वीरांगना विद्युल्लता । Veerangana Vidyullata

वीरांगना विद्युल्लता । Veerangana Vidyullata

जननी-जन्मभूमि की स्वतन्त्रता तथा गौरव पताका को ऊँचा रखने के लिये मनुष्य को किस प्रकार स्वार्थ त्याग और आत्म-त्याग करना चाहिये तथा कहा तक कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिये, इसका सीधा उदाहरण प्रेम में बँधी हुई एक सुंदर बालिका के जीवन से पता चलता है । प्रेम भरा जीवन व्यतीत करने की उम्र में कर्तव्य के लिये त्याग करना कितना बड़ा आदर्श है, यह गाथा पुरी तरह उसे व्यक्त नहीं कर सकती ।

रूपवान युवक समर सिंह जिस समय यवन-सम्राट अलाउद्दीन की विराट सेना में सम्मिलित होकर जन्मभूमि चित्तौड़ को विध्वंस करने के लिये आया और अपनी प्रेमाकांक्षा को अपनीं प्रेमिका के सम्मुख प्रकट करता है, उस समय वह विद्यल्लता प्रेम-सुख तथा संसार-सुख के लालच में न पड, देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझ, उसका देश-द्रोही, विश्वास-घातक आदि शब्दों से तिरस्कार करती हुई अपनी रूप तथा सौन्दर्य को धिकारती हुई और देश के सर्वनाश का कारण समझती हुई, अपनी जीवनलीला समाप्त कर देती है । ऐसा आदर्श संसार में नहीं मिलेगा ।

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विद्युल्लता का जन्म चित्तौड के एक वीर सरदार के यहा हुआ था । वह अपने माता-पिता की बहुत दुलारी थीं । वह बड़ी सुन्दरी थी । उसके रूप सौन्दर्य की प्रशंसा चारों ओर फैल गयी थी । जो कोई उसे एक बार भी देख लेता, वह उसके सौन्दय की हज़ार बार प्रशंसा करता । वह केवल रूपवती ही नहीं, बल्कि गुणवती भी थी । तीर चलाने, तलवार भांजने और घोड़े पर चढ़ने में बडी निपुण थी । पिता ने इसे लिखना-पढ़ना भी सिखाया था । उस समय सामरिक शिक्षा स्त्री पुरुष सबको इसीलिये दी जाती थी, कि वह वक्त बड़ा नाजुक था । सबको अपने बाहु-बल पर निर्भर रहना पड़ता था । कोई नहीं जानता था, कि किस समय और कहाँ यवनों का आक्रमण हो जायेगा और यही कारण है, कि उस समय के इतिहास में एक-से-एक वीर, कर्तव्य-परायण तथा त्यागी आदर्शों हमे देखने मिलते हैं ।

उस समय राजपूताना और विशेषकर चित्तौड़ पर यवनो के बार-बार आक्रमण हो रहे थे । इसलिये राजपूतों में देश-भक्ति की लहर दौड़ रही थी । वे जन्मभूमि के लिये अपना प्राण त्याग करने को सदा तैयार रहते थे । देश तथा मान की रक्षा के लिये वे अपनी तलवारे सदा म्यान से बाहर खींचे ही रहा करते थे । भाट लोग भी वींर-रस की कविता सुना-सुनाकर उन लोगों को बराबर उत्साहित किया करते थे । सब-के-सब सच्चे देशभक्त हुआ करते थे । वे अपनी जान कुरबान करने को सदा तैयार रहने लगे । वही कारण है, कि इस भारत वर्ष में अब तक अनेक राज्य क़ायम हुए और फिर नष्ट हो गये मगर वींरों के अमर आदर्श अब तक क़ायम हैं ।

विद्युल्लता के घर के निकट ही चित्तौड़-राज्य के एक सैनिक का घर था । उस सैनिक के पुत्र का नाम था – समरसिंह । समरसिंह तथा विद्युल्लता बालपन से ही एक साथ खेला करते थे । दोनों का आपस में बड़ा प्रेम हो गया था । जब दोनों यौवनावस्था को प्राप्त हुए, तब प्रेम भी यौवन-रूप धारण किया । अब दोनों एक जान दो शरीर हो गये । दोनों आपस में ऐसे घुल-मिल गये जैसे दूध और पानी । विद्युल्लता के घर के पास ही एक उद्यान-वाटिका थी । वाटिका में मिल ये दोनो अपने को परम सुखी समझते थे । समर सिंह पूछता – विद्युल्लता ! प्रिये विद्युल्लतें ! यह प्रेम चिरस्थायी होगा ? क्या हम लोग सदा प्रेमपाश में बँधे रहेंगे ?” विद्युल्लता कहती, -“समर ! संसार में तुमसे अधिक प्रिय मेरा कोई नहीं । तुम्हारे प्रेम के सामने संसार में मेरे लिये कोई भी वस्तु मूल्यवान नहीं। मैं अवश्य तुम्हारी बनूँगी और तुम अवश्य मेरे बनोगे ।”

कुछ काल पश्चात् समरसिंह के पिता का देहान्त हो गया और वह रिक्त स्थान समरसिंह को मिला । समरसिंह इस लिये कुछ महीने में एक बार ही विद्युल्लता तथा अपनी पूज्य माता का दर्शन कर सन्तोष करता था । पर पीछे जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की, तब युद्ध की तैयारियों के कारण वे कई महीने तक घर न आ सके । इस वियोग से विद्युल्लता और समर सिंह को बड़ा ही दुख हुआ। विद्युल्लता दिन-रात उसी की चिन्ता में डूबी रहती । संसार की कोई वस्तु उसे अब अच्छी नहीं लगती । वह वाटिका, जो एक दिन आनन्द का क्रीड़ा-स्थल थी, अब दुखदाई हो रही थीं । वह दिन-रात दुखी होकर अपनी दुख को खुद ही शान्त कर लिया करती थी ।

इसी प्रकार विद्युल्लता का सत्रहबाँ बर्ष बीत गया । एक दिन शाम के समय जब वह वाटिका में टहल कर अपनी आन्तरिक दुख को शान्त करने का प्रयत्न कर रही थी, उसी समय किसी ने पीछे से पुकारा,-” विद्युल्लते !” विद्युल्लता ने चौंक कर पीछे देखा । समरसिंह पास ही खड़े थे । उसने उनको बुला कर पास बैठाया और समाचार पूछा । समरसिंह ने कहा,- “आज मैं एक बड़े काम के लिये तुम्हारे पास आया हूँ । आज तुम्हारे प्रेम की परीक्षा है।” विद्युल्लता इसे समझ न सकी; इसलिये उसने समरसिंह से स्पष्ट कर के कहने की प्रार्थना की ।

समरसिंहने कहा,-“प्रिये ! यह तो तुम्हें पता ही है, कि अलाउद्दीन ने चितौड़ पर चढ़ाई की है । उसकी सेना पर्वत पार कर, विजय प्राप्त करती हुई चित्तौड़ की ओर आ रही है । अब शीघ्र ही उसकी सेना से राजपूत-सेना की मुठभेड़ होगी । यह समाचार सुनकर विद्युल्लता घबरा गयी । वह डर से कॉप उठी । पर शीघ्र ही सम्हल कर बोली,- “प्रियतम ! तब तो आपको अवश्य ही युद्ध में जाना पड़ेगा; किन्तु आपके दर्शन फिर कब होंगे ?”

समरसिंह ने कहा-“प्रिये ! अलाउद्दीन की सेना बहुत बड़ी है । उसके समक्ष चित्तौड़ की सेना तो दाल में नमक के समान भी नहीं होगी । इसलिये यह निश्चित है, कि मैं इस युद्ध से फिर लौट कर नहीं आ सकूँगा । और यदि कहीं ऐसा हुआ, तो इस जीवन की मेरी सभी आशाएँ और इच्छाएँ मेरे साथ ही चली जायेगी । इसलिये मैं समझता हूँ, कि इस पवित्र प्रेम के दृढ़-बन्धन के लिये यह भयंकर संग्राम एक अच्छा अवसर है । ऐसा सुयोग फिर कभी न मिलेगा । इसीलिये में शिविर से चुपचाप चला आया हू । चलो, हम दोनों यहाँ से निकल चलें, तब हमारे प्रेम कोई भी बाधक न रहेगा । लो, यह वस्त्र तुम्हारे लिये लाया हूँ । इसे पहन लो और दोनों यहाँ से चुपके से निकल चले।”

समर के ये वचन विद्युल्लता के हृदय में वज्र-समान लगा । वह बहुत दुखी हुई; पर अपना मनोभाव छिपाते हुए गम्भीरतापूर्वक उसने कहा,-“प्रिय समरसिंह ! आप चितौड़ के वींर क्षत्रिय हैं । सेना के एक सेनापति हैं । आप के मुख से ऐसे वचन अच्छे नहीं लगते । आप का तो धर्म हसते-हसते मर मिटना है । यह बड़े खेद की बात है, कि आप इस प्रेम-जाल में फँसकर अपना कर्तव्य भूल रहे हैं । वतन के सामने प्रेम कोई चीज़ नहीं । प्राणेश ! आप निश्चय जानिये-मैं आपकी हूँ और आपकी ही होकर रहूँगी। पर इस समय मातभूमि पर भीषण संकट आ पड़ा है । इसलिये आप जाइये और मातृभूमि की सेवा कीजिये । यदि ईश्वर की कृपा होगी, तो फिर हम लोग एक दूसरे से अवश्य मिलेंगे, आप इसकी चिन्ता न करें ।”

समरसिंह ने कहा,-“प्राणप्रिये ! मैं जानता हूँ, कि मैं युद्ध से ज़िंदा लौट कर नहीं आ सकूँगा; और यदि आ भी गया, तो क्या समाज के लोग मेरे और तुम्हारे इस सम्बन्ध को पसन्द करेंगे ? कभी नही, इसीलिये मैं अपने मन की लालसा को मिटा लेना ही अच्छा समझता हूँ।”

यह सुनकर विद्युल्लता से अब नहीं रहा गया । वह क्रोधित होकर बोंली,-“समर सिंह ! यह तुम क्या कहते हो ? इससे क्या एक क्षत्रीय को कलंक नहीं लगेगा ? क्या लोग तुम्हारी निन्दा नहीं करेंगे ? मैं ऐसा नहीं कर सकती ? विद्युल्लता अपने प्राणेश को कायर, देश-द्रोही आदि नामों से कलंकित करना नहीं चाहती ! प्राणेश ! आप एक पतंगा की तरह मेरी रूपअग्नि में जल मरना चाहते हैं ? मैं ऐसा न होने दूँगी। आप जाइये और एक वीर योद्धा की तरह विजय पताका लेकर आइये और मुझसे अपनी दासी बनाइये । पर यदि दुर्भाग्यवश आप लौटकर रण-भूमि से नहीं आ सके, तो आप निश्चय जानिये, कि मैं भी आपकी अनुगामिनी होऊँगी । यदि हमारा मिलन यहाँ न होगा, तो स्वर्ग में अवश्य होगा । अतः आप शुद्ध हृदय से युद्ध क्षेत्र में जाइये । मातृ-भूमि की रक्षा के लिये तो, युद्ध कींजिये। यदि आप मुझसे प्रेम करते हैं, तो ! आप अवश्य ही युद्ध में जाइये ।”

कायर समर सिंह को विद्युल्लता के ये वचन बहुत ही बुरे लगे और वह उदास हो गया । उसके चारों ओर निराशा-ही-निराशा दिखने लगी । विद्युल्लता को प्राप्त करने की आशा पर सर्वेदा के लिये पानी फिर गया । समर सिंह कुछ दूर जाकर बैठ गया और सोचने लगा – । “हाय! विद्युल्लते ! तूने मुझे धोका दिया । मुझे कभी यह आशंका नहीं थी, कि तू मेरा इस प्रकार तिरस्कार करेगी । अब मैं किस मुँह से फिर शिविर में लौट कर जाऊँगा । सेनाध्यक्ष के दिये हुए दण्ड के अपमान को किस तरह सहन कर सकूँगा ? नहीं, अब मैं वहाँ भी लौटकर न जाऊँगा । मैं विद्युल्लता को किसी प्रकार त्याग नहीं सकता । जिस प्रकार भी हो, इसको वश में करना ही होगा । अच्छा हो, कि शत्रुसेना से जा मिलूँ । दिल्लीश्वर की विजय होने पर यह अवश्य मेरी हो जायेगी । यदि अप्रसन्न भी रहेगी, तो किसी प्रकार उसे मना लूँगा।”

समर सिंह यवनसेना में जा मिला । उसने यथा समय शत्रुओं को चित्तौड़ के सारे भेद और गुप्त मार्ग बता दिये । राजपूतों की वह शानदार कुवानी, राजपूत ललनाओं का वह आत्म-बलिदान सब कुछ मिट्टी में मिल गया । चित्तौड़ का सर्वनाश हो गया । थोड़़े दिन पहले जहाँ वींर राजपूत तथा सती ललनाएँ निवास करती थीं,वहाँ श्मशान हो गया । चित्तौड़ की दुर्दशा देख, विद्युल्लता बडी दुखी हुई। उसे रह-रह कर समरसिंह को भी मृत्यु की आशंका होने लगी । अतः उसकी व्याकुलता बढ़ने लगी । वह प्रत्येक क्षण अपने प्यारे की कुशलता के लिये ईश्वर से प्रार्थना करने लगी । बहुत दिनों के बाद आज समरसिंह को सकुशल आते देख, विद्युल्लता बहुत प्रसन्न हुई । वह ईश्वर को अनेकानेक धन्यवाद देने लगी ।खुशी से उसका मुख-कमल खिल उठा । परन्तु जब उसने समरसिंहके साथ मुगल-सेना को अंदर देखा, तब उसकी सारी खूशी काफर हो गयी ।

वह इस रहस्य को समझ गयी । क्रोध से उसका चेहरा लाल हो गया और शरीर काँपने लगा । उसने वेदना-भरे स्वर में कहा, – समरसिंह !” समर ने प्रेमभरे स्वर मे कहा,-प्राणप्रिये ! यह शब्द विद्युल्लता के हृदय में बाण सा लगा और वह क्रोधित होकर बोली,-“समरसिंह ! मैं अब तुम्हारे मुख से यह शब्द सुनना नहीं चाहती । तुम देश-द्रोही हो, धर्म-द्रोही हो; नीच, कायर और विश्वासघातक हो । अब मुझे प्रिये कहने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। रे नीच ! कुल कलंकी ! तूने सामान्य रूप-जाल में फँसकर जननी-जन्मभूमि को सत्यानाश में मिला दिया ? जिस जन्मभूमि के जल-वायु से तुम्हारा शरीर पल कर इतना बड़ा बना, उसी जन्मभूमि के साथ तुमने विश्वासघात किया, उसी मातृभूमि को तुमने अपनी सुख के लिये उनके हाथ बेच डाला ! आज तेरे ही कारण यह सुन्दर चित्तौड़ श्मशान में बदल गया है । तेरे ही कारण आज राजपूत-ललनाओं के चीख़ों से चित्तौड़ गूँज रहा है। तेरे ही कारण आज अनेक पुत्र पिता-हीन, अनेक स्त्रियाँ पति-हीन तथा अनेक परिवार अनाथ हो रहे हैं । चित्तौड़ की यह दशा देखकर तेरा यह पत्थर-हृदय क्यों नहीं फट जाता ? हाय ! तेरे ही कारण आज मेरा प्यारा चितौड़ अनाथ और श्रीहीन हो रहा है। तुझे देखने में भी पाप है ! तू अभी मेरे सामने से दूर हो जा ।”

समर ये वचन सुनकर कुछ देर पत्थर की तरह खड़ा रहा । फिर चिंता को छोड़ कर उसने कहा, ” विद्युल्लतें ! मैंने जो कुछ किया, तेरे ही लिये किया । तेरे लिये यदि मुझे संसार का भी नाश करना पड़े, तो मैं वह भी करने को तैयार हूँ। ख़ैर ! मुझसे अपराध हो गया है, मैं प्रायश्चित्त करने को तैयार हूँ।”

विद्युल्लता बिलखती हुई बोली,- “हाय ! क्या इसी रूप के लिये तूने यह घोर अधर्म किया है ? क्या मेरी यही सुन्दरता जन्म-भूमि के नाश का कारण हुई है ? धिकार है,मेरे इस सौन्दर्य को ! माता जन्म-भूमि । मेरा अपराध क्षमा करना । मुझे पहले मालूम नहीं था, कि मैं ही तुम्हारे नाश का कारण होऊँगी । मैं तुम्हीं से उत्पन्न हुई हूँ, आज फिर तुम्हीं में मिल जाती हूँ, मुझे अपनी गोद में स्थान दो।”

इस प्रकार कहकर विद्युल्लता ने अपने हृदय में कटार मार ली और वह सर्वदा के लिये अपनी प्यारी मातृभूमि की गोद में सो गयी ।

यद्यपि इस भारतवर्ष में बड़े-बड़े वीर तथा विरांगनाए जन्म लेकर अपनी जन्मभूमि के लिये वीरगति को प्राप्त हुई हैं, तथा इस प्रकार का उदाहरण बहुत कम मिलेगा, जो देश-भक्ति के कारण अपने प्रेमी को इस प्रकार दुतकारती हो और उस देश-द्रोही के साथ वैवाहिक-सम्बन्ध करना अपने गौरव के विरुद्ध समझती हो ।

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