अभिमन्यु वध कथा | Abhimanyu Vadh

अभिमन्यु वध कथा | Abhimanyu Vadh

अभिमन्यु का जन्म तृतीय पांडव अर्जुन के औरस और कृष्ण की बहन सुभद्रा के गर्भ से हुआ था। अभिमन्यु की पत्नी का नाम उत्तरा था । अभिमन्यु अभी बिल्कुल नौजवान थे, जब उनके ऊपर एक दिन सहसा सेनापतित्व का भार दे दिया गया । यह सेनापतित्व भी किसी ऐसे-वैसे खंड-युद्ध या मामूली लडाई का नहीं, महाभारत-संग्राम के सेनापतित्व का भार था । इसे ग्रहण कर उसने उस दिन के युद्ध में जो वींरता दिखायी थी, उसे याद कर आज हजारों वर्ष बाद भी कमज़ोर से-कमज़ोर मनुष्य के हृदय भी विरता से भर जाता है; परन्तु पुनः जब हम महाभारत-संग्राम की बात सोचने लगते हैं और सोचते हैं, कि एक-मात्र वीर का किस क्रूरता, नृशंसता और अन्यान्य के साथ सात-सात महारथियों ने घेरकर खून बहाया होगा, तो घृणा, लज्जा, क्रोध और क्षोभ से मस्तक झुक जाता है |

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भ्रातृ-द्रोह और स्वजाति-द्वेष की जो अग्नि महाभारत के समर-क्षेत्र में प्रज्ज्वालित हुई, इस वींर की उसी में आहुति दी गयी थी । महाभारत का संग्राम होते-होते १२ दिन व्यतीत हो गये थे । तेरहवाँ दिन आ पहुँचा था । आज आचार्य द्रोण ने “चक्र-व्यूह” नामक भयंकर व्यूह की रचना की थी । इस व्यूह को भेद करना या उसकीं सेना को पराजित करना बड़ा ही कठिन काम था । पाण्डवों की तरफ एक-मात्र अर्जुन और कौरवो की तरफ एक मात्र आचार्य द्रोण ही इस व्यूह कीं रचना के पारंगत थे । चक्र-व्यूह की रचना हुई देख,पांडव शिविर में बड़ी खलबली मच गयी । सर्वत्र यही चर्चा होने लगी, कि अर्जुन तो अभी तक त्रिगतों के युद्ध से लौटे नहीं; फिर यहाँ आज कौन सेनापति बनेगा ? कौन इस व्यूह का भेद कर सकेगा ?

युधिष्ठिर आदि सब लोग चिन्ता में पड़ गये । अर्जुन के नौजवान पुत्र अभिमन्यु ने उनकी चिन्ता दूर कर दी । उसने कहा – “मैं जानता हूँ चाचाजी ! मैं उस का भेदन करूगा । आप क्यों चिन्ता कर रहे हैं ? पर एक बात मैं अवश्य कहूँगा और वह यही, कि मैं चक्र-व्यूह को भेद करता हुआ, उसके भीतर तो चला जा सकता हूँ; पर पुनः निकल नहीं सकता ।”

लोगों के उत्साह की सीमा न रही ।

निश्चित हो गया, कि आज अभिमन्यु ही सेनापति बनेंगे । महाराज युधिष्ठिर ने उसको तिलक लगाया, आशीर्वाद दिया और उसके साहस की प्रशंसा की । अभिमन्यु की माता सुभद्रा ने अपने हाथों पुत्र को समस्त युद्धोपयोगी शस्त्रों से सुसज्जित किया । इसके बाद क्षत्रिय का कर्तव्य समझाया – “ युद्ध में प्राण दे देना; पर शत्रु को पीठ न दिखाना ।”

अभिमन्यु ने सेनापतित्व ग्रहण किया । युद्ध-क्षेत्र का निरीक्षण कर उसने अन्यान्य सेना-नायकों से कहा – “मैं व्यूह भेद करता हुआ जब आगे बढ़ू, तब आप लोग भी मेरे पीछे-पीछे अन्दर चले आइयेगा ।”

यथानियम युद्ध का बिगुल बज उठा । अभिमन्यु अमित वेग से कौरव-सेना के प्रधान सेनापतियों के साथ युद्ध करता और व्यूह का भेद करता हुआ भीतर घुस गया । किसी सेनापति के रोके उसकी गति कम नहीं हुई । वह व्यूह की छाती चीरता हुआ अन्दर जाने लगा । पर यह क्या ? उसका साथ कोई भी न दे सका । परन्तु अभिमन्यु ने इसकी कोई परवाह नहीं की । उसके भीषण संहार और प्रहार से सारी कौरव सेना में हाहाकार मच गया । वीर-योद्धागण भी उसके रण-कौशल से घबरा कर ‘त्राहि-त्राहि’ करने लगे । अपनी सेना की यह दुरवस्था देख, दुर्योधन ने आचार्य द्रोण आदि के पास जाकर उन्हें बहुत ललकारा-धिकारा ।

अन्त में सारी कौरव-सेना के सात महारथियों ने उसे चारों ओर से घेर लिया और अन्याय-पूर्वक सातों एक साथ ही उस पर बाण-वर्षा करने लगे । एक ओर अकेला बालक अभिमन्यु और दूसरी ओर सात-सात एक-से-एक महारथी ! फिर भी वह अकेला ही बड़ी देर तक जूझता रहा । अन्त में उसका बाण खत्म हो गए, धनुष टूकड़े-टुकड़ हो गए और रथ भी टूट गया । परन्तु इतने पर भी वह शान्त न रहा । वह रथ का पहिया उठाकर ही आत्मरक्षा की चेष्टा करने लगा । उसको निःशस्त्र देखकर भी उस पर बाण चलाना घोर अन्याय था । फिर एक नहीं, सात-सात महारथी उस पर एक साथ ही आक्रमण करते रहे । और इस प्रकार अन्याय-युद्ध करके कौरवों ने उस वीर बालक का वध कर डाला ।

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