारत में उसी प्रकार केरल भूमि भी वीरप्रसू कहलाती आई है। केरल के नायर राजपूतों के ही समान तलवार के धनी होते आए हैं। इसका इतिहास भी वैसा ही रक्त-रंजित और स्वाभिमानपूर्ण है। देशभक्ति मे अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले वीर और वीरांगनाएं इस पुण्यभूमि में जन्म लेते रहे हैं।

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इन राज्यों में प्रमुख था, दक्षिण केरल का वेणाटु। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण तक का काल उस राज्य के लिए अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण रहा है। इस समय के वंचि राज्य के इतिहास में दो नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं – पहला मंत्रिवर राजा केशवदास का और दूसरा वीर वेलुत्तंपी दलवा का।

केशवदास और वेलुत्तंपी अपने-अपने समय में डूबती हुई, वंचि राज्य की नौका के कर्णधार थे | ये दोनों गुरु-शिष्य थे। जिस जननी-जन्मभूमि के लिए गुरु ने जीवन और मरण को अपनाया, उसी के लिए शिष्य ने भी उसी रास्ते पर चलकर अंत में उनसे भी बढ़कर कष्ट उठाया और प्राणों की बलि चढ़ाई।

प्रजावत्सल धर्मराजा के मरते ही वंचि की राज्यलक्ष्मी का हास शुरू हो गया था | उसके बाद बालरामवर्मा महाराज राजगद्दी पर बैठे। शासन के दांव-पेच न जानने वाले उस भोले राजा को जयंत शंकरन् नंपूतिरि आदि कुछ कुचक्रियों ने वश में कर लिया। विशुद्ध चरित्र वाले मंत्री राजा केशवदास को जेल में डाल दिया गया और स्वयं जयंत शंकरन् नंपूतिरि मंत्री बन बैठा | उसको मंत्री पद से हटाने और राज्य से निकाल बाहर करने का पहला कदम वेलुत्तंपी ने उठाया। उसके बाद उन्हीं को दलवा या मंत्री का पद संभालना पड़ा।

किसी समय धन की कमी हो जाने से सेना को वेतन नहीं दिया जा सका और सेना ने विद्रोह कर दिया। उसने राजद्रोहियों के कारागृह को तोड़ डाला, जिससे वेलुत्तंपी के घोर शत्रु मेजर पद्मनाभ चंपकरामन् पिल्लै और अन्य कैदी भी मुक्त हो गए | शंकरनारायण चेट्टी तथा मात्तुतकरन के साथ मिलकर वेलुत्तंपी दलवा के वध का षड्यंत्र रचने लगे। इस समय तिरुवितांकूर का रेजिडेंट कर्नल मेकाले था। पहले वह दलवा के अनुकूल था। परंतु धीरे-धीरे दलवा के शत्रुओं द्वारा कान भरे जाने और वेलुत्तंपी दलवा की अडिग देशभक्ति तथा कर्तव्यनिष्ठा के कारण वह भी उनका विरोधी बन गया। राजमंदिर के अंदर भी उम्मिणित्तंपी मुरली भागवतर आदि महाराजा के मन में दलवा के विरुद्ध विष भरने में लगे रहते थे। दिवंगत महाराजा और गुरु राजा केशवदास अंग्रेजों की शक्ति और कुटिलता को भली-भांति जानने के कारण वेलुत्तंपी को उनकी मित्रता बनाए रखने का आदेश दे गए थे। उनके आदेश का पालन दलवा ने अपनी शक्तिभर किया। रेजीडेंट मेकाले ने १८०५ की पुरानी संधि को बदलकर नई संधि करने का आग्रह किया और कर बढ़ाने की कोशिश भी शुरू कर दी। इस संधि के नवीनीकरण की अंग्रेज़ी इतिहासकारों ने इन शब्दों में निंदा की है :-

“भारत में अंग्रेज़ी शक्ति बढ़ाने और साम्राज्य का विस्तार करने के लिए किए गए आपत्तिजनक कार्यों में सबसे अन्यायपूर्ण तिरुवितांकूर के साथ की गई द्वितीय संधि थी।”

महाराजा और जनता ने एक साथ इसके विरोध में आवाज उठाई, परंतु संधि स्वीकार न करने से और भी विपत्ति देखकर वेलुत्तंपी ने बदनामी और महाराजा की नाराजगी भी उठा कर महाराजा से उसे स्वीकार करा दिया। उनके ही अथक परिश्रम और निःस्वार्थ राज्य सेवा से राज्य की पराधीनता चार वर्ष के लिए और टल गई।

परंतु वह क्रूर अंग्रेज़ अधिकारी इतने से भी संतुष्ट नहीं हुआ। वह राज्य और प्रजा की परवाह किए बिना अधिक से अधिक कर देने के लिए दलवा को तंग करने लगा। आंतरिक शासन में हस्तक्षेप करने की चेष्टा भी उसने शुरू कर दी। इतना ही नहीं, वह दलवा को खुल्लम-खुल्ला धमकी और गालियां देने पर भी उतर आया। इन चतुर्मुखी आक्रमणों को रोकते और सहते हुए दलवा ने किसी तरह दो वर्ष बिता दिए, परंतु रेजिडेंट का व्यवहार बिगड़ता ही गया और वह शिष्टता का भी उल्लंघन करने लगा। इसी समय राजा केशवदास के वधकर्ताओं का नेता मात्तूतरकन भी छः वर्ष की कैद के बाद जेल से बाहर आ गया। वह प्रतिकार की भावना से विरोधी लोगों के साथ जा मिला। अंग्रेजों को बकाया कर देने के लिए वेलुत्तंपी ने तरकन से भी छः वर्षों का बकाया कर मांगा। उसके इंकार करने पर दलवा ने उसकी जमीन-जायदाद जब्त करने की आज्ञा दे दी, तरकन ने रेजिडेंट की शरण ली।

रेजिडेंट तो दलवा को हटाकर राजा और राज्य को अपनी मुट्ठी में करने के लिए बहाना खोजता ही रहता था। उसने दलवा को जब्ती की कार्रवाई रोकने का आदेश दिया और धमकी दी कि यदि तुमने मेरी आज्ञा उल्लंघन किया तो तुम्हें पछताना पड़ेगा। राजकाज में इस हस्तक्षेप से दलवा तिलमिला उठे | शांति से काम करना असंभव देखकर उन्होंने राजा और प्रजा की इच्छा का स्वागत किया। १८०९ में सारे राज्य में अंग्रेज़ों के विरुद्ध विप्लव हो गया | सारी प्रजा तंपी के आह्वान पर एक होकर उठ खड़ी हुई। अंग्रेज़ों के साथ भयंकर युद्ध हुआ, परंतु तलवार और भाले तोपों की आग में जलकर भस्म हो गए। वेलुत्तंपी दलवा अपने दोनों हाथों में तलवारें लिए अपने छोटे भाई पद्मनाभ तंपी के कंधे से कंधा लगाए लड़ रहे थे और शत्रुओं के सिर काट कर गिरा रहे थे।

अपने छोटे भाई के साथ भागकर वेलुत्तंपी दलवा राजभवन में पहुंचे। उन्होंने राजा को सुरक्षित देखा। उन्हें शांति मिली। उसने लिखित रूप में सारे अपराधों को उपने ऊपर ले लिया। अब उनकी सारी चिंता दूर हो गई।

शत्रुसेना बिल्कुल पास पहुंच गई थी। दलवा अपने भाई को साथ लिए मण्णटी की ओर भाग चले। वहीं उनकी इष्ट भद्रकाली का मंदिर था। दोनों भाई मंदिर के अंदर घुसे और देवी की अर्चना तथा दर्शन किए।

यहां भी शत्रसेना ने वेलुत्तंपी का पीछा नहीं छोड़ा। वे मंदिर की दीवारें फांदने और दरवाजे तोडने लगे। शत्रुओं की सेना बहुत अधिक थी। तंपी अकेले लड़ नहीं सकते थे। इसलिए उनके हाथ में पड़कर अपमानित होने से पहले उस देशभक्त वीर महापुण्य ने आत्महत्या कर लेना ही उचित समझकर कण्ण्णमूला भद्रमहाकाली को अपनी बलि चढ़ा दी।

इस प्रकार जब वीर पुरुष वेलुत्तंपी दलवा जीते जी अंग्रेजों के हाथ न लगे तब उन्होंने कण्ण्णमूला में उनके शव को ही फांसी के तख्ने पर लटका कर संतोष लाभ किया।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने रंगून में बनी बहादुरशाह की कब्र पर फूल चढ़ाते हुए एक बार भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले वीरों की प्रशंसा में कहा था :-

“भारत को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने के प्रयास में कई वीरांगनाएं और वीरपुरुष शहीद हुए है। उन महान् आत्माओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, मैसूर के हैदरअली और त्रावनकोर के वेलत्तंपी का स्मरण मैं बड़ी भक्ति और श्रद्धा के साथ कर रहा हूं……”

१४ जनवरी १९६५ को देशाभिमानी वीर वेलुत्तंपी की प्रतिमा केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के सरकारी कार्यालय के सामने वाले अहाते में स्थापित की गई।

केरल की भाषा मलयालम में इस महापुरुष को आधार बनाकर कुछ नाटकों की भी रचना हुई। जिनमें से सुप्रसिद्ध नाटककार पद्नाभ पिल्लै के “वेलुत्तंपी दलवा” नामक नाटक का हिंदी अनुवाद भी हो चुका है।

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