रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय | Rani Laxmi bai Biography in Hindi
महारानी लक्ष्मी बाई का बलिदान अँग्रेजी राज्य में अभूतपूर्व है । केवल २२वर्ष की छोटी अवस्था में शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार के साथ युद्ध करके रणभूमि में प्राण त्याग करने वाली झाँसी की महारानी लक्ष्मी बाई ही थी ।
महारानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपन्त ताम्बे तथा माता का नाम भागीरथी बाई था । द्वितीय बाजीराव पेशवा के भाई चिमणाजी आप्पा के यहाँ, जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सन्धि करके आठ लाख रुपये वार्षिक वृत्ति ग्रहण कर काशी में रहते थे, मोरोपन्त ताम्बे ५० रु० मासिक वेतन पर काम करते थे । कौन जानता था, कि ५० रु० मासिक पाने वाले की पुत्री एक दिन प्रसिद्ध महारानी होकर अंग्रेजों से युद्ध कर संसार में अपनी अटल कीर्ति स्थापित कर जायेगी ?
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म
कात्तिक बदी चतुर्दशी संवत् १८९१ विक्रमी तदनुसार ता० १९ नवम्बर सन् १८३५ ईसवीं को महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशीपुरी में हुआ था । उस समय ज्योतिषियों ने जन्म-कुण्डली के प्रहचक्र देख कर कहा था, कि यह बालिका भविष्य में प्रसिद्ध राज्याधिकारिणी तथा अपूर्व शौर्यशालिनी होगी । मोरो पन्त ताम्बे ने बलिका का नाम मनुबाई रखा । कुछ समय बाद चिमणाजी आप्पा का देहान्त हो गया । मोरोपन्त ताम्बे निराश्रय हो गये, परन्तु चिमणाजी आप्पा के भाई द्वितीय बाजीराव पेशवा ने, जो चिमणा जी आप्पा की ही भाँति आठ लाख रुपये वाषिक वृत्ति लेकर बिठूर में रहते थे , अपने भाई के आश्रितों को काशी से बिठूर बुला लिया । मोरोपन्त ताम्बे भी पेशवा के यहाँ रहने लगे ।
रानी लक्ष्मीबाई कीं माता
मनुबाई देखने में अत्यन्त सुन्दरी तथा तेजस्विनी दिखाई पड़ती थीं, इसलिये बाजीराव ने प्रेम से उनका नाम छबीली रखा था । मनुबाई जब तीन वर्ष की थीं, तभी उनकी माता भागीरथीं बाई का देहान्त हो गया । मोरोपन्त ताम्बे इस घटना से अत्यंत दुखित हुए ।
रानी लक्ष्मीबाई का पालन पोषण
मनुबाई के पालन-पोषण का समस्त भार अब इन्ही पर पड़ा । पर किसके पास छोडे ? यह सोचकर वे मनुबाई को सदा अपने साथ ही रखते थे। इस प्रकार बचपन से ही पुरुषों के साथ रहने के कारण मनुबाई में अत्यधिक पुरुषोचित गुण आ गये थे । बाजीराव मनुबाई से बहुत स्नेह करते थे तथा मनुबाई के भावी जीवन की प्रतिभा का उन्हें कुछ-कुछ आभास भी मिल चुका था । इसलिये उन्होंने अपने दत्तक पुत्र नानाजी धुन्धूपन्त तथा राव साहिब के साथ-ही-साथ इनके लालन-पालन एवं शिक्षा का भी प्रबन्ध कर दिया । इस प्रकार मनुबाई राजकुमारों के साथ-ही घोड़़े पर चढ़ने, शस्र चलाने तथा युद्ध-विद्या के अन्य विषयो में शीघ्र ही निपुण हो गयी ।
रानी लक्ष्मीबाई का विवाह
झाँसी के महाराज गंगाधर राव ने प्रथम पत्नी के स्वर्गवासी हो जाने पर बाजीराव की आज्ञा से मनुबाई से विवाह किया । उस समय मनुबाई का नाम लक्ष्मी बाई रखा गया, जो इनके लिये सर्वथा उपयुक्त था । महारानी लक्ष्मीबाई के झाँसी में आने से झाँसी की उत्तरोत्तर उन्नति होने लगी । सब प्रजाजन आनन्द से जीवन व्यतीत करने लगे, समय पाकर महारानी लक्ष्मीबाई के एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसके जन्मोत्सव में बड़ा आनन्द मनाया गया । परन्तु वह आनन्द दुख में परिणत हो गया । तीन महीने की ही अवस्था में राजकुमार का देहान्त हो गया, जिसके शोक ने महाराज गंगाधर राव को बिल्कुल रोगग्रसित कर दिया । अपने जीवन से निराश हो गये, तब उन्हें अपने वंशनाश की चिंता सताने लगी । अपने कुटुम्ब के आनन्द राव नामक पाँच वर्ष के एक बालक को शास्त्र-विधानानुकूल दत्तक पुत्र बनाया ।
दत्तक-विधान के समय बुन्देलखण्ड के असिस्टेण्ड पोलिटिकल एजेण्ट मेयर एलिस, कमान्डिंग आफिसर सर कप्तान मार्टिन, मन्त्री नरसिंहराव आदि, नगर सेठ लाहौरीमल खत्री तथा मोरोपन्त ताम्बे आदि सम्बन्धी उपस्थित थे । आनन्दरावका नाम दामोदर राव रखा गया ।
महाराज ने अपने दीवान से ब्रिटिश गवर्नमेट को इस आशय का प्रार्थना-पत्र लिखाया, कि – “मैं इस समय अत्यन्त रोगग्रसित हूँ । ब्रिटिश गवर्मेंट की कृपा होते हुए भी मेरा वंश नष्ट हो रहा था । इससे मैं बहुत चिन्तित था । इसलिये सरकार से मेरी जो सन्धि हुई है, उसकी दूसरी धारा के अनुसार मैंने दामोदर राव नामक बालक को अपना दत्तक पुत्र बनाया है । यदि मैं भगवान की कृपा तथा गवर्मेंट के अनुग्रह से आरोग्य हो गया और मेरे पुत्र उत्पन्न हुआ, तो मैं उस समय समयानुकूल उचित कार्य करूगा; अन्यथा मैं विश्वास के साथ अनुरोध करता हूँ, कि ब्रिटिश सरकार मेरे पुत्र तथा मेरी स्त्री पर विशेष कृपा रखेगी एवं सब कार्यो में स्वत्रन्त्र रहने देगी । उनके साथ कोई अनुचित व्यवहार न किया जायेगा ।“
रानी लक्ष्मीबाई के पति महाराज गंगाधर राव की मृत्यु
उक्त प्रार्थना पत्र महाराज ने मेजर एलिस को दिया । उन्होंने महाराज की इच्छा पूर्ण होने का विश्वास दिलाया। इसके दो दिन बाद ही यानी २१ नवम्बर सन् १८५३ को महाराज गंगाधर राव स्वर्गवासी हुए । यह समय भारत के राजाओं के लिये बड़े ही संकट का था, क्योकी लार्ड ढलहौज़ी की साम्राज्य-लोलूप-नीति के कारण बहुत से देशी राज्यों की स्वाधीनता नष्ट हो चुकी थी तथा बचे हुए पर भी दृष्टि पड़ी हुई थी । पुरानी प्रतिज्ञा तथा सन्धि-पत्रों पर कुछ भी ध्यान न देकर ता०७ मार्च सन् १८५४ ई० को झांसी के राज्य को ब्रिटिश-राज्य में मिला लिया गया ।
महारानी लक्ष्मीबाई ने पुरानी सन्धि तथा मित्रता का स्मरण कराके ब्रिटिश गवर्मेंट से झांसी को स्वतन्त्र कर देने की प्रार्थना की; किन्तु क्या लूटने या हड़पने की इच्छा रखने वाला किसी की प्रार्थना पर माल वापस करता है ? महारानी लक्ष्मीबाई को झांसी छिन जाने का बहुत ही दुख हुआ, पर वे फिर भी अंग्रेज़ गवर्मेंट की हितैषिणी बनी रहीं। उनको ५००० रु० मासिक मिलने लगे और वे एक साधारण गृहस्थ की भाँति ब्रिटिश जीवन व्यतीत करने लगीं । राज्य-त्याग करने के पश्चात् वे देव-पुजन, अश्वरोहन तथा कथा सुनने मे अपना अधिक समय व्यतीत करती थी ।
सिपाही युद्ध का प्रारम्भ होना
इसी समय सन् १८५७ ई० में अचानक सिपाही युद्ध प्रारम्भ हो गया, जो सारे भारत वर्ष मे फैलता हुआ, झाँसी में भी पहुँचा । उस समय झाँसी में ७०-८० अग्रेज़ सपरिवार रहते थे और भारतीय सिपाही लगभग एक हज़ार थे, जिन्होंने अंग्रेजो को मारना-काटना आरम्भ कर दिया। अंग्रेजों के मारे जाने के पश्चात् जब झांसी में कोई भी राज्य प्रबन्धकर्ता न रहा, तथा महारानी लक्ष्मीबाई ब्रिटिश कम्पनी के नाम से राज्य प्रबन्ध करने लगीं । इस युद्ध तथा अँग्रेज़ों के हत्याकाण्ड से महारानी का लेशमात्र भी सम्बन्ध न था; बल्कि उन्होंने अँग्रेज़ों को हर तरह से उस समय भी भोजन इत्यादि की सहायता दी थी, जिस समय अॅग्रेज़ किले के अन्दर घिर गये थे । पर अंग्रेज उनकी इच्छा न समझ सके और उन्होंने उन्हें खाहमखाह अपना शत्रु मान लिया ।
अंग्रेजो को भ्रम होने का कारण भी था । वह यह की महारानी के दरबार मे उस समय ऐसा कोई भी चतुर मनुष्य न था, जो उनके विचारों क़ो अंग्रेजो तक पहुचाता, क्योकी अंग्रेजो ने झांसी पर अधिकार करते समय सब पुराने तथा अनुभवी लोगो को नौकरी से हटा दिया था । इसलिए सब नए तथा अनभिज्ञ ही भरे पड़े थे । फिर भी कुछ विश्वासी मनुष्यो द्वारा महारानी ने सेंट्रल पोलिटिकल एजेण्ड जबलपुर के कमिश्नर तथा आगरे के कमिश्नर आदि के पास समय-समय पर खत भेजे थे ।
रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजो की लड़ाई
परंतु अंग्रेजो के विपक्षी भारतीय सिपाहियों ने उन मनुष्यों की हत्या रास्ते में ही कर दी थी; इसलिये भी अंग्रेजों को महारानी के भाव अवगत न हो सके थे और उन्होंने महारानी को विजय करने के लिये सर हूँरोज़ के सेनापतित्व में एक विशाल सेना भेजी, जो ता०२० मार्च सन् १८५८ ई० को झाँसी के समीप पहुँच गयी । यह समाचार जब झाँसी वालों को मालूम हुआ, तब उन्हें बहुत घबराहट हुई । ऐसे विकट समय में महारानी को उचित परामर्श तथा सत्य समाचार देने वाला कोई भी व्यक्ति न था । कोई-कोई कहते हैं, कि अंग्रेजो ने उन्हें शस्त्र-रहित होकर अपने प्रधान सरदारों सहित अपने पास बुलाया था, जिसमें कि उन्हें धोखा देकर गिरफ्तार कर लें । किन्तु यह बात स्वाभिमानी महारानी को स्वीकार नहीं हुई और “मान सहित मरना अच्छा” समझ कर वे युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गयी ।
उन्होंने अपने किले पर तोपें चढ़वा दीं, तथा समस्त युद्ध-सामग्रियो का बहुत ही सुंदर प्रबंध किया । २३ मार्च सन् १८५८ ई० को युद्ध आरम्भ हुआ । दोनों ओर से लगातार गोले छूटने लगे । दोनों पक्ष के सहस्रों मनुष्य मारे गये । इस युद्ध में स्वयं महारानी मर्दानी पोशाक पहने घोड़े पर सवार होकर सेना संचालन करती रहीं । कई दिनों तक लगातार संग्राम होने के पश्चात् अंग्रेज़ विजयी होने लगे। उस समय महारानी को बहुत दुख हुआ । अंग्रेज़ सेना ने शहर में घुसकर हत्याकाण्ड आरम्भ कर दिया । बूढ़े –बच्चे की भी हत्या की गयी । जो इनके सामने पड़ा, वही तलवार अथवा गोलियों का शिकार हुआ । इस प्रकार केवल झाँसी में कई हज़ार निरपराध मनुष्यों की अंग्रे़जी सैनिकों ने निर्दयता पूर्वक हत्या की ।
महारानी लक्ष्मीबाई का कालपी जाना
उस समय कालपी में पेशवा राव साहब की सेना थी । इसलिये महारानी ने झाँसी त्याग कर कालपी जाने का निश्चय किया | उन्होंने अपने प्रिय दत्तक पुत्र दामोंदर राव को पीठ पर कसकर बाँधा तथा शस्त्रों से सुसज्ज्ति हो ,कुछ विश्वासी सरदार एवं संबंधियों सहित झासी को अन्तिम नमस्कार कर कालपी की यात्रा की। रास्ते में लेफ्टिनेंट बीकर महारानी को पकड़ने के लिये आ पहुँचा । उस समय महारानी ने बीकर साहब के दाँत खट्टे कर दिये और वह रख-भूमि से भागता हुआ दिखाई पड़ा । २४ घंटे में १०२ मील की यात्रा पीठ पर लड़के को बाँधे हुए पूर्ण कर महारानी कालपी पहुँचीं ।
कालपी का युद्ध
पेशवा ने इनका स्वागत किया तथा महारानी ने युद्ध में पेशवा की सहायता करने की प्रतिज्ञा की । हुरोज़़ को जय यह समाचार मिला, तब वह चिन्तित हुआ । फिर भी उसने अपने अधीनस्त अफसरों की अधीनता में महारानी से युद्ध करने के लिये सेना भेजी और बाद में स्वयं भी चल पड़ा । कालपी में भी खुब घमासान युद्ध हुआ । महारानी के युद्ध-कौशल को देखकर शत्रु -मित्र सभी आश्चर्य चकित हो गये, परन्तु देश के दुर्भाग्य से यहाँ भी अँग्रेज़ों की ही विजय हुई ।
अब महारानी, पेशवा तथा तात्या टोपे बडी विकट समस्या में थें । फिर भी धैर्यवती महारानी ने पेशवा तथा तात्या टोपे को समझाया, कि बिना किसी किले पर अधिकार किये, विजय असम्भव है । इसलिये पहले ग्वालियर के किले पर अधिकार करना चाहिये ।
रानी लक्ष्मीबाई ने किया था ग्वालियर किले पर कब्जा
उस समय ग्वालियर पर जयाजीराव सिंधिया राज्य करता था,जो पहले पेशबा के अधीन था । राव साहब पेशवा को यह प्रस्ताव उचित मालूम हुआ और वे ग्वालियर की तरफ़ चल पड़े । पेशवा को विश्वास था, कि सिंधिया पुराने सम्बन्ध का ध्यान कर हमारा स्वागत तथा हर प्रकार सहायता करेगा । परन्तु वह देशद्रोही तो अंग्रेजों का मित्र हो चुका था । उसने सहायता के बदले इनसे ही युद्ध ठान दिया । पेशवा ने भी युद्ध की आज्ञा दे दी । महारानी ने बड़ी वींरता तथा साहस से ग्वालियर विजय किया और सिंधिया आगरे की तरफ अंग्रेजो के पास भाग गया । ग्वालियर विजय करके पेशवा ने बड़ा आनन्द मनाया । महारानी ने उन्हें समझाया, कि यह समय आनन्द मनाने का नहीं, बल्कि सैन्य-संगठन तथा युद्ध-प्रबन्ध करने का है । किन्तु अभिमानी पेशवा ग्वालियर विजय को ही विश्व-विजय समझ कर भ्रमित हो गये और कहने लगे, कि अब अंग्रेज हमारा कुछ नहीं कर सकते । पर बुद्धिमती महारानी अंग्रेजो की करूर नीति तथा चालाकियों से अच्छी तरह परिचित थीं ।
अब हुरोज़ कालपी विजय के बाद निश्चिन्त होकर कुछ दिन विश्राम करने के लिये बम्बई जाने वाला था । पर ग्वालियर में पेशवा का अधिकार हुआ सुन, फिर युद्ध में प्रवृत्त हुआ । अंग्रेजो की सेना ने ग्वालियर पर भीषण आक्रमण किया । सिंधिया भी आगरे से बुला लिया गया था और धूर्त अंग्रेजो ने ग्वालियर स्थित से सिंधिया की सेना को सिंधिया के पक्ष में होकर युद्ध करने के लिये बहकाया । धुर्तो की धुतर्ता काम कर गयी। सिंधिया की समस्त सेना पेशवा का साथ छोड़ सिंधिया का पक्ष लेकर अँग्रेजों की सहायता करने लगी । महारानी ने इसीलिये पेशवा को पहले से ही सावधान कर दिया था । पर विनाशकाले विपरीत बुद्धिः, हुआ वही करती है ।“ फिर भी ग्वालियर के युद्ध में महारानी ने जो वींरता दिखायी, उससे शत्रुओ के छक्के छूट गये। १९ जून सन् १८५८ को बड़ा भीपण युद्ध हुआ । एक तरफ से स्वयम् ह्यरोज ने तथा दूसरी तरफ़ से जनरल स्मिथ ने बड़े वेग से ग्वालियर पर आक्रमण किया ।
महारानी-पक्ष के सैनिक युद्ध-विद्या में अँग्रेजों के समान निपुण नहीं थे । अत: वे पीछे हटने लगे, अपनी पराजय समझ, महारानीं ने युद्ध में ही मरना निश्चित किया । परन्तु अँग्रेजों की इच्छा जीवित पकड़ने की थी । महारानी बढ़ी धर्मपरायणा तथा स्वाभिमानी थीं । इसलिये उन्होंने निश्चय किया था, कि जीवित तो क्या मृत्यु होने पर भी विधर्मियों के स्वर्श से अपने पवित्र शरीर को कलुषित न होने दूँगी । इसलिये उन्होंने अपनी पुरुष-वेश-धारिणी सखियों तथा स्वामिभक्त सेवकों से कह दिया था, कि “मेरी मृत्यु होने पर ये म्लेच्छ मेरा शरीर स्पर्श न कर सके, ऐसा प्रबन्ध करना । जब तुम मेरी यह इच्छा पूर्ण करोगे, तभी सच्चे स्वामिभक्त कहलाओगे ” महारानी के ये शब्द उनके हृदय में अंकित हो गये थे; इसलिये वे युद्ध में सदा छाया की भाँति उनके पीछे-पीछे रहा करते थे । इस समय भी वे सब साथ ही थे, महारानी के इस छोटे से दल का पीछा कुछ अंग्रेज़ सवार कर रहे थे ।
रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु
एक अंग्रेज ने महारानी पर आक्रमण किया । महारानी ने उसके आक्रमण को रोक कर अपनी तीक्ष्ण तलवार से उसे मार दिया । इसी समय एक अंग्रेज ने महारानी की सखी पर हमला किया । महारानी ने उसे भी मार गिराया । इस समय महारानी और आगे निकल जाती; पर सामने एक नाला आ गया, जिसको देख कर महारानी का घोड़ा अड़ गया । यह घोड़ा उनका अपना पुराना स्वामिभक्त घोड़ा नहीं था; बल्कि सिंधिया के अस्तबल का था । उनका अपना घोड़ा युद्ध में गोली लगने के कारण उनके साथ न रह गया था । महारानी ने घोड़े को आगे बढ़ाने के लिये बहुत प्रयत्न किये; पर दुर्भाग्य से वह ज़रा भी नहीं बढ़ा । इसी समय और भी अंग्रेज सवार आ पहुँचे । महारानी के साथ इस समय केवल चार-पाँच साथी थे। अंग्रेजो के आक्रमण का उत्तर इन्होंने भी पूरा दिया ।इसी समय एक अंग्रेज ने महारानी के मस्तक पर पीछे से तलवार मारा, जिससे उनके सिर का सारा दाहिना भाग विच्छिन्न हो गया और एक नेत्र बाहर निकल पड़ा । इतने मे ही दूसरे अंग्रेज ने महारानी की छाती में किरच भोक दी, जिससे महारानी मरण तुल्य हो गयी । आहत दशा में कोई भी युद्ध करने की शक्ति नहीं रखता । परंतु लक्ष्मीबाई ने इस असमर्थता ने भी अपने आक्रमणकारियो को मार गिराया । अपने साथियो को मरते तथा महारानी के अमानुषिक पराक्रम को देखकर बाकी अंग्रेज युद्ध से भाग गये । महारानी के इस पराक्रम तथा चोट के कारण उनकी अपनी शक्ति एकदम कम हो गयी और अन्तिम काल समीप आ गया । जब उन्हें अपने मृत्यु होने पर म्लेच्छों के स्पर्श का ध्यान हुआ, तथा उन्होंने अपने विश्वास-पात्र सरदार रामचन्द्र राव को अपनी अन्तिम इच्छा बतायी । वे महरानीं की ऐसी दशा देख अत्यन्त दुखी हो, आंसू बहाने लगे । भयंकर आघातो के कारण महारानी को बहुत व्याकुल देखकर ये उन्हें पास में बाबा गंगादास की कुटिया में उठा लाये । उस समय महारानी को बहुत प्यास लगी । उन्हें गंगाजल पिलाया गया । उनका समस्त शरीर रक्त-रजित तथा मुख स्वर्गीय तेज से दीप्तिमान हो रहा था । महारानी ने अपने पुत्र दामोदर राव को देखकर अपने नेत्र शीतल किये और उसे ईश्वर के भरोसे छोड़ दिया ।
ज्येष्ठ शुक्ल ७ संवत् १९१४ विक्रमीय तदनुसार १८ जून सन् १८५८ ई० को भारत की स्वतन्त्रताभिलाषिणी अद्भुत शौर्य्यशालिनी वीरांगन महारानी लक्ष्मीबाई इस संसार को छोड़ स्वर्गवासिनी हुई । महरानी का देहान्त होने के बाद रामचन्द्र राव ने उनके आदेशानुसार अतिशीघ्र चिता तैयार करके उनके प्राण-रहित पवित्र शरीर का अग्नि संस्कार किया ।