महारानी पद्मावती का इतिहास । महारानी पद्मिनी की कहानी । Rani Padmavati Story
यदि हमारी माताएँ तथा बहिनें सतीत्व का मूल्य जानना चाहें, तो महारानीं पद्मावती (महारानी पद्मिनी) की पवित्र जीवनी का अध्ययन करें ।
जिस समय अलाउद्दीन खिलजी ने महारानी के अनुपम रूप-सौन्दर्य से उन्मादित होकर सेना सहित चित्तौड़ को आ घेरा और इस आक्रमण का उद्देश्य परमा सुन्दरी महारानीं पद्मावती (महारानी पद्मिनी) को प्राप्त करने के लिये ही प्रकट किया, उस समय महारानी चाहतीं, तो अलाउद्दीन की इच्छा को पूर्ण कर दिल्लीशवरी हो सकती थीं । परन्तु वीर-पत्नी महारानीं पद्मावती (महारानी पद्मिनी) ने दिल्लीश्वरी होने के प्रलोभन को लात मार कर सतीत्व-रक्षा करने में ही जीवन विसर्जन करना अपना गौरव समझा । महारानी के जीवन का आदर्श कितना उच्च है,यह उनके अटल, अविचल तथा निर्मल भाव से ही स्पष्ट है । इस सुन्दरी उस समय दूसरी नहीं थी और यही कारण था,कि सौन्दर्यपासक अलाउद्दीन ने उन्मत्त होकर उनको प्राप्त करने के लिये अपनी सारी शक्ति का प्रयोग किया । किन्तु चित्तौड़-ध्वंस के साथ पद्मावती (पद्मिनी) भी चिता में प्रवेश कर स्वर्गलोग सिधारी और यवन अलाउद्दीन को अपना पवित्र अंग स्पर्श करने नहीं दिया ।
महारानी पद्मिनी सिंहलद्वीप के चौहान राजा हमोर सिंह की पुत्री थीं । इस परम सुन्दरी पद्मिनी का विवाह चित्तौड़ के महाराणा भीमसिंह (जायसी के अनुसार राजा रतन सिंह) के साथ हुआ था । हम पहिले ही कह चुके हैं, कि महारानी पद्मिनी के समान रूपवती स्त्री उस समय दूसरी कोई नहीं थीं । अतः उसके रूप की प्रशंसा दूर-दूर तक फैल चुकी थी । महारानी की इस सुन्दरता का समाचार हवा के समान उड़ता हुआ अलाउद्दीन के कान तक पहुचा । कामासक्त अलाउद्दीन यह खबर पाते ही महारानी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिये व्याकुल हो उठा । दूसरा कोई साधन न देखकर उसने मेवाड को ही जीतने का विचार किया । वीर राजपूतों के रहते हुए चितौड़ विजय करना खेल नहीं था, यह उसे अनेक बार युद्ध से भली-भाँति ज्ञात हो चुका था । इसलिये उसने कुटिल नींति से काम लेकर उन्हें परास्त करना निश्चित किया ।
यद्यपि मेवाड़-विजय करने की उसकी आन्तरिक इच्छा नहीं थी, पर वह अपनी काम लोलुपता को चरितार्थ करने के लिये बिना युद्ध किये पद्मिनी का मिलना कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव था। इसलिये उसने मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी और चित्तौड़ को चारो ओर से घेर लिया और महाराणा के पास दूत द्वारा यह समाचार भेजा, कि “बिना पद्मिनी को लिये दिल्ली न जाऊँगा ।”
महाराजा रतन सिंह दूत द्वारा यह वचन सुन आग-बबूला हो गये । उनकी आँखों से अग्नि की चिनगारियाँ निकलने लगीं और उसी समय युद्ध घोषणा कर दी गयी । भयंकर युद्ध होने लगा । अन्त में पठान सेनादल के पैर उखड़ गये और वे युद्धस्थल छोड़कर भाग निकले ।
अलाउद्दीन को हताश होकर लौटना पड़ा । कुछ काल पश्चात् अलाउद्दीन फिर एक बड़ी सेना लेकर चित्तौड़ पर आ धमका और दूत द्वारा केवल पद्मिनी को देखकर लौट जाने का सन्देश भेजा । उस समय की परिस्थिति को देखकर राणा ने भावी विपदाओं को टालने के लिये इस शर्त को मंजूर कर लिया। अलाउद्दीन आया और दर्पण द्वारा उस सुन्दरी का दर्शन कर राज प्रसाद के बाहर चला गया । पर अतिथि-सत्कार के विचार से महाराणा बातचीत करते हुए बादशाह के शिविर तक चले गये ।
अलाउद्दीन का विचार तो कल्पित था ही,वह मौका देखकर राजा रतन सिंह को बन्दी कर एक नौकर से कहा – “जाओ, चित्तौड़ को कह दो; कि जब तक महारानी पद्मिनी मेरे पास न आएगी, तब तक राजा रतन सिंह न छोड़े जायेगे।” यह समाचार सुनकर मेवाड़ दरबार में खलबली सी मच गयी । परन्तु महाराणा के स्वामिभक्त अमात्यों एवं दरबारियो ने सोचा, कि इस समय नीति से ही काम लेना उचित है इसलिये उसी समय सूचना दी गयी, कि स्वामी के हित के लिये चित्तौड़ सब कुछ कर सकती हैं । यदि वे चाहे, तो महारानी सेवा में जा सकती हैं । यह समाचार सुनते ही, अलाउद्दीन के आनन्द का पारावार न रहा । उसने चित्तौड़ के घेरे को उठा लिया तथा महारानी के स्वागत के लिये समस्त सेना में आनन्द मनाया जाने लगा ।
नियत समय पर सात सौ डोलियाँ चित्तौड़-गढ़ से निकल कर अलाउद्दीन के खेमे में जा पहुँचीं । उन पालकियों के उठाने वाले तथा उनमें बैठने वाले सभी वीर राजपूत योद्धा थे । वहाँ पहुँचकर बादल ने अलाउद्दीन से प्रार्थना की, कि पद्मिनी पहले एक बार अपने प्राणनाथ का दर्शन करना चाहती हैं, इसलिये उन्हें आध घण्टे का अवकाश दिया जाये ।
महाराणा बन्धन-मुक्त कर दिये गये। वे वहाँ से चित्तौड़ को चल पड़े । इधर दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध होने लगा । वीर गोरा और बादल ने बड़ी वीरता दिखायी और शाही सेना हारकर रणक्षेत्र से भाग चली । पराजित अलाउद्दीन विवश होकर दिल्ली को लौट गया, किन्तु पद्मिनी को प्राप्त करने की लालसा अब तक उसके हृदय से नहीं मिटी । उसने पुनः दूगुने उत्साह से सन् १२९० में चित्तौड़ पर चढ़ायी कर दी । पूर्व-युद्ध में राजपूत लोगों को जो क्षति हुई थी, वह अभी पूर्ण होने भी न पायी थी, कि पुनः युद्ध का डंका बज उठा । पर वीर क्षत्रिय भी चुप रहने वाले नहीं थे । दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध होने लगा । पर फल कुछ नहीं निकला । इस बार दुष्ट अलाउद्दीन बड़ी तैयारी से आया था । छः मास तक राजपूत लोग बड़ी वीरता से लड़ते रहे । किन्तु गढ़ में घिरे हुए राजपूत वीरों की संख्या इतनी घट गयी, कि उनको विवश होकर केशरिया थाना धारण करना पड़ा !
गढ़ की १५०० क्षत्राणियाँ चिता लगाकर उस पर बैठ गयीं | पद्मिनी मध्य में बैठी और चिता के चारों ओर आग लगा दी गयी । जब राजपूतो ने देखा, कि महारानीं पद्मिनी तथा सभी स्त्रियाँ प्रसन्नता से अग्निदेव को समर्पित हो चुकी हैं, तब वे लोग सिंह के समान गजते हुए काल के समान यवनों पर टूट पड़े । भींषण संग्राम आरम्भ हो गया । अलौकिक वीरता दिखाता हुआ प्रत्येक राजपूत-वीर वीरगति को प्राप्त हुआ ।
अलाउद्दीन पद्मिनी की लालसा से आनन्द मनाता हुआ किले में घुसा । उसने देखा, कि सारा नगर अग्नि से धधक रहा है । वह शीघ्र राज-प्रासाद पर पहुचा । राजप्रासाद के पास ही अग्नि ज्वाला को देख कर वह समझ गया, कि पद्मिनी इसी में जलकर भस्म हो गयी होगी । अब उसकी राख तक का पता नहीं चल सकता ।
यह देखकर अलाउद्दीन के शोक और निराशा का पारावार न रहा । परन्तु अब वह कर ही क्या सकता था ? सती शिरोमणि पद्मिनी पहले ही चिता में जलकर भस्म हो चुकी थी । आखिर उसने क्रोध-वश चित्तौड़ के राजप्रासाद तथा देव-मन्दिरों को भंग करवा कर ही सन्तोष किया ।
यह चित्तौड़ का महा अवसर था, जिसमें सती-शिरोमणि महारानी पद्मिनी अपनी अतुल कीर्ति को भारतवर्ष की आर्यमहिलाओं के सतीत्व का आदर्श दिखा, परलोक सिधारीं ।