राणा हमीर सिंह का इतिहास । Rana Hamir Singh Sisodia

राणा हमीर सिंह का इतिहास । Rana Hamir Singh Sisodia

अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमणों से चित्तौड़ ग्रसित रहता था । सन् १३०३ में जब अल्लाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया, उस समय सहस्रों वींर राजपूत युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए । उसी समय अरि सिंह नामक एक महापराक्रमशाली, शौर्य-सम्पन्न राणा ने स्वाधीनता के लिये आत्मत्याग का प्रदर्शन किया था । यही वींर अरि सिंह राणा हमीर सिंह के पिता थे ।

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राणा हमीर सिंह का जन्म


अरि सिंह ने चन्दनवंशीय एक सामान्य राजपूत कन्या से विवाह किया था । उन्होंने शिकार के लिये जाने पर, उसके रूप और वीरत्व पर मोहित हो, उनके विवाह की इच्छा प्रकट की और विवाह किया था । इस रमणी के किस गुण पर वींर-श्रेष्ठ अरि सिंह मोहित हुए थे ?

इस रमणी ने एक छोटे से कॉट से एक अत्यन्त बलशाली सुअर का वध किया था, तथा एक ढेले से अरि सिंह के घोड़े की टाँग तोड़ दी थी । अरि सिंह के एक मित्र एक घोड़ा लेकर उस रमणी के पास पहुँचे, तथा उसने बड़े विचित्र कौशल से उन्हें घोड़े से गिरा दिया । अरि सिंह ने बड़े आश्चर्य्य से उस रमणी को धन्यवाद दिया । इसी सुम्पती से सन् १२९१ ई० में राणा हमीर पैदा हुए !

पद्मावती (महारानी पद्मिनी) को पाने के लिये अलाउद्दीन के चित्तौड़ पर आक्रमण करने पर राजपूतगण युद्ध कर वीरगति को प्राप्त हुए, केवल वंश-रक्षा के लिये पिण्डदानार्थ अजय सिंह ने मेवाड के पश्चिम मे स्थित कैलबारा नामक स्थान में आश्रय लिया ।

अजयसिंह और राणा हमीर सिंह


अजयसिंह ज्वरग्रस्त होने लगे, तथा चित्तौड के उद्वार की आशा उनके हृदय से बिल्कुल गयी न थी। वे कभी-कभी चित्तौड़ की बात सोच, शोक में डूब जाते और फिर आशा की उम्मीद से स्वस्थ हो जाते थे । कुछ दिन बीतने पर अजयसिंह बहुत ढूँढ़-खोज कर हमीर को उनके ननिहाल से अपने घर लाये तथा अपने शत्रु भील-सरदार मुज्जर के विरुद्ध हमीर को भेजा । हमीर ने प्रतिज्ञा की, कि-“यदि मुज्जर का सिर काट कर ला सका, तो देश लौटूगा, नहीं तो यही अंतिम भेट है।” राणा हमीर, कवच आदि पहनकर, अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर भील-शत्रु का पतन करने के लिये रवाना हुए तथा थोड़े ही दिनो में मुज्जर का सिर काटकर प्रसन्नचित्त से कैलबारे में लौट आये । उन्होने अजय सिंह से विनम्र शब्दों में कहा, – “ आध्य ! अपने शत्रु का सिर पहचान लीजिये ।” वींर-बालक हमीर का वीरत्व देखकर अजयसिंह अत्यन्त आनन्दित हुए तथा उनका मुख चुम्बन कर उन्होंने मुज्जर के सिर के रक्त द्वारा उन्हें राज-तिलक दिया ।

इससे अजयसिंह के पुत्रों की राज्य-प्राप्ति की आशा सदा के लिये दूर हो गयी । उनके एक पुत्र ने राज्य न पाने के शोक में प्राण त्याग कर दिया । दूसरा पुत्र दक्षिण में जा कर रहने लगा । इसी दूसरे पुत्र के वंश वीरश्रेष्ठ शिवाजी ने जन्म लिया था ।

हमीर का मेवाड़ के राणा होना


राणा हमीर सन् १३०५ ईस्वी में मेवाड़ के राणा हुए । हमीर राणा तो; किन्तु उनके राज्य नहीं, धन नहीं, सहायक नहीं, कोई भी नहीं, केवल वे ही अकेले थें । जो लोग सहायक थे, उनमें किसी ने बीते युद्ध में प्राण त्याग दिया था, तो किसी ने यवनों की अधीनता स्वीकार कर ली थीं । राजपूतो मे राजदण्ड ग्रहण करने पर “टीका डोरा” नामक एक वींरत्वपूर्ण अनुष्ठान करने का नियम था । उसी नियम के अनुसार वींर हमीर ने पितृव्य-वैरीके बलेचार नामक राज्य पर आक्रमण कर उसके “पसेलियाँ” नामक दुर्ग पर अधिकार कर लिया । उनका वीरत्व देख, सब लोग चकित तथा विस्मित हुए और सबके मन में चित्तौड़-उद्धार की आशा जागृत हो उठी ।

कुछ दिन बाद, महाराज अजय सिंह परलोक सिधारे । उनका श्राद्ध आदि कार्य हुआ । राणा हमीर उस समय से अपने जीवन भर-प्रायः साठ वर्ष तक युद्ध ही करते रहे ।

हमीर राजा होते ही चित्तौड़ उद्धार की चिन्ता में लगे । उनका हृदय, चित्तौड़ को पराधीन देख, दुख से फटने लगा । लेकिन उन्होंने दृढ़ संकल्प कर लिया, कि “जीवन रहते हुए, हाथ-पैर रहते हुए, हाथ मे तलवार रहते हुए, शरीर में प्राण रहते हुए, हम चित्तौड़ को पराधीन नहीं देख सकते; हम उसका उद्धार अवश्य करेंगे।”

वे समझ गये थे, कि वे अपनी मुट्ठी-भर सेना की सहायता से यवनों को किसी तरह हरा न सकेंगे; इसीलिये उन्होंने प्राण से भी प्रियतम चितौड़-भूमि का उद्धार करने की इच्छा से एक नयी रीति का अवलम्बन किया । इससे उनकी वचन का रास्ता साफ हो गया । वे बैरियों के लिये नगर आदि छोड, वहाँ के सुन्दर घर और विशाल अट्टालिकाएँ उजाड़ने लगे । उन्होंने चारों ओर प्रचार किया, कि “जो लोग महाराज हमीर की अधीनता में रहते तथा उन्हें राजा मानते हैं, उन्हें सपरिवार मेवाड़ के पूर्वीय और पश्चिमीय पहाड़ों में जाकर वास-स्थान बनाना चाहिये; यदि वे लोग ऐसा न करेंगे, तो वे देश को शत्रु समझे जायेगे और दण्ड पायेंगे।” यह घोषणा निकलते ही मेवाड़ वासियों के दल-के-दल मेवाड़-भूमि परित्याग कर पहाड़ो प्रदेश में जाकर वहीं नये घर बनाने लगे । थोड़े ही दिनो मे मेवाड़ उजाड़ हो गया और रास्ते जंगल बन गये । राजपूत उनमें छिपे रहकर बीच-बीच मे यवनो पर आक्रमण कर उनका वध करने लगे । मुसलमान बड़ी चेष्टा करके भी उनका पता न पाते । हमीर कैलबारा बारे में रहने लगे । पर्वतो का कैलबारा धन-जन-पूर्ण हुआ । राणा हमीर ने वहाँ एक “हमीर तालाब” खुदवाया । उसके घाट पर मेवाड की देवी का मन्दिर प्रतिष्ठित करवाया ।

राणा हमीर का विवाह


जिस समय मेवाड़ भूमि की ऐसी दशा थी, उसी समय तत्कालीन चित्तौड़-रक्षक मालदेव ने अपने घोर शत्रु हमीर के पास उनके हाथ अपनी कन्या सौंपने का सन्देशा भेजा । उस समय इसका कारण बहुत विचारने पर भी कोई समझ न सका । मन्त्रियों के हृदय में तरह-तरह की आशंकाएँ उत्पन्न हुईं, किन्तु हमीर निर्भय और निडर चित्त से किसी की बात न सुन, विवाह करने पर राज़ी हो गये ।

तरुण वींर राणा हमीर पाँच सौ घुड़सवारों सहित राज्य की ओर चले । दूर से ही चित्तौड़ का उन्नत दुर्ग शिखर दिखाई देने लगा । उसे देखकर हमीर चित्तौड़ का उद्धार करने की बात सोचने लगे तथा बोले,-“या तो चित्तौड़ का उद्घार करूँगा, या मैं इस पवित्र पितृराज्य के चरणों में अनन्त शय्या पर शयन कर आनन्द से स्वर्ग जाकर और पितृपुरुषों से मिलकर आनंद से दिन बिताऊँगा ।” इस तरह सोचते-सोचते वे चित्तौड़ नगर के पास पहुँच गये । चौहान के पाँचों पुत्रो ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया; किन्तु नगर के सिंह द्वार पर तोरण या विवाह सूचक कोई चिह्न न देखकर हमीर के मन में सन्देह हुआ तथा उन्होंने सोचा, कि शायद मित्रों की चेतावनी सच होगी, किन्तु इससे भी वे हतोत्साह न हुए ।

