कबीर के दोहे | Kabir’s couplets – 3

कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe

कबीर के दोहे का संकलन | Kabir Ke Dohe Ka Sankalan

ढाई आखर प्रेम का

पढ़ि-पढ़ि तो पत्थर भया, लिखि-लिखि भया जो ईंट।
कबिरा अन्तर प्रेम की, लगी न एकौ छींट॥

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पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया शरीर।
सतगुर दाँव बताइया, खेलै दास कबीर॥

सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कहा प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥

मन दीया जिन सब दिया, मन के संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यों कवि कहै कबीर॥

बहुत दिनन की जोबती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम॥

कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुँभार का, बहुरि न चढ़हि चाकि॥

आपा मेट्या हरि मिले, हरि मेट्या सब जाइ।
अकथ कहानी प्रेम की, कहा न को पत्याइ॥

ऐसा कोई ना मिले, जासौं रहिये लाग|
ई जग जरते देखिया, अपनी अपनी आग॥

प्रेम न खेतों नींपजे, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥

जैसी प्रीत कुटुम्ब सों, तैसी हरिसों होय।
दास कबीरा यों कहै, काज न बिगरे कोय॥

पौथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया ना कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय॥


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