मंगल पाण्डेय का जीवन परिचय व इतिहास । Mangal Pandey Ka Jeevan Parichay

मंगल पाण्डेय का जीवन परिचय व इतिहास । Mangal Pandey Ka Jeevan Parichay

सन् १८५७ के भीषण गदर ने इस देश में ब्रिटिश शासन को एक बार डावाडोल कर दिया था । आरम्भ में अंग्रेज़ व्यापारी इस देश में बड़ी शान्ति के साथ आये और अपना व्यापार बढ़ाने लगे; पर धीरें-धीरे उन्होंने देखा, कि इस देश के विभिन्न राज्यों और सम्प्रदायों में बड़ा मनमोटाव, फूट और मतभेद है, इस कारण उन्हें इस देश पर अधिकार करने में बड़ा सुविधा हुआ ।

सन् १७५७ के पलासी-संग्राम के बाद अंग्रेजो का फौलादी पंजा बंगाल पर अच्छी तरह जम गया और सन् १८५६ तक वह फौलादी पंजा पुरे भारत में फैल गया । लार्ड डलहौज़ी की क्रूर भेद-नीति के कारण बड़े-बड़े राज्य ज़बरदस्ती ब्रिटिश-भारत में मिला लिये गये ।

अंग्रेजो के इस राज्य-विस्तार से अनेक देशी नरेश और अन्य लोग भयभीत होने लगे । अंग्रेज़-सरकार के कार्यो ने जिन हिन्दुस्तानियों के हृदय में आशंका पैदा कर दी थी, सरकार की कुटिल राज-नीति से जो नरेश राज्यभ्रष्ट हो चुके थे, जो पदभ्रष्ट हुए थे, सरकार के नये शासन-प्रबन्ध के कारण जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी की ज़मीनों से वंचित हो गये थे, जिनका प्राचीन स्वत्व और प्राचीन पद लोप हो गया था, वे सब सरकार को घृणा की दृष्टि से देखने लगे, और अंग्रेजो से बदला लेन के लिये तिलमिलाने लगे । पर विद्रोह की अग्नि अभी तक दबी हुई थी; क्योंकि अंग्रेजो के दिये लालच और प्रलोभनों में हिन्दुस्तानी सेना फसी हुई थी । अब सेना के भी बिगड़ने की बारी आयी ।

AVvXsEgek5hWeNMhTbIBDri3hHhE6SaGsVlBzr5jRi6uXCMlaLjItXW8l7WxIn2lGHsxxbpdn7L3cWalx7hc8TIHveliZ yTPSaRyZR8fUsQdW1U 9xtfMK9HUCxzBENWk0dW1tmIZyv6rVqqD11YbCI5wG11x0V5DsjbJ1t8YAJsEKc1Mp6YyPhfJg aB4b=s320

सन् १८५७ के आरम्भ में हर तरफ शान्ति थी पर धीरे-धीरे इस शान्त वातावरण का भी अन्त आया । प्रायः एक शताब्दी तक हिन्दू और मुसलमान सिपाही अंग्रेज अफसरों के अधीन रह कर भक्ति-पूर्वक काम करते आ रहे थे । अंग्रेजो के विरुद्ध कभी उनमें कोई भाव नहीं आया था । पर एकाएक हिन्दुस्तानी सेना में यह भयानक खबर फल गयी, कि “सरकार ने हिन्दुस्तानी सिपाहियों के लिये चर्बी वाले कारतूस तैयार किये हैं।” उन कारतूसों में चाहे चर्बी मिली हो या न मिली हो ,पर यह बात सत्य थी, कि नयी बन्दूको के लिये सरकार ने नये तरह के कारतूस तैयार कराये थे । सिपाहियों ने सुना, कि कारतूसों में लगा हुआ फीता गौ और सूअर की चर्बी से बनाया गया है । इसपर हिन्दू और मुसलमान सिपाही दोनों सरकार को बुरी दृष्टि से देखने लगे । सबसे पहले दमदम और बारकपुर की हिन्दुस्तानी सेनाओं में सरकार के विरुद्ध असन्तोष की लहर दौड़ने लगी ।

दम-दम में चर्बी वाले कारतूसों की बात प्रकट होने के कुछ दिन बाद ही बारकपुर में तार का स्टेशन जला दिया गया । इसके बाद प्रति रात्रि को अंग्रेजो के बंगलो पर आग बरसायी जाने लगी और तीर भी छोडे जाने लगे । बारकपुर से बहुत दूर रानीगंज में भी इसी प्रकार के अग्नि कांड होने लगे । यहाँ दूसरी रेजिमेट की एक शाखा यह काम करती थी ।

इसके बाद प्रति रात्रि को देशी सिपाहियों की सभाएं होने लगीं । वक्ता लोग उद्दण्ड होकर उत्तेजक भाषा में अंग्रेजो को अत्याचारी और नापाक सिद्ध करने लगे, और यह कहने लगे, कि “अंग्रेज़ सरकार सबका धर्म नाश करने, सबको जाति-भ्रष्ट करने और ईसाई बनाने के लिये जाल रच रही है।“ केवल सभाओं तक ही यह मामला न राहा । उनके हस्ताक्षरो की चिट्ठियों कलकत्ते और बारकपुर के डाक खानों से भिन्न-भिन्न फौजी छावनियों को जाने लगीं । इस प्रकार हर एक छावनी और सेना में चर्बी मिले कारतूस की बात पहुच गयी । हर एक सेना के सिपाही इससे शंकित, त्रस्त और उत्तेजित हुए । सर्वप्रथम ३४ नं० की सेना और फिर १९ नं० की सेना में उत्तेजना फैलने लगी ।

इधर जब अंग्रेज सेनापतियों के कानों में देशी सिपाहियों के असन्तोष की भनक पड़ी, तो वे सिपाहियों को समझाने लगे, और कहने लगे, कि सरकार तुम्हारे धर्म में कभी हस्तक्षेप न करेगी । तुम लोग अपने बाप-दादों का धर्म खुशी से पालन करते रहो । वास्तव में देशी सिपाहियों के बाप-दादों के धर्म से अग्रेज सरकार का कुछ भी सम्बन्ध न था । अंग्रेज़ इस धनाढ्य देश में मालामाल बनने के लिये आये थे, और उन्होंने यहाँ के सभी नरेशों और नवाबों के अगाध-धन-धान्य के खज़ाने तो लूट ही लिये थे, दूसरे जनता पर कर लगा कर और व्यापार बढ़ाकर भी अंग्रेज़ लोग खुब धनवान बन रहे थे ।

देशी सिपाहियों की सहायता से वे केवल अपने स्वार्थो और राज्य की रक्षा करना चाहते थे, पर चर्बीवाले कारतुसों ने अब उन सिपाहियों को भी भड़काया, इसलिये सरकार उन्हें शान्त करने लगी, पर शान्ति न हो सकी । अशान्ति की भीषण अग्नि बंगाल छोड़ कर पश्चिमोत्तर प्रदेश, आगरा व अवध की देशी सेना में भी सुलगने लगी । चपातियों के द्वारा एक गाँव से दूसरे गाँव में सिपाही लोग विद्रोह करने का समाचार पहुँचाने लगे । आन्दोलन धीरे-धीरे शक्तिशाली हो रहा था ।

मंगल पाण्डेय का विद्रोह


२९ मार्च सन् १८५७ को बारकपुर के सिपाहियो में बड़ी सनसनी फैली थी । तीसरे पहर यह खबर फैली, कि कलकत्ते में कई गोरी फ्रौजे जहाज से उतरी हैं , और वे शीघ्र ही बारकपुर आयेगी । यह दिन रविवार का था । अंग्रेज़ अफ़सर छुट्टी में अपना समय आनन्द से बिता रहे थे । देशी सिपाहियों के इसी दल में मंगल पांडेय नामक एक नौजवान था, जो परम धार्मिक और सात्विक महापुरुष था । यह हट्टा-कट्टा बलिष्ट ब्राह्मण मंगल पांडेय धर्मनाश की आशंका से बहुत ही दुःखी रहने लगा, सात वर्ष से वह अत्यन्त वीरता और राजभक्ति-पूर्वक काम करता था । २९ मार्च को जब गोरी फौज के आने की खबर छावनी में पहुँची, तो उस समय सब सिपाही बड़े ही चिन्तित और उत्तेजित हुए । उस समय भांग के नशे में चूर मंगल पांडेय से स्थिर न रहा गया । उसने सोचा, कि अंग्रेजो के द्वारा अब जाति और धर्म के नाश होने का समय आ गया है । उत्तेजना और नशे की झोंक में महल हथियारों से सुसज्जित होकर अपनी बेरक से बाहर निकला । वह अन्य सिपाहियों से कहने लगा, कि अपवित्र कारतूसों में कोई हाथ न लगाये । एक बिगुल बजाने वाला पास ही खड़ा था । मंगल पाण्डेय ने उससे कहा, कि बिगुल बजाकर सब सेना को एकत्र करो । पर उसने बिगुल न बजाया । फिर भी मंगल पाण्डेय हाथ में बन्दूक लिये चारों ओर घूमने लगा । कुछ दूर पर एक अंग्रेज अफसर खड़ा था । मंगल ने पिस्तौल से उस पर गोली चलायी; पर निशाना न लगा । इस समय ३४ नं० सेना के सिपाही पास ही खड़े थे, पर उन्होंने मँगल का साथ न दिया । इसी समय एक हवलदार ने मंगल के विद्रोह की खबर एडजुटेएट को दी । लेफ्टिनेएट बक नामक एक अंग्रेज ३४ न० सेना का एडजुटेएट था । समाचार मिलते ही वह फौजी पौशाक और हथियारों से सुसजित होकर हाथ में भरी पिस्तौल लिये घोड़े पर बैठकर आया ।

मैदान में आते हो उसने कहा, -“वह कहाँ है ? वह कहाँ है ?” पास ही एक तोप थी; इसी तोप की आढ से मंगल पाण्डेय ने सवार पर निशाना लगाकर बन्दूक छोड़ी । गोली बक को नहीं लगी; पर उसके घोड़ो को गोली लगी । घोड़े के गिरते ही बक भी गिरा; पर झट खड़ा होकर उसने मंगल पर पिस्तौल से फायर किया । निशाना खाली गया । इसके बाद क्रोध में भरा हुआ बक तलवार लिये मंगल पर दौड़ा । एक गोरा अफ़सर भी उसी समय तलवार लिये उसकी सहायता के लिये लपका ! दोनों गोरे मंगल पाण्डेय पर टूट पड़े । मँगल पाण्डेय भी वीरता पूर्वक तलवारों का जवाब तलवार से देने के लिये तैयार था । तीनों की तलवारे हवा में घूमने लगीं । चारों ओर प्राय: चार सौ सिपाही खड़े तमाशा देख रहे थे, पर किसी ने किसी का पक्ष न लिया । मंगल ने बड़ी वीरता और फुर्ती से दोनों के वार बचाते हुए अपने विपक्षी एक अंग्रेजो को घायल करके गिरा दिया । दो वीर अंग्रेज इस देशी सिपाही को काबू में न ला सके । जब मंगल एक अंग्रेज को गिरा चुका, तब दूसरे अंग्रेज प्राण बचाने के लिये शेख पल्टू नामका एक मुसलमान आगे आया । जैसे ही मंगल ने अंग्रेज अफ़सर को ताककर तलवार चलायी, वैसे ही पल्टू पीछे से आकर मँगल की बाँह पकड़ ली । पल्टू का बाँया हाथ कटकर लहूलोहान हो गया, पर उसने मंगल को न छोड़ा। इस प्रकार इस अंग्रेज अफसर के प्राण बचे; पर उसे भी कई घाव लगे थे, जिनसे रक्त बह रहा था । जो अंग्रेज गिरा था, वह भी केवल घायल हुआ था । दोनों अंग्रेज़ अफसर लहू से तर-बतर थे । वे वहाँ से चले गये ।

शेख पल्टू अब तक मॅगल पाण्डेय को पकड़े था । अन्य देशी सिपाहियों ने उससे जाकर कहा, कि तुम मँगल को छोड़ दो । नहीं तो हम लोग तुम्हें मार डालेंगे । मँगल छूट गया और मस्तो के साथ वहीं गश्त लगाने लगा । सेना की गड़बड़ का समाचार जनरल हेयर्स के पास पहुँचा । इस सेनापति के दो पुत्र भी सेना में अफसर थे । समाचार सुनते ही सेनापति हेयर्स अपने दोनों नौजवान पुत्रों सहित शस्त्रों से सजकर घोड़ों पर आये । परेड के मैदान में पहुँचकर सेनापति ने सुना , कि मँगल पाण्डेय पागलों की तरह सेना में घूमता हुआ, जाति-रक्षा और धर्म रक्षा का उपदेश दे रहा है उस समय समस्त सिपाहियों में जाति-रक्षा करनेकी उच्च भावना केवल मंगल पाण्डेय में ही थी, जो अकेला ही बन्दूक लिये सारे संसार की अवहेलना कर रहा था । सेनापति हेयर्स और उसके दो पुत्र उधर गये । उनके साथ अन्य सिपाही भी थे । सेनापति सिपाहियों पर बहुत बिगड़ चुका था, कि “तुम लोगों ने मँगल पांडेय को गिरफ़्तार क्यों न किया ?” इसी डर से कुछ डरपोक सिपाही साथ हो लिये । मंगल उस समय बन्दूक ने लिये अधीरता से टहल रहा था । सेनापति को देखते ही उसने अपनी बन्दूक संभाली । सेनापति के पुत्र ने कहा, – “पिता ! विद्रोही सिपाही आपकी ओर बन्दूक उठा रहा है।” सेनापति ने पुत्रोंसे कहा, – “अगर मैं मारा जाऊँ, तो मेरे बाद तुम जाकर इस विद्रोही की जान लेना । ” पर मँगल ने उस पर गोली न चलायी। उसने देखा कि जिन सिपाहियों के लिये उसने विद्रोह किया, वे ही सेनापति का साथ दे रहे हैं । इससे मँगल हताश हो गया । फिर उसने बन्दूक की नली अपने शरीर में लगा कर पैर के अँगूठे से घोड़ा दबा दिया । पर मँगल मरा नहीं, बहीं अपनी बन्दूक से घायल होकर गिर गया ।

मंगल पाण्डेय को फांसी


सेनापति ने आगे बढ़कर देखा, कि मँगल घायल होकर गिर गया है । उन्होंने उसे अस्पताल भिजवाया,वे जिसमें वह अच्छा हो जाये और उसे बाकायदा प्राणदण्ड दिया जाये ।कहना व्यर्थ है, कि उस समय देशी सेना ने विद्रोह न किया ।

६ अप्रैल १८५७ को मँगल पाण्डेय का मुकदमा हुआ । जज ने उसे दोषी पाया और इसलिये फांसी की सज़ा सुना दी । मँगल पाण्डेय का घाव गहरा था और अब उसे आराम करने की चिन्ता किसे थी ? पर इस दशा में भी मँगल पाण्डेय ने अपनी सहन-शक्ति का पूर्ण परिचय दिया । उसने कोई उफ या आह न की और न किसी तरह का खेद ही प्रकट किया । ८ अप्रैल १८५७ को सारी सेना के सामने मंगल पाणडेय को फाँसी दी गयी ।

१० अप्रैल १८५७ को एक जमादार का भी मुकदमा हुआ । इस जमादार का यह अपराध था, कि इसने अंग्रेज अफ़सरों को घायल होते देखकर भी मँगल को गिरफ्तार करने का हुक्म नहीं दिया । २१ अप्रैल १८५७ को जमादार को भी फॉसी दी गयी । पर मँगल को पकड़ने वाले शेख पल्टू को सिपाही से हवलदार बना दिया गया ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *