श्री कृष्ण और अर्जुन संवाद | श्री कृष्ण और अर्जुन की कथा | Shri Krishna Arjun Updesh

श्री कृष्ण और अर्जुन संवाद | श्री कृष्ण और अर्जुन की कथा | Shri Krishna Arjun Updesh

भीष्म पर्व के अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता में तो भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा कूट-कूटकर भरी हुई है । वहाँ वे अर्जुन को खुले शब्दों में अपने श्रीमुख से समझाते हैं कि “मैं अजन्मा, अविनाशी ईश्वर हूँ । साधुओं की रक्षा, दुष्टों के विनाश तथा धर्म की स्थापना के लिये मैं समय-समय पर अवतार लेता रहता हूँ” । यही नहीं, वे यह भी बतलाते हैं कि “जो मेरे जन्मकर्मों की दिव्यता को तत्त्व से जान लेता है, वह जन्म-मरण के चक्कर से सदा के लिये छूट जाता है” । इसी से यह मालूम होता है कि श्रीकृष्ण हम लोगों की भाँति जन्म ने मरने वाले साधारण मनुष्य नहीं थे । जो स्वयं बार-बार जन्मता और मरता है, उसके जन्म का रहस्य जानकर कोई जन्म-मरण से कैसे छूटेगा । आगे चलकर वे बतलाते हैं कि “सारा जगत् मुझी से उत्पन्न होता है और मुझी में विलीन हो जाता है, मेरे सिवा और कुछ भी नहीं है” । स्पष्ट शब्दों में वे अर्जुन को समझाते हैं कि “मैं अपनी योगमाया से अपनी भगवत्ता को छिपाये रहता हूँ, इसी से अज्ञानी लोग मुझे पहचान नहीं पाते और मुझ अजन्मा एवं अविनाशी को जन्मने-मरने वाला मनुष्य मान बैठते हैं” ।

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श्रीकृष्ण जब अपने दिव्य विग्रह से इस भूतल पर विद्यमान थे, उस समय भी कंस, जरासन्ध, शिशुपाल, दुर्योधन आदि अनेकों ऐसे व्यक्ति मौजूद थे, जो उन्हें साधारण मनुष्य समझकर उनकी अवहेलना कर बैठते थे । ऐसी दशा में आजकल के लोग उनकी अनुपस्थिति में उनके विषय में अनेक प्रकार की ऊँची-नीची कल्पनाएँ अथवा कुतर्क करें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ।

इतना ही नहीं, अपनी अतुल महिमा का प्रत्यक्ष कराने के लिये श्रीकृष्ण अर्जुन को कृपापूर्वक अपने विश्वरूप का दर्शन कराते हैं । अर्जुन ने देखा कि उनके शरीर से हजारों सूर्य की आभा निकल रही है ; सारे देवता, ऋषि एवं अन्यान्य भूत समुदाय उनके शरीर में मौजूद हैं | उनके अनेकों भुजाएँ, पेट, मुख और नेत्र हैं; वे सब ओर से अनन्त हैं; उनका आदि, मध्य, अन्त-कुछ भी नहीं दिखायी देता । अर्जुन ने यह भी देखा कि भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि कौरव-पक्ष के बड़े-बड़े योद्धा उनकी भयानक दाढ़ों में पीसे जा रहे हैं और सारे लोक उनके मुँह में समा रहे हैं । श्रीकृष्ण के इस विकराल रूप को देखकर अर्जुन भयभीत होकर उनकी स्तुति करने लगते हैं और मित्र के नाते अब तक जो उनके साथ समानता का बर्ताव करते आये थे, उसके लिये उनसे क्षमा माँगते हैं ।

अर्जुन को भयभीत देखकर भगवान् अपने उस काल रूप को समेट लेते हैं और पुनः श्याम सुन्दर रूप में उनके सामने प्रकट हो जाते हैं । इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह प्रत्यक्ष करके दिखा दिया कि जो उनके सामने त्रिभुवन मोहन श्याम सुन्दर के रूप में सदा प्रकट रहते थे, जगत् भी वे ही बने हुए हैं और वे ही जगत से परे रहकर उसे बनाते-बिगाड़ते रहते हैं । उन्हें इस प्रकार यथार्थ रूप में जानना, देखना और पाना उनकी भक्ति से ही सम्भव है ।

अत एव भगवान् अन्त में अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि “तू मेरा ही चिन्तन कर, मुझसे ही प्रेम कर, मेरा ही भजन-पूजन कर तथा और सबका भरोसा छोड़कर मेरी ही शरण में आ जा ।

यही भगवद्गीता का अन्तिम उपदेश है । श्रीकृष्ण का भी वास्तविक स्वरूप वही है, जो भगवद्गीता में व्यक्त हुआ है । वे जगत से अतीत, कूटस्थ आत्मा से भी श्रेष्ठ, पूर्णतम पुरुषोत्तम हैं । उनका यह रूप अनन्य भाव से उनके शरण होने से ही समझ में आता है, अतः श्रीकृष्ण क्या हैं, यह समझने के लिये हमें अपनी बुद्धि का अभिमान छोड़कर उनकी शरण ग्रहण करनी पड़ेगी । उनके शरणापत्र होने पर अर्जुन की भाँति वे अपना स्वरूप स्वयं हमें समझा देंगे । तब अर्जुन के ही स्वर में स्वर मिलाकर हम कह उठेंगे – “प्रभो ! तुम्हारी कृपा से मेरा अज्ञान दूर हो गया, तुम्हारा वास्तविक स्वरूप मेरी समझ में आ गया । अब मैं सन्देइरहित होकर जो तुम कहोगे, वही आँख मूँदकर करूँगा” । इसके बाद हमारे द्वारा जो कुछ भी चेष्टा होगी, वह प्रभुप्रेरित ही होगी । हम सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करेंगे । यही गीता की परम नैष्कर्म्यसिद्धि है । ऐसे लोगों के लिये ही भगवान ने कहा है कि वे सारे जगत का संहार करके भी कुछ नहीं करते । वे भगवान् के हाथ के यन्त्र बन जाते हैं ।

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