जटायु की कथा | A Story on Jatayu

जटायु की कथा | A Story on Jatayu

भगवान श्री रामचन्द्र के समय में अथवा रामायण-काल में भारत वर्ष की सभ्यता कितनी उन्नत थी, जटायु की छोटी सी कथा से ही इसका बहुत कुछ पता चल जाता है । आज के भारतवासियों की अपेक्षा उस समय के भारतवासी कितने उन्नत, तेजस्वी और सभ्य होते होंगे, इसका भी बहुत कुछ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है । आज हम लोग अत्याचारी के अत्याचारों को अपनी आँखों देखते हैं । हृदय में उसके अत्याचार को भली-भाँति अनुभव भी करते हैं, कानों से उसके अत्याचारों की कथा सुनते हैं । पर उसके विरुद्ध कुछ करना तो दूर रहा, शब्दों द्वारा भी उसका विरोध करने से डरते हैं।

प्रायः नित्य-प्रति आजकल इस देश में भयंकर-से-भयंकर नारीओ पर अत्याचार होते हैं, लोगों के घरों में घुसकर बहू-बेटियाँ उड़ायी जाती हैं, बँहकायी जाती हैं और उन पर ऐसे-ऐसे पाशविक अत्याचार किये जाते हैं, कि जिन्हें सुनकर भी रंगटे खड़े हो जाते हैं । नित्य-प्रति समाचार-पत्रों में इस प्रकार की कितनी ही घटनाएँ छपा करती हैं। समाचार-पत्रों के पाठक उन्हें पढ़ते हैं, लेखक उन्हें लिखते हैं, संवाददाता उनका संवाद भेजते हैं, सम्पादक उन पर टीका-टिप्पणी करते हैं, प्रकाशक उन्हें छापते हैं और सरकारी अधिकारी वर्ग उन्हें देखते हैं, पर कहीं से प्रतिकार की वैसी ध्वनि नहीं सुन पड़ती, जैसी की जटायु के आत्मविसर्जन की उस हजारों वर्ष की पुरानी कथा से आज भी प्रतिध्वंनित होती है।

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रामायण की कथा में हम पढ़ते हैं, कि जटायु का जन्म अरुण के औरस और श्येणी के गर्भ से हुआ था। उसका एक बड़ा भाई और था, जटायु का भाई का नाम सम्पाती था। ये दोनों ही बड़े विशालकाय और महाबलवान् पक्षी थे । जटायु के विषय में लिखा है, कि एक बार भ्रमवश या ईष्ष्यावश वह सूर्य को निगलने के लिये उनकी दिशा में उड़ा था, पर सूर्य की प्रखर किरणों को सहन करने में असमर्थ होकर पुनः पृथ्वी पर लौट आया था । इसी से जटायु के अमित बल-विक्रम का कुछ-कुछ आभास मिलता है। कहीं-कहीं पौराणिक कथाओ में यह भी देखने में आता है, कि जटायु महाराज दशरथ के मित्रों में था । जो कुछ भी हो, जटायु आकाश में विचरने वाला पक्षी ही था। परन्तु पक्षी होकर भी उसने निःस्वार्थ भाव से प्रभूत शक्ति-सम्पन्न राक्षसराज रावण के अनाचार के विरुद्ध जैसा प्रथम संग्राम किया,कह सकते हैं, कि सारी रामायण में वैसा निःस्वार्थ योद्धा कठिनाई से मिलेगा ।

विमाता कैकेयी और मन्थरा के पढ़यन्त्र से पितृ आज्ञा पाकर श्रीराम, भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ वन-वन भटक रहे थे । एक दिन सहसा एक भयंकर दुर्घटना हो गयी । जंगल में चरते हुए एक सुनहरे मृग को देख, सीता ने स्वामी से उसे पकड़ लाने का आग्रह किया । श्रीराम ने लक्ष्मण को कुटिया की रक्षा के लिये छोड़, मृग का पीछ़ा किया । ज्योंही श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की ऑखों सें दूर हुए, त्योंही एक करुण नाद सुनाई दिया,-“हा लक्ष्मण ! हा सीता !!” कंठस्वर बिल्कुल श्री राम का सा था । चारों ओर घना जंगल था और राक्षसों का खास अखाड़ा । सीता और लक्ष्मण उस आत्त स्वर को सुन काप उठे । सीता के कहने से लक्ष्मण भी भाई की खोज में निकले ।

सीता अकेली रह गयीं। इसी बीच में सीता के पास भिखारी या संन्यासी का वेश धारण कर रावण आये और उन्हें उठा ले गया।

राम और लक्ष्मण लौटकर देखते हैं, तो कुटिया खाली पड़ी है। सीता का कही पता नहीं है । राम व्याकुल हो गये । लक्ष्मण भी घबरा उठे । अब वे समझ गये, कि यह सब काण्ड राक्षसों के पड़यन्त्र से हुआ है । व्यग्रभाव से दोनों भाई सारे जंगल में जहाँ-तहाँ सीता की खोज करने लगे ।

सीता को हरण कर रावण बडे तीव्र वेग से लंका की ओर भागा । सीता जोर-जोर से विलाप करने लगी साथ-ही-साथ वे अपने अंग के आभूषणो को भी मार्ग में फेंकने लगीं, कि शायद राम को इनके सूत्र से मेरा पता चल जाये । उनकी वह करुण कुन्दन-ध्वनि पक्षीराज जटायु के कानों में पड़ी । जटायु जानता था, कि राक्षस-राज रावण घोर अधर्मी हो रहा है । उसे फौरन सन्देह हुआ, कि हो-न-हो, वही किसी आर्य-नारी को हरण किये ले जा रहा है । जटायु पवन-वेग से उड़ा और रावण के पास पहुँचा । उसने उसे बहुत समझाया, हर तरह से रोकना चाहा, बहुत मिन्नते कीं, पर रावण भला अपना हित की बातें क्यों सुनता ? वह जटायु से उलटी-पुलटी हाँकने लगा । जटायु से उसका यह अन्याय देखा नहीं गया । उसने कहा,”रावण ! यदि अपना भला चाहते हो, तो मेरी बात मान लो, नहीं तो अन्त में श्रीराम के हाथों तुम बुरी मौत मारे जाओगे।”

इस पर रावण बहुत ही क्रुद्ध हो उठा । उसने जटायु पर आक्रमण किया । जटायु भी उसके वार को सम्हालने और उसके तीव्र वेग को रोकने की भरपूर चेष्टा करने लगा । पर अकेला निःशस्त्र जटायु उसका क्या कर सकता था ? उधर रावण समस्त अस्त्रों-शस्रों से भली भाँति सुसज्जित था । उसने अन्याय पूर्वक जटायु के पंख काट डाले । वह विशाल पक्षी धड़ाम से पृथ्वी पर आ गिरा, जिससे उसे भयंकर चोट लगी । एक तो पंख कट गये थे, दूसरे गिरने की गहरी चोट लगी थी; तीसरे रावण के अन्याय कृत्य से उसका मन अत्यन्त दुखी हो रहा था। यन्त्रणा से पीड़ित और व्याकुल होकर वह अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिनने लगा ।

संयोग वश श्रीराम और लक्ष्मण सीता की खोज में भटकते-भटकते वहीं पर आ उपस्थित हुए, जहाँ जटायु अपनी अन्तिम साँसें ले रहा था । श्रीराम को देखते ही जटायु ने उन्हें अपने पास बुलाया और अपना परिचय देकर राक्षस-राज रावण के सीता-हरण का समाचार सुना दिया। उसके साथ युद्ध करके ही उसकी यह अवस्था हुई है, यह भी बताया । श्रीराम की आँखो मे पानी भर आया। समस्त बातें बता और सीता के अन्वेषण के लिये उचित परामर्श देकर उसने प्राण त्याग दिये ।

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