नानासाहेब पेशवे 1857 । नानासाहेब पेशवा । Nana Saheb Peshwa

नानासाहेब पेशवे 1857 । नानासाहेब पेशवा । Nana Saheb Peshwa

सन् १८५७ में महाराष्ट्र के अन्तिम पेशवा बाजीराव के उत्तराधिकारी धुन्धूपन्थ नानासाहब अंग्रेजो से निराश होकर कानपुर के निकट बिठूर में रहते थे । बाजीराव अपने पूना के राजसिंहासन से हटाये गये और फिर उन्हें बिठूर में रहने का स्थान अंग्रेजो ने दिया । उनका गोद लिया हुआ पुत्र नानासाहब अपनीं पैतृक पेन्शन से वंचित किया गया था । अन्त में इस दत्तक नानासाहब ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के डायरेक्टरों के न्याय में विश्वास करके अपने एक मुसलमान दूत अज़ीमुल्लाह ख़ाँ को विलायत भेजा । अज़ीमुल्लाह ख़ाँ एक सुन्दर और शौकीन मुसलमान था, जो अंग्रेजी भाषा खुब अच्छी तरह जानता था । इसके अतिरिक्त फ्रेंच और जर्मनी भाषाओ में भी उसका अच्छा अभ्यास था ।

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अज़ीमुल्लाह ख़ाँ


यही मुसलमान अज़ीमुल्लाह ख़ाँ नाना साहब का मंत्री और मुख्य सलाहकार था । उसे जब लन्दन के डायरेक्टरो के सामने नानासाहब का पक्ष समर्थन करने में सफलता न मिला, तब वह अपने शारीरिक सौन्दर्य से युरोप के विलास सागर में आनन्द के गोते लगाने लगा । फिर वह तुर्की की राजधानीं में पहुँचा । उस समय क्रीमिया युद्ध से सारा युरोप दहल रहा था ।

नानासाहब का मंत्री अज़ीमुल्लाह ख़ाँ उस रण भूमि के निकट गया । उसने वहा रूसी तोपो की मार से अंग्रे़जी सेना को अस्त-व्यस्त होते देखा और मन-ही-मन सन्तुष्ट हुआ । उसने सोचा कि भारत लौटने पर वह अंग्रेजो को परास्त करने का काम करेगा । वह भारत लौटा और नानासाहब से मिलकर उसने अंग्रेजो को कमजोर तथा अपने युरोपींय अनुभव की बातें कहीं ।

पेन्शन बन्द होने के कारण नानासाहब बहुत ही चिन्तित थे । उनका दूत अज़ीमुल्लाह ख़ाँ भी जब निष्फल लौटा, तब उन्हें और भी निराशा हुई । वे अंग्रेजो से असन्तुष्ट हुए । लॉर्ड डलहौसी के काम का फल अब उनके सामने आया और वे हाथ मल-मलकर पछताने लगे ।

नाना साहब के राजमहल में उनके और भी भाई बन्धु थे । उनके भाई बालाराव और बाबा भट्ट भी वही रहते थे । अज़ीमुल्लाह ख़ाँ की तरह तात्या टोपे भी नाना साहब का एक मुख्य सलाहकार था । कानपुर के गदर के समय ये ही दोनो नाना साहब के मन्त्री थे ।

कानपुर का गदर


गदर की आशंका से कानपुर के अंग्रेज भयभीत और चिन्तित हुए । अपनी स्त्रियों और बच्चों की रक्षा के साथ ही उन्हें अंग्रेजी खजानो की रक्षा की भी चिन्ता थी । खज़ाने में उस समय दस-बारह लाख रुपये थे । मैजिस्ट्रेट और कलेक्टर हिलसडन ने नानासाहब की मदद से खजाने की रक्षा का उपाय सोचा, क्योकी उस समय अंग्रेजो से उनकी खूब मित्रता थी । अंग्रेज बराबर नानासाहब के महल में आते और खूब खाते-पीते थे । इसलिये कलेक्टर ने सोचा, कि नानासाहब की सहायता से वे अपने खजाने और स्त्रियों तथा बच्चो की रक्षा कर सकेंगे । पर जब वे लखनऊ से एकाएक कानपुर चले आये, तब सेनापति सर जान लारेन्स का उन पर सन्देह हुआ और उसने कानपुर के प्रधान अंग्रेज सेनापति को सावधान किया । कानपुर के कलेक्टर नाना का विश्वास करते थे, क्योकी बाजीराव के स्वर्गवासी होने के बाद नाना साहब ने किसी तरह भी अविश्वास का परिचय नहीं दिया था और नानासाहब भी अंग्रेजो की मदद करने के लिये तैयार थे । २२ मई १८५७ को नानासाहब ने सरकारी खजाने की रक्षा का भार ले लिया ।

पर दूसरे ही दिन लखनऊ से सरजान लारेन्स ने गोरी सेना का एक सहायक दस्ता कानपुर भेजा । सेनापति की आज्ञा से अंग्रेज मेमों और उनके बच्चों की रक्षा के लिये एक सुरक्षित स्थान दीवार से घेरा गया । इस समय छावनीं में बड़ा गड़बड मचा । सेना में २ नम्बर १८५७ का रिसाला सबसे पहले विद्रोही बनने लगा और हिन्दू-मुसलमान सभी सिपाही धर्म बिगड़ने की आशंका से उत्तेजित हो रहे थे । अंग्रेजो के प्रति उन का सन्देह बढ़ने लगा और वे सोचने लगे, कि चर्बी मिले कारतूस और हड्डी मिला आटा उनका धर्म भ्रष्ट करने के लिये लाया गया है । वे सोचने लगे, कि अंग्रेजो के राज्य मे उन की धर्मनाश हुआ, जाति नाश हुई और अन्त मे प्राण भी लिये जायेंगे । सिपाही लोग आपस में बड़ी गहरी सलाह करने लगे ।

हर तरफ षड़यन्त्रो की भरमार थी । कुछ षड़यन्त्रकारी नवाब नानासाहब से मिले । यहाँ खजाना, जेलखाना और तोपखाना भी था । यह सब देखकर विद्रोही प्रसन्न हुए । कहा जाता है, कि विद्रोही सेना का सूबेदार टाकासिंह नानासाहब से मिला । उसने नाना से कहा-“आप अंग्रेजो का खजाना और तोपखाना बचाने के लिये यहा आये हैं । हम हिन्दू और मुसलमान अपने धर्म की रक्षा करने के लिये एक हो गये है और बंगाल के सिपाही भी इसी उद्देश्य से खड़े हो गये है । अब आप क्या करते है ?” नाना साहब ने कहा, “मैं भी सैनिको के साथ हूँ।”

चौथी जून १८५७ तक गुप्त परामर्श होते रहे, और इसमें नाना साहब भी शामिल थे । इस बीच में कई घटनाएँ ऐसी हुई, जिनके कारण नाना साहब को विवश होकर विद्रोहियो का साथ देना पड़ा । विद्रोही सिपाही खजाने और तोपखाने पर अधिकार करने में सफल हो चुके थे ।

उस समय मिट्टी की दीवार से घिरे सुरक्षित स्थान में अंग्रेज, स्त्रियो और बच्चों सहित पड़े थे । सेनापति ह्रीलर की आज्ञा से समस्त समर्थ अंग्रेज आत्मरक्षा के लिये खड़े थे । विद्रोही सिपाहियो का शोर हर तरफ सुनाई पड़ने लगा । उन्हें जहा भी अंग्रेज मिलते, मारे जाते । जोश यहा तक बढ़ा था, कि अंग्रेजो का खुन करना लोग पुण्य समझते थे । दीवार में घिरे हुए अंग्रेज और उनकी बहुत सी स्त्रिया, जिनमें से कुछ गर्भवती भी थी,बड़ा विपत्ति में पडी । विद्रोहियो के गोली से उनके मोर्चे भंग होने लगे और भीतर के कितने ही अँगरेज भी मरने लगे । सेनापति हीलर का पंजाब, लखनऊ और इलाहाबाद से कुछ भी सहायता न मिल सकी । दाने-पानीं बिना अंग्रेज भींतर-ही-भीतर मरने लगे । जब अँग्रेज़ कष्ट भोगते-भोंगते तंग आ गये, तब २६ जून को किले के अन्दर के सब अंग्रेजों ने अपने को नाना साहब के सुपुर्द कर दिया ।

नाना साहब की ओर से प्रतिज्ञा की गयी,कि समस्त अंग्रेजों को कश्तियों पर बैठाकर इलाहाबाद भेज दिया जायेगा । उसी रात को चालीस नौकाओं का प्रबन्ध किया गया । २७ ता० १८५७ को अंग्रेजी झंडा किले से उतारा गया, और उसकी जगह दिल्ली के सम्राट बहादुर शाह का झंडा फहराने लगा । समस्त अंग्रेजों को हाथियों ओर पालकियो पर बैठाकर किले से डेढ़ मील दूर सत्ती-चौरा घाट पर पहुंचा दिया गया ।

सत्ती चौरा घाट की घटना


इस बीच में इलाहाबाद और उसके आस-पास के असंख्य मनुष्य, जिनके घर-द्वार सम्बन्धियों और बालबच्चों को अंग्रेज़ जनरल नील के सैनिको ने जलाकर खाक कर दिया था, कानपुर में आ-आकर एकत्र होने लगे । इन लोगों ने कानपुरवालों को और भी भड़काया । २७ जून १८५७ को सबेरे १० बजे अंग्रे़जो की नौकाए सत्ती-चौरा घाट से रवाना होने वाली थीं । नाना साहब उस समय अपने महल में थे । कहा जाता है,कि क्रोध से उन्मत्त सिपाहियों में से किसी ने कर्नल इवटस पर हमला किया । तुरन्त मारकाट शुरू हो गयी । उस समय नाना साहब ने आज्ञा दि, कि “अंग्रेज पुरुषो को मार डालो; पर उनकी स्त्री-बच्चों को नहीं।” नाना की आज्ञा मिलते ही १२५ मेमें और उनके बच्चे कैद करके एक कोठरी में पहुँचा दिये गये । अंग्रेज पुरुषों को एक कतार में सत्ती चौरा घाट पर खड़ा किया गया, जिनकी संख्या लगभग १०० थी । २७ जून १८५७ को उनमें से केवल चार बच कर किसी तरह भाग निकले, बाकी सब मार डाले गये ।

१५ जुलाई १८५७ का बोबोगड(कानपुर) में १२५ क़ैदी मेमें और उनके बच्चे कत्ल कर दिये गये, जिनकी लाशे एक कुएँ में डाल दी गयी, जो अंग्रेज और मेमें तथा उनके बच्चे नाव पर बैठ कर गंगा में जा रहे थे, उन पर विद्रोहियो ने किनारे पर से गोलियाँ चलायीं और उन सबका संहार हुआ ।

अन्त में १७ जुलाई १८५७ को जनरल हेविलोक की सेना ने कानपुर में पहुँचकर हिंदुस्तानियों का कत्लेआम किया । नानासाहब ने उनसे लड़ने को चेष्टा की; पर अपना पक्ष निर्बल होते देख, वे नौका पर सवार हो, भाग निकले । फिर किसी को पता नहीं, कि नानासाहब कहाँ लुप्त हो गये !

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