पृथ्वीराज द्वारा राणा प्रताप का स्वाभिमान जाग्रत करना
Prithviraj letter to Maharana Pratap
अकबर के दरबार में महाराणा प्रताप का सन्धि व शर्तो को मानने का पत्र पहुँचा । अकबर बहुत प्रसन्न हुआ । अकबर ने वह पत्र कविवर पृथ्वीराज को दिखाया । पृथ्वीराज ने उसे बहुत ध्यान से देखा और कहा,-“कि जहाँपनाह ! मुझे तो नहीं लगता कि यह पत्र महाराणा का लिखा हुआ होगा ।” पृथ्वीराज बड़े कवि थे। एक तरफ तो उन्होंने अकबर के मन में ऐसा सन्देह उत्पन्न कर दिया और दूसरी तरफ महाराणा प्रताप के पास कविता में एक पत्र लिख भेजा ।
कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने उस ओजपूर्ण पत्र को इस प्रकार खड़ी बोली में अनूदित किया है। कविता इतनी ममस्पर्शी है :
स्वस्ति श्री स्वाभिमानी कुल कमल तथा हिन्दुआसूर्य सिद्ध ।
शूरोंमें सिंह सुश्री शुचि रुचि सुकृती श्री प्रताप प्रसिद्ध ।
लज्जा-धारी हमारे कुशल -युत रहें, आप सद्धर्म-धाम ।
श्री पृथ्वीराज का हो विदित विनय से प्रेम-पूर्ण प्रणाम ।। १ ।।
मैं कैसा हो रहा हूँ, इस अवसर में, घोर आश्चर्य- लीन ।
देखा है, आज मैने अचल चल हुआ, सिन्धु संस्था-विहीन ॥
देखा है, क्या कहूँ मैं, निपतित नभ से इन्द्र का आज छत्र ।
देखा है, और भी हाँ, अकबर-कर में आपका सन्धि-पत्र ॥ २ ॥
आशा की दृष्टि से वे पितर-गण किसे स्वर्ग से देखते हैं ?
सच्ची वंश-प्रतिष्ठा क्षिति पर अपनी वे कहाँ लेखते हैं ?
मर्यादा पूर्वजो की अब तक हममें दृष्टि आती कहाँ है ?
होती है व्योम-वाणी वह गुण-गरिमा आप ही में यहाँ है ॥ ३ ॥
खोके स्वाधीनता को अब हम सब हैं नाम ही के नरेश ।
ऊँचा है आप ही से इस समय अहो ! देश का शीर्ष-देश !
जाते हैं क्या झूकाने अब उस सिर को आप भी हो हताश ?
सारी राष्ट्रीयता का शिव ! शिव ! फिर तो हो चुका सर्वनाश ॥४॥
हाँ, निस्सन्देह देगा अकबर हमसे आपको मान-दान ।
खोते हैं आप कैसे उस पर अपना उच्च धर्मोभिमान ?
छोड़े स्वाधीनता को मृगपति ! बनमें दु:ख होता बड़ा है।
लोहे के पींजड़े में तुम मत रहना स्वर्गं का पींजड़ा है ? ।॥ ५ ॥
ये मेरे नेत्र हैं क्या कुछ विकृत, कि हैं ठीक ये पत्र-वर्ण ?
देख़ूँ है क्या सुनाता विधि अब मुझको, व्यग्र है हाय ! कर्णे ॥
रोगी हों नेत्र मेरे, वह लिपि न रहे, आपके लेख जैसी ।
हो जाऊँ देव ! चाहे बधिर पर, सुनुँ बात कोई न वैसी ।।६॥
बाधाएँ आपको हैं, बहु विध वन में, मैं इसे मानता हूँ ।
शाही सेना सदा ही अनुपद रहती, सो सभी जानता हूँ ॥
तो भी स्वाधीनता हो विदित कर रही, आपको कीर्तिशाली ।
हो चाहे वित्तवाली; पर उचित नही, दीनता चित्तवाली ॥७॥
आये थे, याद है क्या, जिस समय वहाँ मान-सम्मान पाके ।
खाने को थे न बैठे मिस कर उनके साथ में आप आके ॥
वेही ऐसी दशा में हँस कर कहिये, आपसे क्या कहेंगे ?
अच्छी हैं ये व्यथाएँ, पर वह हँसना आप कैसे सहेंगे ? ॥८॥
है जो आपत्ति आगे वह अटल नहीं, शीघ्र ही नष्ट होगी।
कीत्ति श्री आपकी यों प्रलय तक सदा और सुस्पष्ट होगी॥
घेरे क्या व्योम में है अविरल रहती सोम को मेघ-माला ?
होता है अन्त में क्या वह प्रकट नहीं और भी कान्ति वाला ? ॥९॥
है सच्च धीरता का समय बस यही, हे महाधैर्यशाली !
क्या विद्युद्वह्नि का भी कुछ कर सकती वृष्टि-धारा प्रणाली ?
हों भी तो आपदाएँ अधिक अशुम हैं क्या पराधीनता से ?
वृक्षों जैसा झुकेगा अनिल-निकट क्या शैल भी दीनता से ? ॥१०॥
ऊँघे हैं और हिन्दू, देखी है अकबर-तमकी है महाराजधानी।
देखी है आप ही में सहज सजगता हे स्वधर्माभिमानी ।।
सोता है देश सारा यवन-नृपति का ओढ़ के एक वस्त् ।
ऐसे में दे रहे हैं जगकर पहरा आप ही सिद्ध-शस्त्र ।। ११ ।।
डुबे हैं वीर सारे अकबर-बल का सिन्धु ऐसा गभीर ।
रक्खे हैं नीर-नीचे कमत-सम वहाँ आपही एक धीर ॥
फूला सा चूस डाला अकबर-अदेश है ठौर-ठौर ।
चम्पासी लाज रक्खी, अविकृत अपनी धन्य मेवाड मौर ! ॥१२॥
सारे राजा झूके है, जब अकबर के तेज आगे समीत ।
ऊँची ग्रीवा किये हैं सतत तब वहाँ आप ही हे विनीत I॥
आर्यो का मान रक्खा, दुख सहकर भी है प्रतिज्ञा न टाली।
पाया है आपने ही विदित भुवन में नाम आर्याशुमाली ॥१३॥
गाते हैं आपका ही सुयश कवि कृती छोड़के और गाना ।
वीरोंकी वींरता का सुवर मिल गया चेतकारूढ़ राना ॥
माँ! है जैसा प्रताप प्रियसुत जन तू तो तुझे धन्य माने ।
सोता भी चौकता है अकबर जिससे सॉप हो ज्यों सिराने ॥ १४ ॥
राना ऐसा लिखेंगे, यह अघटित है-कीं किसी ने हसी है।
मानी हैं एक ही वे, बस नस-नस में धीरता ही धॅसी है ।
यों ही मैंने सभा में कुछ अकबर की वृत्ति है आज फेरी ।
रक्खो, चाहे न रक्खो,अब सब विधि है आपको लाज मेरी ॥१५॥
हो लक्ष्य-भ्रष्ट चाहे कुछ, पर व भी तीर है हाथ ही में ।
होगा हे वीर ! पीछ विफल संभलना, सोचिये आप जीमें ।
आत्मा से पूछ लीजे, कि इस विषय में आपका धर्म क्या है ?
होने सें मर्म-पीड़ा, समक न पड़ता, कम दुष्कर्म क्या है ॥ १६ ॥
क्या पश्चाताप पीछे न इस विषय मे आप लिए श्राप होगा ?
मेरी तो धारणा है, कि इस समय भी आपको ताप होगा ।
क्या मेरी धारणा को कह मुख से आप सच्चा करेंगे ?
या पक्के स्वर्ग को भी सचमुच अब से ताप कच्चा करेगे ?॥१७॥
जो हो, ऐसा न हो, जो हँसकर मन में मान आनन्द पावे ।
जीना है क्या सदाको, फिर अपयश की ओर क्यों आप जावे ?
पृथ्वी में हो रहा है सिर पर सबके मृत्यु का नृत्य नित्य।
क्या जाने, ताल टूटे किस पर उसकी किजिये कीर्ति-कृत्य ॥१८॥
हे राजन् ! आपको क्या यह विदित नहीं आप हैं कौन व्यक्ति?
होने दीजे न हा ! हा ! शुचितर अपने चित्त में यों विरक्ति ।।
आर्यो को प्राप्त होगी, स्मरण कर सदा आपका आत्मशक्ति ।
रक्खेगे आप में वे सतत हृदय से देवकी भाँति भक्ति ॥१९॥
शूरों के आप स्वामी यदि अकबर की वश्यता मान लेगे ।
तो दाता दान देना तज कर उलटा आप ही दान लेगे ॥
सोवेगे आप भी क्या इस अशुभमयी घोर काली निशा में ।
होगा क्या अशुमाली समुदित अब से अस्तवाली दिशामें ॥२०॥
दो बाते पूछता हूँ, अब अधिक नहीं, हे प्रतापी प्रताप !
आज्ञा हो, क्या कहेगे अब अकबर को तुर्क या शाह आप ?
आज्ञा दीजे मुझे जो उचित समझिये, प्रार्थना है प्रकाश ।
मुछें ऊची करू या सिर पर पटकू हाथ होके हताश ॥२१॥