षट्कर्म क्या है । षट्कर्म साधना । शिवा-शिव संवाद | शिव पार्वती संवाद । what is Shatkarma
हिमालय की उच्च शिखा पर बैठे कपालमालाधारी देवाधिपति भगवान् शंकर की समाधि टूटने पर जगत जननी माँ जगदम्बा भगवती पार्वती विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़ भगवान शिव से बोलीं – “हे देव, आज कल समग्र जगत् के प्राणी नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित, दरिद्रता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, अतः आप संसार के सकल दुःख निवारण करने वाला कोई ऐसा उपाय बतलाने की कृपा करें जिससे रोगी, दरिद्री एवं शत्रु द्वारा सताये हुए प्राणी क्लेशमुक्त हो सकें ।“
तब भगवान शिव कहने लगे कि – “हे पार्वती! आज मैं तुम्हारे सम्मुख संसार के समस्त क्लेशों से छुटकारा दिलाने वाले उन अमोघ मंत्र का वर्णन करता हूँ जिनके विधानपूर्वक सिद्ध कर लेने पर मनुष्य रोग, शोक, दरिद्रता तथा शत्रुभय से सर्वथा मुक्त हो सकता है और जगत् की उपलब्ध समस्त सिद्धियाँ उसे अनायास ही प्राप्त हो सकती हैं । हे गिरिजा, अब मैं तुम्हारे सम्मुख मंत्र सिद्धि पाने का हेतु आवश्यक षट्कर्म का वर्णन करता हूँ ।“
षट्कर्मों के नाम । षट्कर्म के प्रकार
शान्ति-वश्य-स्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटने तथा ।
मारणान्तानि शंसन्ति षट्कर्माणि मनीषिण: ।।
(१) शान्ति कर्म, (२) वशीकरण, (३) स्तम्भन, (४) विद्वेषण, (५) उच्चाटन एवं (६) मारण ।
इन छः प्रकार के प्रयोगों को षट्कर्म कहते हैं और इनके द्वारा नौ प्रकार के प्रयोग किये जाते हैं ।
षट्कर्म के नौ प्रकार के प्रयोग । षट्कर्म के प्रयोग
मारण, मोहन, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, रसायन एवं यक्षिणी साधन । उपरोक्त नौ प्रकार के प्रयोगों की व्याख्या एवं लक्षण पण्डित जन इस प्रकार करते हैं ।
षट्कर्म व्याख्या
शांति कर्म । Shanti Karm
जिस कर्म के द्वारा रोगों और ग्रहों के अनिष्टकारी प्रभावों को दूर किया जाता है, उसे शांति कर्म कहते हैं और इसकी अधिष्ठात्री देवी रति हैं ।
वशीकरण | Vashikaran
जिस क्रिया के द्वारा स्त्री, पुरुष आदि जीवधारियों को वश में करके कर्ता की इच्छानुसार कार्य लिया जाता है उसको वशीकरण कहते हैं । वशीकरण की अधिछात्री देवी सरस्वती हैं ।
स्तम्भन | Stambhan
जिस क्रिया के द्वारा समस्त जीवधारियों की गति का अवरोध किया जाता है, उसे स्तम्भन कहते हैं, इसकी अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं ।
विद्वेषण
जिस क्रिया के द्वारा प्रियजनों की प्रीति, परस्पर की मित्रता एवं स्नेह नष्ट किया जाता है, उसे विद्वेषण कहते हैं । इसकी अधिष्ठात्री देवी ज्येष्ठा हैं ।
उच्चाटन | Uchatan
जिस कर्म के करने से जीवधारियों की इच्छाशक्ति को नष्ट करके मन में अशान्ति, उच्चाट उत्पन्न की जाती हैं और मनुष्य अपने प्रियजनों को छोड़कर खिन्नता पूर्वक अन्यत्र चला जाता है, उसे उच्चाटन कहते हैं । इसकी अधिष्ठात्री देवी दुर्गा हैं ।
मारण | Maaran
जिस क्रिया के करने से जीवधारियों का प्राणान्त कर्ता की इच्छानुसार असामयिक होता है, उसे मारण कहते हैं । इसकी अधिष्ठात्री देवी भद्रकाली हैं और यह प्रयोग अत्यन्त जघन्य होने के कारण वर्जित है ।
षट्कर्मों के वर्ण-भेद
षट्कर्मों के अन्तर्गत जिस कर्म का प्रयोग करना हो, उसके अनुसार ही वर्ण का ध्यान करना चाहिए । साधकों की सुविधा के लिए वर्णभेद लिख रहे हैं, इसे स्मरण रखना चाहिए ।
शान्ति कर्म में श्वेत रंग, वशीकरण में लालरंग (गुलाबी), स्तंभन में पीला रंग, विद्वेषण में सुर्ख (गहरे लाल रंग), उच्चाटन में धूम्र रंग (धुये के जैसा) और मारण में काले रंग का प्रयोग करना चाहिये ।
आसन तथा बैठने का योगासन
शान्ति कर्म के प्रयोग में साधक को गजचर्म पर सुखासन लगाकर बैठना चाहिये ।
वशीकरण के प्रयोग में मेषचर्म (भेड़ की खाल) पर भद्रासन लगाकर बैठना चाहिये ।
स्तम्भन में बाघम्बर (शेर की खाल) को बिछाकर पदमासन से बैठना चाहिये।
विद्वेषण में अश्वचर्म (चोड़े की खाल) पर कुक्कुटासन लगाकर बैठना चाहिये ।
उच्चाटन प्रयोग में ऊँट की खाल का आसन बिछाकर अर्ध स्वस्तिकासन लगाकर बैठना चाहिये
मारण प्रयोग में महिषचर्म (भैंसे की खाल) का आसन अथवा भेड़ के ऊन से बने हुय आसन पर विकटासन लगाकर बैठना चाहिये ।
मंत्र जाप के लिए मालायें
वशीकरण और पुष्टिकर्म के मंत्रों को मोती, मूँगा अथवा हीरा की माला से जपना चाहिए ।
आकर्षण मन्त्रों को गजमुक्ता या हाथीदाँत की माला से जपना चाहिये ।
विद्वेषण मंत्रों को अश्वदन्त (घोड़े के दाँत) की माला बनाकर जपना चाहिये ।
उच्चाटन मंत्रों को बहेड़े की माला अथवा घोड़े के दाँत की माला से जपना चाहिए ।
मारण मंत्रों को स्वतः मरे हुए मनुष्य या गदहे के दाँतों की माला से जपना चाहिए ।
विशेष – धर्म कार्य तथा अर्थ प्राप्ति हेतु पद्माक्ष की माला से जाप करना सर्वोत्तम होता है और साधक के समस्त मनोरथ पूर्ण करने वाला रुद्राक्ष की माला अतिश्रेष्ठ हैं ।
माला में मनकों (गुरियों) की संख्या
सप्तविशंति-संख्याकैः कृता मुक्तिं प्रयच्छति ।
अक्षैस्तु पंचदशभिरभिचारफलप्रदा ।
अक्षमाला विनिर्दिष्टा तत्रादौ तत्त्वदर्शिभिः ।
अष्टोत्तरशतेनैव सर्वकर्मसु पूजिता ।।
अर्थ – शान्ति और पुष्टि कर्म में २७ दानों की, वशीकरण में १५ दानों की, मोहन में १० दानों की, उच्चाटन में २९ दानों की, विद्वेषण में ३१ दानों की माला से जाप करना चाहिये ।
ऐसा मंत्रशास्त्रियों तथा शास्त्रों का निर्देश है ।
षट्कर्म में माला गूँथने के नियम
शान्ति और पुष्टि कर्म में कमल के सूत्र की डोरी से, आकर्षण तथा उच्चाटन में घोड़े की पूँछ के बालों से तथा मारण प्रयोग में मृतक मनुष्य के नसों से गूँथी हुई माला उत्तम होती है । इसके अतिरिक्त समस्त प्रयोगों में रूई के डोरे से माला का प्रयोग करना चाहिये ।
माला जपने में उँगलियों का नियम
शान्ति कर्म, वशीकरण तथा स्तम्भन प्रयोग में तर्जनी व अँगूठे के द्वारा, आकर्षण में अनामिका और अँगूठे के द्वारा, विद्वेषण और उच्चाटन प्रयोगों में तर्जनी व अंगूठे द्वारा तथा मारण प्रयोग में कनिष्ठिका और अँगूठे द्वारा माला फेरना उत्तम होता है ।
कलश रखने का विधि
शान्ति कर्म में नवरत्न युक्त स्वर्ण कलश, कदाचित् स्वर्ण कलश न हो सके तो चाँदी अथवा ताम्र कलश स्थापित करें । उच्चाटन तथा वशीकरण में मिट्टी का कलश, मोहन में रूपे का कलश तथा मारण में लौह कलश का प्रयोग करना उत्तम और शुभ होता है । यदि समय पर विधान के अनुसार कलश न मिला तो ताम्र कलश समस्त प्रयोगों में स्थापित किया जा सकता है ।
माला जाप के नियम तथा भेद
जप तीन प्रकार के होते हैं – प्रथम वाचिक, जिसे जाप करते समय दूसरा व्यक्ति सुन ले उसे वाचिक कहते है ।
जिस जाप में केवल हिलते हुए ओष्ठ दिखलाई पड़ें, किन्तु आवाज न सुनाई देवे, उसे उपांशु कहते हैं ।
जिस जाप के करने में जिह्वा (जीभ), ओठ आदि कार्य करते न दिखाई पड़े और साधक मन ही में जाप करता रहे उसे मानसिक कहते हैं ।
मानसिक जप करने वालों को चाहिए कि अक्षरों का विशेष ध्यान रखे । मारण आदि प्रयोगों में वाचिक, शान्ति तथा पुष्टिकर्म में उपांशु जप तथा मोक्ष साधन में मानसिक जाप परम कल्याणकारी और शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला है । इस प्रकार जाप के करने से साधक के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।
षट्कर्म में ऋतु विचार
एक दिन तथा रात्रि ६० घड़ी का होता है, जिसमें १०-१० घड़ी में प्रत्येक ऋतु को विभक्त किया जाता है यानी प्रत्येक ऋतु का समय चार घण्टे का होता है और इसका क्रम निम्न प्रकार होता है ।
प्रथम सूर्योदय से दस घड़ी या चार घण्टे तक बसन्त ऋतु, द्वितीय दस घड़ी में ग्रीष्म, तृतीय दस घड़ी में वर्षा, चतुर्थ दस घड़ी में शरद, पंचम दस घड़ी में हेमन्त तथा छठ दस घड़ी में शिशिर ऋतू मानी जाती है ।
कोई-कोई आचार्य ऐसा भी कहते है कि प्रात:काल बसन्त ऋतु, मध्याह्न में ग्रीष्म, दोपहर ढलने पर वर्षा, संध्या समय शिशिर, आधी रात को शरद और रात्रि के अन्तिम प्रहर में हेमन्त ऋतु होता है ।
इस प्रकार हेमन्त ऋतु में शान्ति कर्म, बसन्त ऋतु में वरणीकरण, शिशिर में स्तम्भन, ग्रीष्म में विद्वेषण, वर्षा में उच्चाटन, शरद ऋतु में मारण प्रयोग करना चाहिए ।
षट्कर्म में समय विचार
दिवस के प्रथम प्रहर में वशीकरण, विद्वेषण और उच्चाटन, दोपहर में शान्ति कर्म, तीसरे प्रहर में स्तम्भन और मारण का प्रयोग संध्या काल में करना चाहिए ।
षट्कर्म दिशा निर्णय
शान्ति कर्म ईशान दिशा में, वशीकरण उत्तर में, स्तम्भन पूर्व में, विद्वेषण नैऋत्य में, उच्चाटन वायव्य में तथा मारण प्रयोग आग्नेय कोण में करना चाहिए ।
मंत्रजाप में दिशा विचार
शान्ति कर्म, आयुरक्षा और पुष्टि कर्म में उत्तर की ओर मुख करके, वशीकरण में पूर्व की ओर मुख करके, धन प्राप्ति हेतु पश्चिम की ओर मुख करके तथा मारण आदि अभिचार में दक्षिण की ओर मुख करके मंत्र जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है ।
षट्कर्म में दिन विचार
शान्ति प्रयोग गुरुवार से, वशीकरण सोमवार से, स्तम्भन गुरुवार से, विद्वेषण कर्म शनिवार से, उच्चाटन मंगलवार से, मारण प्रयोग शनिवार से प्रारम्भ करने में सिद्धि प्राप्त होती है ।
षट्कर्म में तिथि विचार
शान्ति कर्म किसी भी तिथि को शुभ नक्षत्र में करना चाहिये । इसमें तिथि का विचार गौण है । आकर्षण प्रयोग के लिये नौमी, दशमी, एकादशी को, विद्वेषण प्रयोग शनिवार एवं रविवार को पड़ने वाली पूर्णिमा को, उच्चाटन प्रयोग षष्ठी (छठी), अष्टमी, अमावस्या को और प्रदोष काल इस कार्य के लिये विशेष शुभ होता है । स्तम्भन प्रयोग पंचमी, दशमी अथवा पूर्णिमा को तथा मारण प्रयोग अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या को करने से शीघ्र फल प्राप्त होता है ।
षट्कर्म में दिशाशूल विचार
मंगल बुद्ध उत्तर दिशि काला, सोम शनिश्चर पुरब न चाला ।
रबी शुक्र जो पश्चिम जाय, होय हानि पथ सुख नहिं पाय ।
गुरु को दक्षिण करे पयाना, ‘निर्भय’ ताको होय न आना ।।
योगिनी विचार
परिवा नौमी पूरब वास, तीज एकादशि अग्नि की आस ।
पंच त्रयोदशि दक्षिण बसै, चौथ द्वादशी नैऋत लसे ।।
छठी चतुर्दशि पश्चिम रहै, सप्तम पन्द्रसि वायव्य गहै ।
द्वितीया दशमी उत्तर धाय, ‘निर्भय’ आठ ईशान निराय ।
योगिनी चक्र
परिवा को योगिनी का वास पूर्व में, द्वितीया को उत्तर में, तृतीया को अग्निकोण में, चतुर्थी को नैऋत्य कोण में, पंचमी को दक्षिण दिशा में, छठी को पश्चिम में, सप्तमी को वायव्य कोण में, अष्टमी को ईशान कोण में योगिनी का वास रहता है । प्रयोग से पूर्व साधक को चाहिए कि किसी ज्योतिषी से ग्रह नक्षत्र, दिशाशूल तथा योगिनी का विचार करवा ले क्योंकि योगिनी सन्मुख-दाहिने हाथ की ओर होने से अत्यन्त अनिष्टकारी होती है ।
षट्कर्म में हवन-सामग्री
विशेष-समस्त शुभ कार्यों में घृत, मेवा, खीर, धूप से तथा अशुभ कार्यों में घृत, तिल, मेवा, चावल, देवदारु आदि से हवन करने से सिद्धि प्राप्त होती है । साधकों की विशेष सुविधा के लिए हम षट्चक्र दे रहे हैं, इससे आपको समझने में विशेष सुविधा होगी ।
षट्कर्म में देवी, दिशा, ऋतु आदि के ज्ञान का चक्र
ज्ञातव्य – उपरोक्त चक्र में वर्णित विधियों के विपरीत कार्य करने से सिद्धि प्राप्त होना असंभव है अतः प्रत्येक कार्य वर्णित विधान के अनुसार ही करे । विशेष सुविधा के लिये योग्य तांत्रिक का परामर्श लाभदायक रहेगा ।
सिद्धयोग तिथि-चक्र
पड़वा छठि, एकादशी, पड़े जो शुक्रवार ।
नन्दा तिथि शुभयोग है, ज्योतिष के अनुसार ।
द्वीज, द्वादशी, सप्तमी, बुध भद्रा पड़ जाय ।
नवमी, चौथ, चतुर्दशी, शनि रिक्ता कहलाय ।
पड़े पंचमी पूर्णिमा, दशमी गुरु को आन ।
योग पूर्णा जानिये ‘निर्भय’ करें बखान ।।
मार्जन मन्त्र
ॐ क्षां हृदयाय नमः, ॐ क्षीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ हरीं शिवाय वौषट्, ॐ हूं कवचाय हुम्।
ॐ क्रौं नेत्र भाया वो फट्, ॐ क्रों अस्त्राय फट् ।
ॐ क्षां क्षीं ह्रीं हृीं क्रों क्रें फट् स्वाहा ।
इस मंत्र को पढ़कर बायें हाथ की हथेली में जल लेरप बीज अक्षर से प्रत्येक अंग का मंत्रानुसार स्पर्श कर लेना चाहिए ।
मंत्र तंत्र यंत्र उत्कीलन विनियोगः- ॐ अस्य श्री सर्व यंत्र मंत्र तंत्राणाम् उत्कीलन मंत्र स्तोत्रस्य मूल प्रकृति ऋषि: जगती छन्द निरंजन देवता उत्कीलनं क्लीं बीजं हीं शक्तिः हौ कीलकं सप्तकोटि यंत्र मंत्र तंत्राणाम् संजीवन सिद्धम् जपे विनियोगः।
न्यास
ॐ मूल प्रकृति ऋषये नमः शिरसि, ॐ जगती छन्दसे नमः मुखे, ॐ निरंजनदेवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तिये नमः पादयोः, ह्रीं कीलकाय नमः सर्वागे, ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः, ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, हू मध्यमाभ्यां नमः, हैं अनामिकाभ्यां नमः, ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः, हं: करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ध्यानम्
ब्रह्मस्वरूपं मलच निरजनं तं ज्योतिः प्रकाशम । न तं सततं महांतं कारुण्यरूपमपि बोधकरं प्रसन्नं दिव्यं स्मराणाम् सततं मनुजीवनायं एवं ध्यात्वा स्मरेन्नित्यं तस्य सिद्धिस्तु सर्वदा । वाञ्छित फलमाप्रोति मंत्रसंजीवनं ध्रुवम् ।
शिवार्चन
पार्वती फणि बालेन्दु भस्म मंदाकिनी तथा
पवर्गरचितां मूर्तिः अपवर्गफलप्रदाः ।
आवश्यक निर्देश
साधक को मंत्र-तंत्रादि का प्रयोग करने से पूर्व किसी ज्ञानी गुरु के चरणों में बैठकर उनसे समस्त क्रियाओं के बारे में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए । उसके पश्चात् वहाँ भक्ति एवं प्रबल आत्मविश्वास के साथ गुरु की आज्ञा प्राप्त कर साधन में प्रवृत्त होना चाहिये । इसके विपरीत यदि साधक के मन में अविश्वास होगा तो उसकी साधना का फल हानिप्रद भी हो सकता है क्योंकि बिना विश्वास के दुनिया का कार्य नहीं चल सकता । अतः स्थिर चित्त होकर ही कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए और जिस दिन से कोई कर्म करना हो प्रातःकाल शय्या त्याग नित्यकर्म से निवृत्त होकर एकान्त स्थान में जो-जो मंत्र सिद्ध करना हो उसे भोजपत्र पर केशर से लिखकर मुख में रख लेना चाहिये तथा जब तक मंत्र क्रिया चले, केवल उस समय चावल, मूंग की दाल या ऋतु फल का आहार कर रात्रि में पृथ्वी पर शयन करना चाहिये । षट्कर्म के अनुसार किसी प्रयोग में यदि कोई वस्तु रात्रि में लाना हो तो नग्न हो स्वयं अपने हाथों से वह वस्तु लावे तथा आते-जाते समय पीछे की ओर न देखे । इसका प्रमुख कारण यह है कि नग्न होकर जाने से मार्ग में भूत-प्रेतादि कों का भय नहीं रहता और पीछे देखने से जो आपके पीछे सिद्धि प्रदानकर्ता आते हैं वे वापस चले जाते हैं । सुकुमार व्यक्तियों और स्त्रियों के लिए तंत्राचार्यों ने यह निर्देश दिया है, जहाँ दो पहर रात्रि में जाना हो उसके स्थान में दो पहर दिन में जाय तथा जहाँ नग्न होकर कार्य करना लिखा हो वहाँ बिना सिलाया हुआ एक वस्त्र धारण कर कार्य करें और मनुष्य की खोपड़ी के स्थान पर आधे नारियल से और जहाँ चौराहे में बैठकर प्रयोग निर्देश हो वहाँ घर पर गोबर का चौकोर चौका लगा कर पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण की ओर रेखा खींचकर कार्य करे और यदि श्मशान जाने का निर्देश हो तो केवल श्मशान भस्म लाकर, घर पर जप स्थान में बिछाकर एकाग्र-चित्त होकर साधना करें । आपका मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा ।