कुरान और हिजरी सम्वत | मुहम्मद और यहूदी | कुरान और ईसाई धर्म । Quran and Hijri Samvat | Muhammad and the Jews | Quran and Christianity

कुरान और हिजरी सम्वत | मुहम्मद और यहूदी | कुरान और ईसाई धर्म । Quran and Hijri Samvat | Muhammad and the Jews | Quran and Christianity

AVvXsEipWe19HoASeITJhjD6n5Seu6FFqBJ0laxq13w9RQspRnpvbuej NayHlqsv3cX k441ER8S3BOdcUbRZ9N5FNUodtXdgcyyCZDD73Mwl8iGjeEe CnTU28At ELGYX8DB3uIXL 8lSdgRCONoY OvG9NzAwD3OZiwDUvFEdk4eaJwW5SMMfWGkP2 S=s320

इस्लामिक कैलेंडर हिजरी संवत


मक्का-निवासियों में अपने धर्म की शिक्षा का प्रचार करते समय, “काबा” के पुजारी “कुरैश” महात्मा मुहम्मद को भाँति-भाँति के कष्ट देने लगे, जब चचा के मरने पर उनकी शत्रुता बहुत बढ़ गई, और अन्त में वह लोग प्राण लेने पर उतारू हो गये, तो महात्मा वहा साए निकलकर मदीना को अपना निवास-स्थान बनाया ।

इसी प्रवास की तिथि से मुसल्मानों का “हिज्री (हिजरी)” सम्वत् प्रारम्भ होता है ।

कुरान में इन्हीं मूर्ति-पूजकों को “काफिर” या नास्तिक के नाम से पुकारा गया है । उस समय “मदीना” में यहूदी लोग भी पर्याप्त संख्या में निवास करते थे, और व्यापार में चतुर होने से वह बड़े प्रभावशाली तथा धनाढ्य हो गये थे ।

कहीं-कहीं ईसाई लोगों की भी बस्ती थी । इस प्रकार महात्मा को इन धर्मानुयायियों के संसर्ग का भी वहाँ विशेष अवसर मिला । इन धर्मानुयायियों का वर्णन कुरान में भी आता है । इनके अतिरिक्त उन्हें कुछ ऐसे लोगों की संगति भी पहिले ही से प्राप्त थी, जो मूर्तिपूजकों के घर उत्पन्न होकर भी मूर्तिपूजा में श्रद्धा रखने वाले न थे, और न वह यहूदी या ईष्ट धर्म ही के अनुयायी थे । इन लोगों में, “साअदा” पुत्र क्रैस, “हजश” पुत्र “अब्दुल्लाह”, ह्वारिस पुत्र “उस्मान”, और अम्रू पुत्र “जैदर” प्रसिद्ध हैं ।

यह लोग कुरान की शिक्षा को अच्छा मानते, परन्तु स्वयं इस्लाम धर्म के अनुयायी न हुए । महात्मा मुहम्मद के साले, श्री खुदीजा के भाई, नौफ़ल पुत्र बक़े की भी इस्लाम के प्रति सहानुभूति थी ।

मुहम्मद और यहूदी


यहूदी धर्म के महात्मा, इब्राहीम, इस्हाक, दाऊद, सुलेमा के भी माननीय महात्मा और रसूल हैं । अपने वंश के प्रति बड़े अभिमानी यहूदी लोग महात्मा के मदीना (यस्त्रिब) आने पर, पहिले कुछ समय तक तो मुसल्मानों के विरोधी थे; परन्तु जब उन्होंने देखा कि हमारी प्रधानता अब घट रही है, और मुहम्मद का प्रभाव अधिक बढ़ता जा रहा है; तो वह भी विद्रोही हो गये । इस्लाम की शिक्षा का बहुत-सा भाग यहूदी और ईसाई धर्मों से लिया गया है । दोनों धर्मों के प्रति आरम्भ ही से महात्मा को बड़ी श्रद्धा थी । यहाँ तक कि “नमाज़” भी पहिले मुसल्मान लोग उन्हीं के पवित्र स्थान “यरुशलम” की ओर मुह करके पढ़ते आ रहे थे । जब यहूदियों ने शत्रुता करनी शुरू की, तो महात्मा मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को “यरुशलम” से मुँह हटाकर “काबा” को अपना किब्ला ( सम्मुख का स्थान) बनाने की आज्ञा दी । यहूदियों के व्यवहार के विषय में कहा गया है –

“यहूदियों में कुछ लोग ईश्वर-वाक्य (कुरान) को सुनते हैं । फिर जो कुछ उन्होंने जाना था, उसे बदल देते हैं, और इसे वह जानते हैं । (२:६:४)

“यहूदी वाक्य को उसके स्थान से बदल देते हैं।“ (४:७:४)

महात्मा और उनके अनुयायियों का विश्वास था कि, यहूदी लोगों के ग्रन्थों में मुहम्मद के रसूल (प्रेरित) होकर आने का भविष्यवाणी है; किन्तु वह लोग इसे बदलकर दूसरा ही कह देते है, जिससे की इस्लाम को इससे दृण होने मे सहायता न मिल जाए ।

महात्मा तो यहूदियों को आस्तिक समझ केवल मुसल्मानों के लिये ही प्रयुक्त होने वाले “अस्सलामु अलैकुम्” (तुम्हारा मंगल हो ) वाक्य को कहकर प्रणाम करते थे; किन्तु, डर के मारे यहूदी इसके उत्तर में “अस्सामु अलैकुम्” अथवा “ब अलैकुमुरसामु (और तुम पर मृत्यु हो ) कहा करते थे ।

यहूदियों के धर्मग्रन्थों को क़ुरान ने भी ईश्वरीय माना था । इस विश्वास से लाभ उठाकर, वह मुसल्मानों को धोखा देते थे ।

“जिसमें तुम समझो कि यह ईश्वरीय पुस्तक है, इसलिए उनमें से कितने, जीभ लौटाकर पढ़ते हैं, और कहते हैं कि ईश्वर की ओर से है, किन्तु न वह ईश्वर की ओर से है, न उस ग्रन्थ में से । जानबूझ कर ईश्वर पर वह मिथ्यारोप करते हैं । “ (३ : ८ : ७)

जब यहूदियों से कहा जाता था कि, जिस प्रकार तुम लोग इब्राहीम, मूसा आदि महात्माओं को ईश्वर-प्रेरित समझते हो । उसी प्रकार महात्मा मुहम्मद को भी क्यों नहीं समझते ? वे लोग कहते थे –

“ईश्वर ने हमसे प्रतिज्ञा की है, कि जब तक कोई ऐसी बलि के साथ न आये, जिसे अग्नि स्वयं खाये; तब तक किसी पर तुम लोग विश्वास न करना कि यह ईश्वर-प्रेरित है ।“

जिसके उत्तर में फिर वहीं कहा गया है –

“कह, मुझसे पहिले कितने प्रेरित चिह्नों के साथ तुम लोगों में आये । यदि तुम सत्यवादी हो, तो ( तुमने) क्यों उन्हे मारा।“ (३:१५:३)

शत्रुता हो जाने पर यहूदियों के चर महात्मा के पास आ-आ कर उनकी शिक्षा और अन्य वृत्तान्तों का पता लगा अपने सरदारो को खबर देते थे । वहाँ से यह खबर “मक्का” वाले शत्रुओं को दे दी जाया करती थी । इन्हीं चर के विषय में यह वाक्य है-

‘पास में आये भक्ष्य अभोजी, उन झुठे दूतों को आज्ञा दे (कि न आवें) अथवा उपेक्षित कर दे। यदि उपेक्षा करे तो तेरी हानि नहीं कर सकते । (५: ६ : ८ )

लड़कपन में एक बार ईसाई सन्यासी “बहेरा” से महात्मा मुहम्मद की मुलाकात का जिक्र भी हुआ है । यौवनावन्या में भी उन्हें एक बार उस महापुरुष के सत्संग से लाभ उठाने का अवसर फिर प्राप्त हुआ । ऐसे ही तेजस्वी, सदाचारी महात्माओं के परिचय ने उनके हृदय में ईसाई-धर्म और उसके अनुयायियों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर दी । कुरान में कहा है –

यहुदियों और काफिरों (नास्तिकों) में तू बहुत से क्रूर और डाहवाले आदमियों को पायेगा, किन्तु जो अपने को ईसाई कहते हैं उनमें से बहुतों को तू सौहार्द्र और समीपता से युक्त पायेगा क्योंकि उनमें निरभिमानी विद्वान् सन्यासी हैं ? “ (६ : २ : ५)

कुरान और ईसाई धर्म


ईसाईयों से यों भी कोई आर्थिक चढ़ा-ऊपरी न थी, जिससे कि उनका मुसल्मानों के साथ विरोध होता । यद्यपि इसाइयों की प्रशंसा इस प्रकार लिखी गई है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि, उनके सिद्धान्तों का खंडन कुरान में नहीं किया गया है । ईसाई धर्म में ईश्वर तीन रूप में विद्यमान माना जाता है ।

(१) पिता जो स्वर्गं में रहता है। (२) पुत्र – प्रभु इशू ईष्ट, जिन्होंने संसार के हितार्थ कुमारी मरियम के गर्भ से संसार में अवतार लिया, और अज्ञानियों तथा अन्यायियों ने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया। (३) पवित्रात्मा- जो भक्तजनों के हृदय प्रवेशकर उनके मुख या शरीर द्वारा त्रिकाल का ज्ञान या अन्य धार्मिक रहस्यों को खोलता है ।

इस विषय में कुरान का कहना है –

“ईश्वर तीनों में से एक है, ऐसा कहने वाले जरूर नास्तिक हैं। भगवान् एक है। उस एक के अतिरिक्त और नहीं (६:१०:७)

“मरियम-पुत्र यीशू पहिले प्रेरितों की भाँति एक प्रेरित दूसरा था । और उसकी माता एक सती स्त्री थी । दोनों आहार भक्षण करते थे । देखो युक्तियों को कैसे मैं (ईश्वर) वर्णन करता हूँ, किन्तु वह (ईसाई) विमुख हैं ।” ( ६:१०:८)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *