कृष्ण लीला | Krishna Leela
आनन्दकन्द भगवान श्रीकृष्ण का जन्म उस समय हुआ था, जब दानवों के अत्याचारों से समस्त प्रजा ग्रसित और पीड़ित हो रही थी । कंस, जरासन्ध, कालयवन, केशी आदि राक्षसों के अत्याचारों से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची थी और उस समय एक ऐसे महापराक्रमी नर की जरूरत थी, जो राक्षसी राज्य का नाश कर धर्म-राज्य प्रतिष्ठित करता । कंस के अत्याचार यहाँ तक बढ़ गये थे, कि अपनी ही बहन देवकी के दुध-मुँहे बच्चे को वह मार डालता था; सिर्फ इसलिये कि उसे उनके द्वारा अपनी मृत्यु का भय था । कंस की यदि दानवी प्रकृति और प्रवृत्ति न होती, तो वह सहज ही देवकी और उसके वच्चों से प्रेम की सन्धि कर लेता, स्वयं जीता और उन्हें भी सुख-शान्ति से जीने देता; पर संसार के नीच स्वेच्छाचारी राजाओं या सम्राटों के इतिहासो में ऐसी आनन्ददाय की घटना नहीं मिलती, जब कि उन्होंने शासितों से ऐसी प्रेम की सन्धि की हो । कंस भी एक-वैसा ही भयंकर स्वेच्छाचारी शासक था और इसलिये उसने अपनी प्रकृति के अनुसार बहन देवकी और उसके पति वासुदेव को कारागार मे डाल दिया ।
यहीं संसार के सर्वश्रेष्ठ योगिराज भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म हुआ । ऐसे महापुरुषों के जन्म काल में कुछ न-कुछ अलौकिक चमत्कार भी अवश्य घटते हैं । वासुदेव ने स्वप्न की बातों पर विश्वास करके नवजात शिशु कृष्ण को गोदी में लिये गोकुल की ओर चले । भाद्र-पद के कृष्ण- पक्ष की अन्धकारमयी रात में कठिनता से यमुना नदी पार करके वे गोकुल पहुँचे, और वहाँ यशोदा के उसी समय जो एक कन्या उत्पन्न हुई थी, उसे उठा लिया, और कृष्ण को वहाँ छोड़कर फिर मथुरा लौट आये और कन्या के साथ फिर कारावास में चले गये । योगमाया रूपी वह कन्या रोने लगी, और उसकी रुदन-ध्वनि सुनकर अचेत सोये हुए पहरेदार लोग भी जाग उठे । उन्होंने तुरन्त कंस को सूचना दी । मृत्यु की आशा से सदा भयभीत रहने वाला कंस घबराया हुआ आया और देवकी से वह कन्या छीनकर ज्योंही उसे पत्थर पर पटकने चला, त्योंही वह कन्या उसके हाथ से छूटकर विद्युत की तरह चमकती हुई आकाश में चली गयी । कंस और भी घबराया, और उसने आकाश की ओर देखा, तो उसे वहाँ कन्या की जगह पर एक अष्टभुजा देवी दिखाई दी, जो उसे ललकार कर कह रही थी – “अरे मूर्ख ! मुझे मारने का प्रयत्न तूने व्यर्थ किया ? तुझे मारने वाला तेरा शत्रु तो गोकुल में उत्पन्न हो चुका है !” यह ध्वनि सुनते ही कंस के होश उड़ गये । वह अपनी मृत्यु के भय से सदा दुखी और चिन्तित रहने लगा ।
फिर कंस अपने बचने के उपायों पर विचार करने लगा, और उसे सबसे अच्छा उपाय यही जँचा, कि हाल के पैदा हुए समस्त बच्चोंको मरवा दिया जाये ! उसकी इच्छा और आज्ञा कानून थी, और उसके समस्त सेवकों को उस क़ानून का पालन करना पढ़ता था । उन सेवकों में यदि कोई ऐसा सत्युरुष भी होता, जिसे वैसी अत्याचारी आज्ञाएँ ना-पसन्द हों, तो भी वह कंस की कानून रूपी इच्छा का उल्लंघन करने का साहस नहीं करता था । इसी सिद्धान्त के अनुसार कंस की आज्ञा से दीन प्रजा के बच्चों का आम तौर से संहार होने लगा । प्रजा में हाहाकार मच गया । अनेक यादव लोग देश छोड़-छोड़ कर भागने लगे । गोकुल में नन्द के यहाँ पुत्र-जन्म की खबर सुनने पर नागरिक लोगों ने बड़ा उत्सव मनाया । वासुदेव के एक और स्त्री थी, जिसका नाम था रोहिणी । वह नन्द के यहाँ थी, और उसने भी एक पुत्र को जन्म दिया । महर्षि गर्ग ने इस लड़के का नाम बलदेव, और यशोदा के लड़के का नाम श्रीकृष्ण रखा । उस समय के ऋषियों ने अपने दिव्य ज्ञानसे यह जान लिया था, कि श्रीकृष्ण विष्णु भगवान के अवतार हैं । उधर योगमाया की वाणी का विश्वास करके कंस अपनी मृत्यु के भय से बेचैन हो रहा था । कंस की आशा से सभी बच्चे मारे जा रहे थे, और अब कंस ने कृष्ण को भी मारने की तरकीब सोची ।
पूतना नाम की राक्षसी को आदेश देकर यशोदा के घर भेजा । पूतना अपने स्तनों में विष लगा सुन्दरी ग्वालिन का रूप बना कर गयी और श्रीकृष्ण को प्यार करने के बहाने गोद में उठा कर दूध पिलाने लगी । कृष्ण उसका स्तन पान करते हुए उसकी जीवनी शक्ति खींचने लगे, पूतना को कष्ट होने लगा, वह अपने को छुडाने का प्रयत्न करने लगी, पर कृष्ण के पाश से कहाँ वचती ? अन्त में श्रीकृष्ण ने उसे मार ही डाला । यह समाचार जब कंस ने सुना, तो वह समझ गया, कि कृष्ण ही मेरा शत्रु है। इसके बाद कंस ने अनेक राक्षसों को नाना रूप में कृष्ण का संहार करने के लिये भेजा, पर उन सबका कृष्ण के हाथों संहार हुआ । श्रीकृष्ण ज्यों-ज्यों बड़े होने लगे, त्यों त्यों कंस चिन्तित होने लगा । अधामुर, शकटासुर, वकासुर आदि भयंकर दानव श्रीकृष्ण को मारने के लिये भेजे गये, पर स्वयं ही मारे गये। यमुना में कूदकर कालिय नाग को मारा । इसी तरह श्रीकृष्ण और बलदेव ने कितने ही राक्षसों को मारा ।
उस युगमें गोपगण इन्द्र की पूजा किया करते थे । पर कृष्ण ने सबको वह पूजा करने से मना किया और कहा, कि गोवर्धन-पर्वत से हमें वहुत लाभ पहुचता है इसलिये इन्द्र के बदले गोवर्धन की पूजा करो । इसके बाद बड़ी बर्षा हुई; समस्त गोकुल-भूमि जलमग्न हो गयी; पर श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण करके सबकी रक्षा की ।
श्रीकृष्ण ने उसी शैशव-काल में कितने ही पतितों का उद्घार किया, पर कंस उनकी इन लीलाओं से हैरान रहता था । उसने फिर वूषभासुर, केशी, व्योमासुर आदि राक्षसों को कृष्ण के मारने के लिये भेजा; पर कृष्ण ने उन्हें भी मार डाला । इसके बाद कंस ने एक धनुर्यज्ञ कराया, और अक्रूर के द्वारा कृष्ण तथा बलराम को भी निमन्त्रण दिया । दोनों भाई सहर्ष मथुरा चले ।
मथुरा पहुँचकर श्रीकृष्ण ने कंस का एक बहुत बड़ा धनुष तोड़ डाला, और यह समाचार सुनतें ही कंस की चिन्ता बहुत बढ़ गयी, कंस ने उनके मार्ग में एक उन्मत्त हाथी इस लिये छोड़ दिया था, कि जिसमें वह श्रीकृष्ण को मार डाले, पर उन्होंने उस हाथी को ही मार डाला। इसके बाद श्रीकृष्ण और बलराम कंस के दरबार में पहुँचे, और वहाँ चाणूर तथा मुष्टिक नामक राक्षसों को मलयुद्ध में पछाड़ कर मार डाला । दोनों भाइयों ने और भी कितने ही राक्षसों को वहाँ मारा । इसके बाद तो श्रीकृष्ण ने कंस को भी सिंहासन पर से खींच कर पपृथ्वी पर पटक दिया, तथा मुष्टि प्रहारों से मार डाला ।
समय श्रीकृष्ण की आयु केवल ग्यारह वर्ष की थी । कंस ने और अपने पिता उग्रसेन को कैद करके जेलखाने में डाल रखा था । श्रीकृष्ण ने उग्रसेन को मुक्त किया, और पुन: उन्हें राज-गद्दी पर बैठाया ।
श्रीकृष्ण और बलराम ने सान्दीपनि ऋषि के यहाँ रहकर विद्योपार्जन किया। उन्होंने वेद, उपवेद, न्याय, दर्शन, तत्वज्ञान, धनुर्विद्या, नीति-शास्त्र आदि का अध्ययन किया । इसके बाद श्रीकृष्ण जब फिर गोकुल आये, तब उन्हें हस्तिनापुर का ध्यान हुआ । श्रीकृष्ण पाण्डवों को प्रेम करते थे, इसलिये अक्रूर को पाण्डवों का पता लगाने भेजा । कौरवों का न्याय तथा पांडवों के कष्ट सुन कर श्रीकृष्ण ने विचारा कि जिस तरह हो, इस अन्याय का अन्त ही होना चाहिये । इधर मगध के राजा जरासन्ध ने जब अपने दामाद कंस की मुत्यु का हाल सुना, तब वह श्रीकृष्ण पर बड़ा क्रूद्ध हुआ। उसने बड़ी विकराल सेना के साथ मथुरा पर चढ़ाई कर दी । उग्रसेन की आज्ञा पाकर श्रीकृष्ण और बलराम ने उस सेना से युद्ध किया, और उसका संहार किया। बलराम ने जरासन्ध को पकड़ लिया और बलराम तो उसे मार ही डालते; पर श्रीकृष्ण ने उसे छुड़ा दिया। पर इसके बाद जरासन्ध ने १७ बार मथुरा पर चढ़ाई की, और हर बार पराजित हुआ, अन्त में जरासन्ध ने एक विदेशी कालयवन की मदद चाही ।
श्रीकृष्णने देखा, कि मेरे ही कारण जरासन्ध मथुरा पर हमला करता है, इस लिये उन्होंने मथुरा छोड़ देने का निश्चय किया । उन्होंने पश्चिम में द्वारिका पुरी बसायी और वहीं शासन करने लगे । जरासन्ध कालयवन को उन पर आक्रमण करने के लिये भेजा; पर वहाँ वह मुचकुन्द की क्रोधाग्नि भस्म हो गया ।
इसके बाद श्रीकृष्ण ने रुक्म, शिशुपाल और जरासन्ध को परास्त करके रुक्मिणी से विवाह किया । कृष्ण की एक बहन सुभ्रद्रा थी, जिसका ब्याह उन्होंने अर्जुन से कराया । इसके बाद पाण्डवो ने जब राजसूय-यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की तब भी श्री कृष्ण ने उसका समर्थन किया । कृष्ण ने पाण्डवों को समझाकर भीम से जरासंघ का युद्ध कराया, जिसमें जरासन्ध मारा गया । जरासंघ ने जितने राजाओं को कैद किया था, उन सबने पाण्डवों की अधीनता स्वीकार की । राजसूय-यज्ञ मे भीष्म जनों ने श्रीकृष्ण को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर अर्घ देना चाहा पर शिशुपाल ने इसका विरोध किया। वह श्री कृष्ण को गालियाँ देने लगा । अन्त में उन्होंने शिलुपाल का वध किया। इसके बाद ने श्रीकृष्ण फिर द्वारिका पहुँचे और अपने अनेक शत्रुओ को मारकर निश्चिन्त हुए ।
कौरवों के अत्याचार से पांडव बहुत ही पीढ़ित थे । श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को बहुत समझाया, पर वह किसी तरह पाण्डवों पर कोई भी कृपा दिखाना नहीं चाहता था । महाभारत युद्ध का अपवाद कितने ही अज्ञानी लोग श्रीकृष्ण पर लगाते हैं । पर महाभारत ग्रंथ अच्छी तरह अध्ययन करने वाले विद्वानों से यह बात छिपी नहीं है, कि श्रीकृष्ण ने शान्ति के लिये बहुत प्रयत्न किया हर तरह दुर्योधन को समझाया, पर वह मतिमन्द किसी तरह न मानता था । अन्त मे कौरव-पांडवो का युद्ध ठन गया । इस युद्ध में श्रीकृष्णने शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी; इसलिये वह अर्जुन के सारथी होकर योगदान देने लगे । किन्तु जिस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के मध्य में लाकर खड़ा किया, उस समय विरुद्ध पक्ष में अपने भाई-बन्धुओं को देखकर अर्जुन को बड़ा विषाद हुआ । उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा,-“हे जनार्दन ! चाहे जो हो, पर मैं राज्य के लोभ से अपने भाइयों को न मारुँगा ।”
उसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो अमर उपदेश दिये, वे ही श्रीमद्गवदगीता में अंकित हैं । श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया, कि “यह आत्मा अनादि है; अविनाशी है; निष्काम कर्म के फल की तू चिन्ता क्यो करता है । गीता का उपदेश जानकर अर्जुन का मोह जाता रहा और वह फिर युद्ध मे आगे बढ़ा । अन्त में पाण्डव विजयी हुए और हस्तिनापुर का राज्य उन्हें मिला, जिसके लिये वे श्रीकृष्ण के आभारी रहे ! इसके बाद श्रीकृष्ण ने दीर्घकाल पर्यन्त ऐश्वर्य का भोग किया । अन्त में यादव लोगों ने एक बड़ी भारी दावत की, जिसमें सब यादव मद्य पी-पी कर एक दूसरे को मारने-काटने लगे। सब यादव वहीं लड़ मरे । श्रीकृष्ण एक पीपल के पेड़के नीचे बैठे थे; इतने में जरा नामक व्याध ने उन्हें हिरण ससझ कर दूरसे तीर मारा पर जब व्याध ने आकर श्रीकृष्ण को देखा, तब उसे बड़ा पश्चाताप हुआ । श्रीकृष्ण ने उसे समझा-बुझा कर हटाया । श्रीकृष्ण ने अपने सारथि दारुक को बुलाकर कहा -“जाओ, यादवों के सर्वनाश का समाचार द्वारिका पहुँचाओ । बलदेव अपने प्राण त्याग चुके हैं, और मैं भी थोड़ी देर में यह नश्वर शरीर त्याग दूँगा । मेरे आश्रितों से कह देना, कि वे हस्तिनापुर जाकर अर्जुन के साथ रहें, वहाँ वे सुरक्षित रहेंगे।”
इसके बाद श्रीकृष्ण ने भी शरीर त्याग दिया !