कामधेनु गाय | Kamdhenu Gaay

कामधेनु गाय | Kamdhenu Gaay

“धेनु सदानाम रईनाम”
अर्थात् गाय समृद्धि का मूल स्रोत हैं।

Kamdhenu Gaay

हिन्दू धर्म में गाय को माता का दर्जा दिया गया है और साथ ही साथ इनकी पूजा भी की जाती हैं। और यह आज से नहीं बल्कि युगों-युगों से इन्हे पूजनीय माना गया है। इनकी पूजा सिर्फ इसलिए नहीं की जाती हैं कि वह दूध देती हैं, बल्कि इसलिए कि गाय के शरीर में ३३ करोड़ देवी-देवताओं का वास होता है। अर्थात् उनकी भक्ति और सेवा से ३३ करोड़ देवी देवता का आशीर्वाद एक साथ प्राप्त होता है।

मान्यता तो यह भी है कि ८४ लाख योनियों का सफर करके आत्मा अंतिम योनि के रूप में गाय बनती हैं। गाय लाखो योनियों का वह पड़ाव है, जहां आत्मा विश्राम करके आगे की यात्रा शुरू करती हैं।

भारतीय संस्कृति के अनुसार जिस घर में गाय निवास करती हैं या जहां उनकी सेवा की जाती हैं वहां से समस्त समस्याएं दूर रहती हैं।

हिन्दू पौराणिक गाथाओं में भी एक ऐसी चमत्कारिक गाय का वर्णन मिलता है, जिसमे कई दैवीय शक्तियों का समावेश था और जिनके दर्शन मात्र से ही लोगो की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती थीं साथ ही सभी दुख-दर्द दूर हो जाते थे । उन्हें “कामधेनु गाय” कहा गया है । तो आइये बात करते है कामधेनु गाय के बारे मे और जानते है कामधेनु गाय का इतिहास

कामधेनु गाय माता के दर्शन मात्र से ही मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन सफल हो जाता था । दैवीय शक्तियों से संपन्न कामधेनु गाय के दूध में भी अमृत समान गुण पाए जाते थे और यही कारण है कि कामधेनु गाय को पवित्र पशु के साथ-साथ एक माता की उपाधि भी दी गई हैं। एक ऐसी माता जो सम्पूर्ण सृष्टि का पालन पोषण करती और सबको पेट भरने के लिए आहार देती हैं।

कामधेनु गाय की उत्पत्ति


पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन के समय देवता और असुरों को कई वस्तुएं प्राप्त हुई जैसे कि १४ रत्न, अप्सराएं ,अमृत , विष इत्यादि | उन्हीं रत्नों में से एक कामधेनु गाय भी थी, जिनकी उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान झीर सागर से हुई थी। इन्हे नंदा, सुनंदा, सुराधी, सुशीला के नाम भी जाना जाता है

कामधेनु माता की पौराणिक कथा


कहा जाता हैं कि मुनि कश्यप ने भगवान वरुण देव से कामधेनु गाय मांगी थी, परन्तु कार्य पूरा होने के बाद भी जब मुनि कश्यप द्वारा वरुण देव को कामधेनु गाय नहीं लौटाई गई तो उन्हें वरुण देव के क्रोध का सामना करना पड़ा | फलस्वरूप वरुण के श्राप से मुनि कश्यप का जन्म कृष्ण काल में ग्वाले के रूप में हुआ ।

कामधेनु गाय की कथा


एक ऐसे ही कथा भगवान विष्णु के अवतार भगवान परशुराम से जुड़ी है। कहा जाता हैं कि परशुराम जी के पिता जमदग्नि ऋषि को भगवान इंद्र ने कुछ समय के लिए कामधेनु गाय दी थी, एक बार राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन ऋषि जमदग्नि के आश्रम पहुंचे, जहां महर्षि द्वारा उनका सामर्थ्य अनुसार अच्छे से स्वागत-सत्कार किया गया । लेकिन राजा इस बात से हैरान थे कि आखिर महर्षि उनका स्वागत सत्कार इतने अच्छे से कैसे कर पाया जबकि उसके पास न कोई सुख-सुविधा है और न ही कोई सहायता करने वाला । राजा मन ही मन बैचेन होने लगा । तभी राजा की दृष्टि महर्षि के कामधेनु गाय पर पड़ी और राजा को समझ में आ गया कि ये सब उस चमत्कारी कामधेनु गाय का प्रभाव है । राजा ने महर्षि से कामधेनु गाय लेने की इच्छा ज़ाहिर की, लेकिन महर्षि द्वारा असमर्थता प्रकट की गई | जिसके फलस्वरूप राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन ने अपने बल का प्रयोग करते हुए कामधेनु गाय को अपने महल ले जाने का प्रयास किया, तभी वह गाय राजा के हाथो से छूटकर स्वर्ग चली गई । तत्पश्चात जैसे ही यह बात भगवान परशुराम को माता रेणुका द्वारा पता चली, उन्होंने क्रोध वश दुष्ट राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन की हजारों भुजाएं काटकर उनका वध कर दिया।

जैसे ही परशुराम सहस्त्राबाहु अर्जुन का वध करके आश्रम पहुंचे तो उनके पिता ने उन्हें तीर्थ यात्रा पर जाने का आदेश दिया, जिससे उनके उपर लगे राजा की हत्या का पाप खत्म हो सके। परशुराम के तीर्थ यात्रा पर जाने की बात जैसे ही राजा के पुत्रों को पता चली उन्होंने आश्रम पहुंचकर ध्यानमग्न महर्षि जमदग्नि का सिर धड़ से अलग कर दिया । तपस्या में लीन भगवान परशुराम को जैसे ही अपने माता-पिता के दुखी स्वर सुनाई दिए । वे तुरंत आश्रम लौट राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन के सभी पुत्रो का वध कर दिया और अपने पिता को मंत्र द्वारा जीवित कर सप्तऋषि मंडल में सातवें ऋषि के रूप में स्थापित किया

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