महारानी जिंदा का किस्सा । ज़िन्द कौर । महारानी जिंदा का इतिहास । Maharani Jinda Story
भारतीय पराधीनता के इतिहास में वींर नारियों की कमी नहीं है । अत्याचारों के कारण मुसलमानीं शासन-काल में बहुत से हिन्दू-ललनाओं को जिस तरह आत्म-बलिदान करने पड़े, उसी तरह ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक काल में भी भारतीय नारियों को कुछ कम बलिदान नहीं करने पड़े ।
भारतीय स्त्रियो जेसी रूपवती, शीलवती और तेजस्विनी होती थीं, वैसे ही अवसर पड़ने पर वे अपने शासन की क्षमता भी दिखाती थीं । पंजाब-केसरी स्वर्गीय महाराज रणजीत सिंह की रानीं ज़िंदा (ज़िन्द कौर) भी एक वैसी ही वीरागना थीं, जो शासन की पूर्ण योग्यता और क्षमता रखती थीं; पर क्रूर अँग्रेज अधिकारियों की स्वेच्छाचारिता के कारण महारानी ज़िन्दा को जो-जो कष्ट सहन करने पड़े, वे अवर्णनीय हैं ।
पंजाब का गुलाम होना
सन् १८५६ ई० में अंग्रेजों का राज्य-विस्तार समग्र भारत में हो गया था । बचा था, तो केवल एक पंजाब, और अब इस समृद्धिशाली प्रान्त को भी हड़पने का षड़यन्त्र अंग्रेज़ कर रहे थे । भारत में रेल और तार का विस्तार हो चुका था, रेल और तारों के जाल सर्वत्र बिछा दिये गये और एक प्रान्त दूसरे प्रान्त से जोड़े गये । दूसरी ओर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अत्यन्त चतुर और दक्ष कर्मचारी एक-एक देशी राज्य को किसी-न-किसी बहाने से हड़प कर रहे थे । लार्ड डलहौज़ी के शासन-काल में पंजाब, अयोध्या आदि स्वाधीन राज्यों पर भी अंग्रेजी झंडा फहर गया । लार्ड डलहौज़ी जिस समय इस देश में लाट होकर आये, उस समय पंजाब स्वाधीन था; पर जब विलायत लौटे, तब पंजाब ब्रिटिश भारत मे मिला लिया जा चुका था ।
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु
अंग्रे़जी अफसरों की चतुराई और सेनापतियों के नीच विश्वासघात से सोब्राहन की पहली लड़ाई में सिख हार चुके थे । इस लड़ाई के बाद भी सिख राज्यों की स्वाधीनता का नाश नहीं हुआ था । पर महाराज रणजीत सिंह के देहान्त के पाश्चात् उनके विश्वासघाती मंत्री अँग्रेज़ों से मिल गये । अंग्रेजो ने सतलज और रावी के बीच का प्रदेश दखल कर लिया था, और लड़ाई के बदले में डेढ़ करोड़ रुपये और माँगते थे । महाराज रणजीतसिंह की मृत्यु के समय खजाने में बारह करोड़ रुपये थे, लेकिन सिख सरदारो की नीचता और फ़जूलखर्ची के कारण खज़ाने में केवल आधा करोड़ रह गया था । उस समय के विजेता लार्ड हार्डिंग ने यह आधा करोड़ ले लिया, और एक करोड़ के बदले कश्मीर लेना चाहा । किन्तु महाराज रणजीतसिंह के प्रिय पात्र, जम्बू के शासनकर्ता राजा गोपाल सिंह ने लार्ड हार्डिंग को एक करोड़ रुपये देकर कश्मीर खरीद लिया । इस तरह महाराज रणजीत सिंह के बड़े भारी राज्य का पतन आरम्भ हो गया ।
महारानी ज़िन्दा का शासन काल
जब कश्मीर बेचा गया, उस समय महाराज रणजीतसिंह के पुत्र दलीपसिंह नाबालिग थे । रणजीतसिंह के जैसा फिर कोई ऐसा वीरात्मा न हुआ, जो अंग्रेजो से निपटता । दिलीपसिंह की महारानी ज़िन्दा (ज़िन्द कौर) के हाथ में शासन की बागडोर थी ।(कई इतिहास लेखकों ने रानी ज़िन्दा का नाम चन्द्रा भी लिखा है) महारानी ज़िन्दा यद्यपि अबला थीं, तथापि शासन कला में निपुण थी । किन्तु उनका प्रधान मन्त्री राजा गुलाब सिंह बड़ा ही लोभी और विश्वासघाती था ।
भीतरी पड़यन्त्रों के फल से कश्मीर का पूरा राज्य राजा गुलाब सिंह को मिल गया । अंग्रेजो का प्रभाव बढ़ते देख, महारानी ज़िन्दा के मन में बड़ी शंका हो रही थीं । वे स्पष्ट देख रही थीं, कि वीर-केसरी रणजीत सिंह का राज्य अंग्रेजो कि कदमो पर लोट रहा है । अंग्रेजो को फलते हुए देख रही थीं, और सबसे अधिक यह, कि उन्हीं का बेटा दिलीप सिंह अंग्रेजो की हाथ में कठपुतली हो रहा था । नारी-हृदय अपमान की इस ज्वाला से जला जा रहा था ।
महारानी ज़िंदा का कैद होना
अंग्रेजो ने महारानी जिन्दा (ज़िन्द कौर) को तेजस्विता नष्ट करने का निश्चय किया । अन्त मे वह अशुम दिन भी आया, जब अंग्रेज़ रेज़िडेंट ने बिना किसी न्याय या विचार के केवल सन्देह के आधार पर महारानी को कैद किया । उसी का भाई उसकी कैद का आज्ञापत्र लेकर महल में गया । महारानी ने इस अपमान-सूचक दण्ड-आज्ञा को स्वीकार किया । महाराज रणजीत सिंह की वीर पत्नी १९ अगस्त को मामूली क़ैदी की तरह शेखपुर ग्राम में कैद की गयीं, महारानी जिन्दां जैसी अपूर्व रूपवती थीं, वैसी ही धीर-गम्भीर भी थीं । नीच विदेशी लेखकों ने महरानी को कलंकित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी । सर हेनरी लारेन्स बड़े सच्चे और न्याय प्रिय प्रसिद्ध थे; पर उसी सर हेनरी ने महारानी को इस तरह कैद करके अपमानित किया । अंग्रेजो ने अपने इस कार्य को उचित ठहराने के लिये लिखा है, कि रानी ज़िंदा गवर्नमेट के विरुद्ध पड़यन्त्र रच रही थीं, साथ ही सर हेनरी की हत्या करवाने का भी प्रबन्ध कर रही थीं । पर अंग्रेज रेजिडेंट ने ज़िंदा (ज़िन्द कौर) के मामले का किसी कमीशन के द्वारा विचार क्यों नहीं कराया ? जब केवल सन्देह पर ही कैद करना था, तो महारानी को बदनाम करने से क्या लाभ ?
महारानी जिंदा का देश निकाला
सच तो यह है, कि अंग्रेजो की गिद्ध-दृष्टि पंजाब पर लग चुकी थी; पर अपने इस कार्य-साधन के मार्ग में अंग्रेज़ लोग रानी ज़िंदा को कॉटा समझते थे । इसलिये महारानी के नाबालिक लड़के दिलीपसिह को अंग्रेजो ने पहले ही अपने हाथ में कर लिया था । अंग्रेज रानी जिंदा को पंजाब मे रखना नही चाहते थे, इसलिए एक दिन रानी जिंदा के देश-निकाले पर अंग्रेजो ने दिलीप सिंह की मोहर लगा दी । वह आज्ञा पत्र जब शेखपुर मे महारानी के पास पहुँचा, तब पहले उन्होंने अपने लड़के के हस्ताक्षर पहचाने, फिर उस पत्र को अपने सिर-आँखों से लगाया । वह पंजाब छोड़ने के लिये तैयार हो की गयीं । पंजाब-केसरी की वीरनारी को अपनी प्यारी जन्मभूमि सदा के लिये त्याग देनी पड़ी । पहले वे शेखपुरसे फीरोज़पुर लायी गयीं, तत्पश्चात् काशी में एक अंग्रेज अफसर के पहरे में रखी गयी । खूँखार शेर की तरह पंजाब ने अपनी महारानी की दुर्दशा देखी; पर उससे किया कुछ भी न गया । बालक दिलीपसिंह भी अपने बचपन के खेलों में लगे थे । माता के दुख निवारण के लिये वे कुछ भी न कर सके । अंग्रेज राजनीतिज्ञों ने रानी को कारावरुद्ध करने में ऐसे कूट चक्रों से काम लिया, जिनकी ओर ध्यान देने से घृणा मालूम होती है ।
महारानी ज़िंदा के साथ जो अनुचित व्यवहार किया गया, उससे पंजाब की आत्मा बहुत ही व्याकुल हुई । सिख खालसा सेनाएँ महारानी को माता की तरह मानती थीं; महारानी के देश-निकाले से उन सेनाओं को बड़ा ही आघात पहुचा । इतना ही नहीं, पंजाब का एक-एक बच्चा अपने को अपमानित समझने लगा । उस समय सिख सेनापति शेरसिंह ने साफ शब्दों में यही कहा,-“समस्त सिख और पंजाब ही नहीं; बल्कि समस्त भारतवासी भी समझ गये, कि अंग्रेजो ने स्वर्गीय महाराज रणजीतसिंह की विधवा रानी राजमाता ज़िंदा के साथ केसी बेईमानी और कृतघ्रता का व्यवहार किया । संधि की शर्तों में रानी ज़िंदा को कै़द करने की कोई बात नहीं है, अंग्रेजो ने यहाँ अपमान और अत्याचार किया, सिखों का धर्म-नाश किया, और रानी के कैद के साथ पंजाब का जितना वैभव था, वह सब जाता रहा ।“
उस समय काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मद खाँ को भी अंग्रेजो के द्वारा महारानीं ज़िंदा के कैद किया जाना बहुत बुरा लगा । उन्होंने कहा था, कि “इससे सिखों की आग भड़क उठेगी । अमीर ने अंग्रेज कप्तान एबट को जो पत्र भेजा, उसमें यह साफ लिखा था – “ महाराज दिलीपसिंह की माता ज़िन्दा की कैद और देश-निकाले से सिखों की मनोवृत्तियाँ दिनोदिन बदलती जा रही हैं।“ पर अंग्रेजो ने किसी की ज़रा भी परवाह न की । नाबालिरा बच्चे दिलीपसिंह का ट्रस्टी बनकर अंग्रेजो ने पंजाब मे कब्जा कर लिया । जब पंजाब में दूसरी बार लड़ाई छिड़ी, तो बड़े लाट लार्ड डलहौज़ी ने बेरकपुर में भाषण करते हुए कहा था,-“में शान्ति चाहता हूँ ! में शान्तिका उपासक हूँ ! पर भारत के शत्रु यदि संग्राम चाहते हैं, तो उन्हें वही मिलेगा, और भयानक बदले के साथ मिलेगा ।”
महाराज दिलीपसिंह को गद्दी से उतारना
पंजाब के ब्रिटिश शासन में आते ही महाराज दिलीपसिंह भी अपने राज्य से बाहर निकाल दिये गये। फतहगढ़ में उनके रहने का प्रबन्ध किया गया । उनकी निजी सम्पत्ति याने गहने कपड़े, जो बीसों लाख के थे, ले लिये और दिलीपसिंह तथा उनके रिश्तेदारों के लिये ४ से ५ लाख रुपये तक वार्षिक में पेन्शन नियत कर दी, पर बाद में यह पेंशन भी कम होते-होते केवल ८० हज़ार रुपये प्रति वर्ष मिला करती थी । जिस समय महाराज दिलीपसिंह गद्दी से उतारे गये, उस समय उनकी आयु केवल ग्यारह वर्ष की थी ।
महाराज दिलीपसिंह को ईसाई बनाना
गद्दी से उतारने के बाद वे सर जान लाज़िन नामक मास्टर के सपुर्द किये गये। सन् १८५३ में एक ईसाई पादरी ने महाराज दिलीपसिंह को ईसाई बना लिया । सोलह वर्ष का बालक दिलीप अपने लम्बे केश कटा कर ईसाई हो गया । एक वर्ष बाद ही अंग्रेजो ने ज़बदस्ती दिलीपसिंह को विलायत भिजवाया,पर उनकी इच्छा जाने की न थी । वे सन् १८५७ में भारत लौटना चाहते थे; पर सरकार ने उन्हें लौटने न दिया ।
महाराज दिलीपसिंह का सिख धर्म मे वापस आना
इंग्लैंड से महाराज दिलीपसिंह ने अपने देश वासियों के नाम एक पत्र भेजा, जिससे व्याकुल आवाज़ थीं । उस पत्र में लिखा था – “ प्यारे पंजाबवासियों ! मैं फिर किस मुँह से पंजाब वापस आकर रहूँ ? इच्छा थी, कि मुँह न दिखाता; पर ‘वाहे गुरु’ सबके मालिक हैं। फिर अपनी जननी-जन्मभूमि पंजाब में एक साधारण दरिद्र की तरह आकर रहूँ । मैं आता हूँ-‘वाहे गुरु’ की जो इच्छा होगी, होगा। खालसा भाइयो ! मैं नालायक हूँ, मैंने बाप-दादों का पवित्र धर्मं त्याग कर मैं ईसाई बना, मुझे क्षमा करो ! जिस समय मुझे ईसाई बनाया गया, उस समय में बच्चा था, कुछ जानता भी नहीं था और न कुछ कर ही सकता था । मैंने अब फिर अपना सिख-धर्म ग्रहण कर लिया है । मैं अब बाबा नानक के अनुशासन और गुरु गोविन्द सिंह के आज्ञानुसार चलूँगा, प्यारे पंजाबी खालसा भाइयों को देखने के लिये मेरा दिल बेचैन हो रहा है । पर मुझ पापी को स्वदेश के दर्शन कदाचित् न हो सके; क्योंकि अंग्रेज मुझे शायद ही वापस आने देंगे । मैंने अंग्रेजी शासन पर पूरा विश्वास किया था और अब उसका पूर्ण फल पा लिया। “वाहे गुरु” का खालसा ! वाहे गुरु की फतह !
मैं, आपके रक्त-मांस से बना- दिलीपसिंह ।“
महाराज दिलीपसिंह ने ईसाई-धर्म त्याग कर पुनः सिख धर्म ग्रहण कर लिया था और भारत लौट रहे थे; पर अंग्रेजो की आज्ञा से वे अदन में रोके गये और गिरफ्तार करके फिर इंग्लैंड भेज दिये गये ।
कोहिनूर हीरे का इतिहास
पंजाब में ब्रिटिश शासन का दबदबा आारम्भ हो गया था । पंजाब के समस्त माल-खजान के साथ महाराज रणजीतसिंह का कोहिनूर हीरा भी अंग्रेजो के हाथ लगा, जो अब इंग्लैंड-नरेश के मुकुट में लगा है ।
महारानीं ज़िन्दा का क्या हुआ ?
जिनके लिये प्रभुभक्त खालसा सेनाने संग्राम किया, जिनके लिये हज़ारों लाखों का खून बहा, उनका परिणाम क्या हुआ ? अन्त में अनेक परिवर्तनो के बाद महारानीं ज़िन्दा बुढ़ापे में अन्धी होकर बेटे को हृदय से लगाने के लिये सात समुद्र पार इंग्लैंड में गयी ।
सन् १८६३ में पंजाब की राजमाता इंग्लैंड में एक साधारण स्त्री की तरह अपने प्राणप्रिय पुत्र दिलीप के घुटनों पर सिर रखकर मृत्यु को प्राप्त हुई ।