महाराणा प्रताप की कहानी | Maharana Pratap History in Hindi
सिसोदिया-कुल की अपार मान-मर्यादा तथा राज-पदवी प्राप्त कर महाराणा प्रताप मेवाड़ के विशाल राज्य-सिंहासन पर विराजमान हुए । वे राजा तो बना दिये गये, पर उनके पास न राज्य था, न सहाय-सम्पद् ! परन्तु राणा की आशाओं और आकांक्षाओं को कौन तोड़ सकता था ? वे निराश नहीं हुए। चित्तौड़ के गौरव का पुनरुद्धार करने के लिये उन्होंने दृढ़ संकल्प किया । वे अपने पूर्वजो और महापुरुषों की वीरतापूर्ण कीर्तिगाथा पढ़ते और सुनते आते थे । उसका प्रभाव उनके कोमल हृदय पर पड़े बिना नहीं रह सकता था । सिंहासन पर बैठते ही उनके हृदय में संचित समस्त पूर्वस्मृतियाँ जाग उठीं । प्रताप कभी ऐसी आशंका भी नहीं कर सकते थे, कि चित्तौड़ की स्वाधीनता विलुप्त होगी । मुगल सम्राट् अकबर शाह के प्रभाव में आकर प्रताप के आत्मीय स्वजन भी प्रताप के विरोधी बन गये । मारवाड़, अम्बर, बीकानेर और बूँदी के राजाओं ने भी मुगल-सम्राट् प्रलोभन में पड़कर अपनी स्वाधीनता और जातीयता को दिल्लीश्वर के सिंहासन पर न्यौछावर कर दिया था । राजपूत राजागण अज्ञान बनकर अपनी जन्म-भूमि के खुद ही मानों रक्त-पिपासु बन रहे थे । राणा प्रताप के सहोदर भाई सागरजी भी उनके दुश्मन बनने से बाज़ नहीं आये थे। वे मुगल-सम्राटो के गुलाम बन गये थे ।
परन्तु महाराणाप्रताप ? प्रताप अपनी प्रतिज्ञा से तनिक भी विचलित नहीं हुए । उन्हें माता के दूध की लाज रखनी थी । यही उनकी प्रतिज्ञा थी । इसी से घोर विपत्ति-काल में भी वे कभी धैर्य से पीछे नहीं हुए और अपने इस धैर्य एवं साहस के बल पर ही शक्ति एवम् ऐश्वर्य से सम्पन्न मुगल-सम्राट के समस्त आक्रमणों और चेष्टाओं को विफल करने में समर्थ हुए थे । लगातार पच्चीस वर्षो तक मुगल सेनाओ के छक्के छूड़ाते रहे । कभी तो वे अपने स्त्री-पुत्रादि परिवार वर्ग और थोड़े से स्वतन्त्रता-प्रेमी स्वामिभक्त जॉबाज़ सरदारों के साथ जंगलों और पहाड़ी कन्दराओं में छिप जाते हैं, कभी एकाएक प्रबल पराक्रम के साथ प्रकट होकर शत्रुसेना को गाजर-मूली की तरह काट कर ढेर कर देते थे । और फिर न जाने कहाँ किस गुफ़ा में जा छिपते थे ! उनके साथ-साथ रहने वालों के स्त्री, पुत्र, कन्या आदि के कष्टो की सीमा नहीं थी । राजकुमार और राज-कुमारिया जंगल के फल-मूल खाकर तथा झरनों का पानी पीकर किसी-किसी तरह जीवन धारण कर रही थी । कितने ही दिन बिना कुछ खाये-पीये ही बीत जाते थे । राणा प्रताप यह सब अपनी आँखों से देखते हैं, पर उनका हृदय कभी क्षण-भर के लिये भी विचलित नहीं होता । कभी सपने में भी मुगलों की कृपा के भिखारी होने की बात उन्होंने नहीं सोची ।
“बप्पा रावल का वंशधर विधर्मी के चरणों में आश्रय लेगा ?” इस बात की कल्पना भी प्रताप के हृदय में चोट पहुचाती थी । पराधीनता का अर्थ वे गुलामी समझते थे । फिर उनके वींर हृदय में यह पापपूर्ण चिन्ता क्यों प्रवेश कर सकती थी ? प्रताप के आत्मीय या सजातीय लोगों में से जिस किसी ने यवनों के साथ सम्बन्य जोड़ा था, उससे भी प्रताप ने कोई सरोकार नहीं रखा । उसे घृणा की दृष्टि से देखा ।
परन्तु जो लोग स्वाधीनता के प्रेमी थे, वे प्रताप के परम भक्त थे । वे ही प्रताप के सच्चे साथी थें । बुरे-से-बुरे दिनो में भी वे प्रताप के साथ मौजूद थे । यवन सम्राट के लाख-लाख प्रलोभन भी उन्हें भुला नहीं सके थे । वे सब तरह से प्रताप के थे और प्रताप उनके । जब कभी ज़रूरत पड़ी थीं, तभी उन्होंने प्रताप के सामने प्रसन्नता के साथ अपना हृदय निकाल कर रख दिया था । प्रताप पर शत्रु पक्ष का वार होते देखकर उनके स्वामिभक्त सरदारों ने हमेशा उसे अपनी छाती पर रोक लिया था । वास्तव में प्रताप ऐसी ही श्रद्धा और भक्ति के पात्र थे । उनकी असीम वीरता, स्वतन्त्रप्रियता और साहसिकता आज भी मेवाड़ में, पहाडों की चोटियों पर, कन्दराओं में और तराइयों में गूँज रही है ।
जननी-जन्मभूमि के शोक से प्रताप ने समस्त सुख-ऐश्वर्य पर लात मार दी । सोने और चाँदी के पात्रों को छोडकर वे पेड़ के पत्तों में खाते और घास-फूँस के बिछौने पर सोने लगे । इस प्रकार का संन्यास केवल उन्होंने स्वयं ही नहीं ग्रहण किया; बल्कि अपने समस्त परिवार के लिये भी उन्होंने ऐसी ही कठोर साधना के नियम बनाये । इसका मतलब यही था, कि जब तक मेवाड़ का मिटा हुआ गौरव पुनः प्राप्त नहीं होता, तब तक किसी प्रकार की विलास-सामग्री उपयोग में नहीं लायी जाये ।
नीतिज्ञ और विद्वान् सामन्तों की सहायता से प्रताप ने अपने राज्य के लिये कुछ नये कानून-कायदे बनवाये । सैनिकों और सेनापतियों को नयी जागीरें दीं । कमलमीर में नयी राजधानी बनवायी। राज्य में जहाँ-जहाँ पहाडी किले थे , उनकी मरम्मत करायी । प्रजाजनों को पहाडी किलों में रहने का उपदेश दिया । इसके लिये उन्हें राज्य की ओर से विशेष सुविधा भी दिये गये । राज्य के हित के लिये ही उन्होंने ये काम किये । राज्य की तमाम समतल-भूमि एकदम खाली कर दी गयी । जब तक भयंकर युद्धों का अन्त नहीं हो गया, तब तक सारी समतल-भूमि एकदम वीरान पडी रही, कहीं कोई आदमी नहीं रहा ।
सम्राट अकबर अजमेर में शिविर स्थापित कर राजपूत राजाओं को पराजित करने के लिये आ पहुँचे । एक-एक कर सभीं अकबर के चरणों पर झुक गए । कोई बल से, कोई छल से और कोई लोभ से अकबर के अधीन हो गया । सबने अकबर की वश्यता और अधीनता स्वीकार कर ली; पर एक राजा उनके फन्दे में किसी प्रकार नहीं आये और वह थे हिन्दुओं के अन्तिम गौरव सूर्य स्वयं महाराणा प्रताप ।
महाराणा प्रताप की मानसिंह से भेंट
महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा थी, कि जिन-जिन लोगों ने यवनों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर या उनकी अधीनता स्वीकार कर अपने को पतित बना लिया है, उनके साथ मैं कोई सरोकार नहीं रखूँगा । इस प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये उन्हें समय-समय पर बडी़-बड़ी विपत्तियों में रहना पड़ा था। पर वे कभी अपनी प्रतिज्ञा से डिगे नहीं थे ।
शोलापुर के युद्ध में विजयी होकर लौटते समय रास्ते में अम्बराधिपति महाराज मानसिंह कमलमीर में महाराणा प्रताप के यहाँ ठहरे । प्रताप ने उनके आतिथ्य सत्कार का पूरा प्रबन्ध करा दिया। खिलाने-पिलाने का सारा भार महाराणा प्रताप के पुत्र कुमार अमेर सिंह पर था । जब थालियाँ परोसी गयीं, तब मानसिह ने कुमार अमर सिंह से पूछा,-“महाराणा प्रताप कहाँ हैं ? क्या वे भोजन करने नहीं आयेंगे ?”
कु० अमर सिंह ने कहा,-“राणा के सिर में दर्द है ; तबीयत ठीक नहीं है । वे आज भोजन नहीं करेंगे । ” परन्तु मानसिंह कब मानने वाले थे ? उन्होंने बारम्बार अमरसिंह से राणा को बुला भेजने के लिये कहा । उनके बारम्बार आग्रह करने और अन्त में यह कहने पर कि ‘वे अगर नहीं आते, तो मैं खाना नहीं खाऊँगा’
महाराणा प्रताप सिंह आये । उन्होने आकर बड़े गर्व से मानसिंह के सामने कहा, -‘राजपूत-वंश मे जन्म लेकर जो आदमी तुर्को के साथ बैठकर खाता-पीता है; जिसने तुर्कों के हाथ में अपनी बहिन को सौंपा है, उसके साथ एक पंक्ति में बैठकर सूर्यवंशीय राणा खान-पान नहीं कर सकते ।”
अम्बराधिपति मानसिंह के मुँह से एक भी शब्द उनकी बातों के उत्तर में नहीं निकला। मारे क्रोध के ख़ून का घूट पीते हुए, वे परोसी हुई थाली छोड़ कर उठ खड़े हुए । और फौरन जाने की तैयारी कर घोड़े पर सवार हो गये ! जाते समय मानसिंह ने कहा,-“यदि आपका यह गर्व चूर्ण नहीं किया, तो मेरा नाम मान नहीं।”
प्रताप ने कहा,-“आपकी बात से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । अब अगर आप युद्ध-क्षेत्र में मिलेंगे, तो और भी अधिक सन्तोष होगा।” इसी समय किसी ने कहा,-“और अपने फूफा अकबर को भी लेते आना । भूल न जाना।”
मानसिंह का क्रोध सीमा पार कर गया । पर वे उस समय वहाँ कर ही क्या सकते थे ? वे सीधे दिल्ली पहुँचे। सम्राट् अकबर से उन्होंने सब बातें सविस्तार बतायीं । नमक-मिर्च लगाने से भी बाज़ नहीं आये । अकबर के ऐश्वर्य-वैभव और सामरिक बल की कोई तुलना नहीं थी । उसने शाहजादा सलीम के अधीनस्त में विशाल मुगल-वाहिनीं भैंजी । सलाहकार की हैसियत से मानसिंह और मुह्ब्बत खाँ भी भेजे गये ।
हल्दीघाटी का युद्ध
हल्दी-घाटी पर मुगलों को सेना आ पहुची ।
इधर महाराणा प्रताप के पास केवल बाईस हज़ार सैनिक और करीब एक हज़ार भील लड़ाके थे । फिर भी संवत १६३२ के श्रावण मास की शुक्ला सप्तमी तिथि का हल्दी घाटी में मुगलों की विशाल वाहिनी के साथ घोर संग्राम हुआ । मुट्ठी-भर राजपूत वीरों की सेना के पराक्रम को देख, मुगल सेना बुरी तरह परास्त होने लगी । मुगल सेना के पैर उखड़ गये । महाराणा प्रताप अद्भूत वीरता के साथ लड़ने लगे । मुग़ल सेना तितर-बितर ही गयी।
यह देख, रणोन्मत्त महाराणा प्रताप मानसिंह को खोजने लगे । पर मानसिंह का कहीं पता भी नहीं लगा । खोजते-खोजते राणा सलीम के पास पहुँचे । उन्होंने अपनी तलवार का वह हाथ झाड़ा, कि सलीम के दोनों शरीर रक्षक एक साथ ही साफ हो गये । सलीम हाथी पर हौदे में बैठा हुआ था। महाराणा अपने प्यारे घोड़े चेतक पर सवार थे । उन्होंने अपना विशाल भाला तानकर सलीम की ओर फेंका । हौदे से टकरा कर फीलवान के लगा, जिससे वह भी साफ हो गया । भागने के सिवा अब सलीम के लिये दूसरा कोई उपाय न रह गया । वह भागा । उसकी सेना भी भागी । राणा प्रताप ने उसका पीछा किया । वे कुछ दूर तक पीछा करते गये । इसी समय मुहब्बत खाँ वगैरह की चेष्टा से फिर मुगल सेना आगे बढ़ी ।
महाराणा प्रताप यद्यपि चारों ओर से शत्रुओं द्वारा घिर गये; अंगरक्षक और साथ की सेना भी अलग रह गयी;तथापि वे न तो घबराये और न चिन्तित हुए । बहुत से राजपूत वीर मारे गये । झालापति वीरवर मन्नाने भी इसी समय महाराणा की रक्षा करतें जाकर अपने प्राण गवाए । महाराणा जब चारों ओर से घिर गये थे, तब भी उनके अंग पर केवल सात घाव लग सके थे । इसी से समझ मे आ सकता है, कि वे किस वीरता और कुशलता के साथ लड़े होंगे । शत्रु-सेना को काटते-फेंकते और रोंदते हुए महाराणा प्रताप उनके बीच से निकल आये । संध्या हो गयी और पहले दिन का युद्ध समाप्त हुआ ।
इस युद्ध में एक से-एक-बढ़कर चौदह हज़ार वीर खेत आये । इस प्रकार महाराणा हार गये; पर पकड़े नहीं गये ।
उदयपुर पर चढ़ाई
संवत् १६३३ ई० में फिर मुगलों की सेना ने माघ के महीने में उदयपुर पर चढ़ाई की । इस बार भी महाराणा प्रताप को बहुत हानि उठानी पड़ी । वे छोड़कर कमलमीर में जाकर रहने लगे पर वहाँ भी वे चैन से नहीं रह सके । तमाम राज्य-भर में मुगलों की सेनाएँ जहाँ-तहाँ पड़ाव डालकर अड़ गयीं । कमलमीर पर भी मुसलमानों ने अधिकार कर लिया। चारों तरफ से ऐसी नाकेबन्दी कर रखी गयी, कि प्रताप के लिये गहन जंगलो और पहाड़ी गुफ़ाओं के सिवा और कहीं रहना असम्भव हो गया ।
वे जंगलों, गिरि-गुहाओं और कन्दराओ मे सपरिवार जीवन व्यतीत करने लगे, पर पराधीनता स्वीकार नहीं की । वे अब भीलों के साथ रहने लगे । रानी और बच्चों के कष्टों की सीमा न रही । किसी दिन जंगली फल-मूल खाने को मिल जाता, तो किसी दिन वह भी नहीं मिलता । इसी समय एक दिन एक बड़ी ही करुणापूर्ण घटना घटित हुई ।
कई दिन बाद एक भील घासों के बीज का बना हुआ आटा दे गया । उसकी रोटी बनी । राणा के भूखे लड़कों के आगे रोटी दी गयी और लड़के तो रोटी खा गये; पर उनकी लड़की ज्योंही खाने गयी, त्योही एक बन-बिलाव आया और उसे उठाकर भाग गया । लड़की ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर रोने लगी । राणा कुछ ही दूर पर लेटे हुए थे । उसकी चिल्लाहट सुन, उन्होंने उस ओर देखा । यह दृश्य देखकर राणा प्रताप का अविचल हृदय भी विचलित हो गया ।
महाराणा प्रताप ने अकबर को पत्र लिखा
कभी अधीर न होने वाला हृदय भी आज अधीर हो उठा । विशाल राज्य के अधिकारी राणा के लड़कों की यह दुर्गति उनके लिये असहाय हो उठी । उन्होंने उसी समय एक पत्र सम्राट् अकबर के पास भेजा । वे जानते थें, कि अकबर की वश्यता स्वीकार करते ही वे पुनः अपना राज-पाट सब कुछ पा सकते है । पुत्र-पुत्री सभी सुखी रह सकते हैं।
अकबर के दरबार में वह पत्र पहुँचा । अकबर के आनन्द-उत्साह की सीमा न रही । दिल्ली में सर्वत्र बड़ी धूम-धाम से आनन्द मनाया जाने लगा । अकबर ने वह पत्र कविवर पृथ्वीराज को दिखाया । पृथ्वीराज ने उसे बहुत ध्यान से देखा और कहा,-“कि जहाँपनाह ! मुझे तो इसे देखकर भी यह विश्वास नहीं होता, कि यह पत्र महाराणा का लिखा हुआ होगा ।” पृथ्वीराज बड़े मार्मिक कवि थे। इधर तो उन्होंने अकबर के मन में ऐसा सन्देह उत्पन्न कर दिया। उधर महाराणा प्रताप के पास कविता में एक पत्र लिख भेजा ।
पृथ्वीराज की कविता बेकार नहीं गयी । अकबर के पास सन्धि-पत्र भेजने के लिये उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उनकी नस-नस में इस कविता के एक-एक शब्द का असर पड़ा। उनका हृदय पुनः उत्तेजित हो उठा । एकाएक वे एक दिन मुगलों पर चढ़ाई कर बैठे । बहुत सी यवन सेना मारी गयी; पर प्रताप का अभीष्ट पूरा नहीं हुआ । उन्हें पुनः गिरिकन्दराओ में छिपना पड़ा । फिर कष्टों ने आ घेरा । अब प्रताप की सारी आशाएँ जाती रहीं । उन्होंने जन्मभूमि को त्यागकर अन्यत्र जाना निश्चय कर लिया ।
वे आँखों में ऑँसू भरकर अपनी मातृ-भूमि को अपनी जन्मभूमि को अन्तिम प्रणाम कर विदा होने को तैयार हो चुके हैं ! इसी समय उनके परम विश्वासी कोषाध्यक्ष एवं मन्त्री भामाशाह उन्हें खोजते हुए आ पहुँचे । भामाशाह ने स्वामी के चरणों पर अनन्त धन राशि उड़ेल दी !
प्रताप-विशाल राज्य के स्वामी महाराणा प्रताप – धन के बिना कुछ नहीं कर पाते थे । आज प्रभूत राशि प्राप्त होते ही उनके साहस, धैर्य सब कुछ लौट आये । इसी धन के सहारे उन्होंने फौरन सेना एकत्र कर ली और मुगल सेनापति शाहबाज़ खाँ के पास युद्ध की घोषणा भेज दी । बात-की-बात में महाराणा प्रताप की सेना आँधी की तरह चारों ओर दौड़ पड़ी । देखते-देखते चित्तौड़, मङ्गल गढ़ आदि दो-तीन स्थानों के अतिरिक्त सारा मेवाड़ राज्य पुनः महाराणा के अधिकार में आ गया।
औरों के लिये तो नहीं, मगर अपनी जन्म-भूमि चित्तौड़ अधिकार में नहीं आने के कारण जीवन की अन्तिम घड़ी तक वे सुखी नहीं हो सके थे । पर अन्त में जब उनके सरदार-सामन्तों ने दृढ़ता के साथ प्रतिज्ञा की, कि जब तक हम चित्तौड़ पर अधिकार नहीं कर लेंगे , तब तक किसी प्रकार के सुख की हम आशा नहीं करेंगे । सरदारों की इस प्रतिज्ञा से राणा प्रताप के हृदय को परम सन्तोष हुआ। उनके चेहरे पर एक दिव्य ज्योति दिखाई दी और फिर उन्होंने नश्वर शरीर त्याग दिया ।