वे कुछ देर बाद चित्तौड़-दुर्गं के ऑगन में आ पहुँचे तथा वींरागना पुरुषों के किर्ति स्तम्भ देख, उनके मन में सुख और दु:ख दोनों उत्पन्न हुए । देखते-देखते अंदर मे प्रवेश किया । वहाँ मालदेव, उनके पुत्र वनवीर तथा अन्यान्य सरदारो ने बड़े आदर-सत्कार से उनका स्वागत किया; इसके बाद राणा हमीर विवाह-मण्डप में पहुँचे; किन्तु उन्होंने वहा भी विवाह का कोई व्यवस्था न देखा । मालदेव ने तुरन्त अपनी कन्या को लाकर उनके हाथों मे अर्पण किया; किन्तु इस बार भी परिणय-सूचक कोई कार्य न हुआ; केवल वर-कन्या का गठबन्धन हुआ और हाथ में हाथ पकडा दिया गया । मालदेव के पुरोहित से हमीर ने इसका कारण पूछा । पुरोहित ने कहा,”ठहरिये; समय आने पर सब बातें आप ही-आप जान जायेंगे।” हमीर इन बातों का अर्थ न समझ सका और अत्यन्त दुःखित और चिन्तित हुए । अंत में उन्होने अपनी नवपरिणीता पत्नी के कमरे में प्रवेश किया । वहाँ भी चिन्ता ने उनका पीछा न छोड़ा । नववधु हमीर का भाव देखकर उनके चरणों में गिर कर बोली,-“नाथ ! इस दासी का अपराध क्षमा करें । मैं समझती हू, कि पिता ने किस लिये यह कार्य चुपचाप किया है । यदि आज्ञा दें, तो मैं वह सब आपकी सेवा में निवेदन करूँ?” हमीर ने उस बालिका का मुँह बड़े ध्यान से देखा । यह देखकर हमीर ने उसे सादर और सस्नेह पैरों पर से उठा, अपने हृदय से लगा लिया । साथ ही उसे सारी बात कहने की आज्ञा दी । वह रमणी कहने लगी,-“प्राणेश ! यह दासी विधवा है; किन्तु विधवा समझकर मुझसे घृणा न कीजियेगा । कम उम्र में भट्ट वंशीय किसी राजकुमार से मेरा परिणय हुआ था; किन्तु किसी युद्ध में वे मारे गये । इतनी कम अवस्था में मेरा विवाह हुआ था,कि मुझे व्याह का स्मरण तक नहीं । उसी समय से मैं अनाथिनी विधवा हूँ;आज आपको पाकर पुनः सनाथ हुई और मेरे मन का सब दुख दूर हो गया ।“ बालिका के मुँह से प्रसन्नता के मारे और वचन न निकले । वह अपने पति से लिपटकर रोने लगी । राणा हमीर ने बालिका की सरलता, सत्य-प्रियता और प्रगाढ अनुरक्ति देख, उसके आंसू पोछे ।

उस समय राजपूतो में विधवा विवाह प्रचलित न था । विधवा-विवाह को उस समय के राजपूत घृणा और नीच दॄष्टि से देखते थे । आज मालदेव ने उनका जो अपमान किया, उसे उन्होंने प्रियतमा का मुँह देखकर भुला दिया । पतिप्राणा,सरल-अबला इस अपमान का बदला लेने के लिये पति को परामर्श देने लगी । उसने कहा,-“आप दहेज़ में जलधर नामक सरदार को मॉगियेगा ।” हमीर ने उसके कथनानुसार जलधर को मॉगा । मालदेव ने उसे प्रदान किया । कुछ समय बाद मे जलधर और अपनी स्त्री को साथ लेकर कैलबारा लौटे तथा चित्तौड़ के उद्धार का सुयोग ढूँढने लगे ।

राणा हमीर का चित्तौड़ पर अधिकार जमाना


कुछ समय बितने पर क्षेत्रपालसिंह नामक अत्यन्त सुन्दर नवकुमार पैदा हुआ । इस आनन्दोत्सव के उपलक्ष्य में मालदेव ने हमीर को अपना कुच प्रदेश प्रदान किया । इसी बीच एक ज्योतिषी ने गणना कर रहा, “चित्तौड़के देवता तुम्हारे पुत्र क्षेत्रपाल पर कुपित हैं ; इसलिये तुम लोग शीघ्र चित्तौड में जा बसो ।” हमीर की पत्नि ने स्वामी की सहायता पहुचाने का सुअवसर देख, दैव के क्रोध का सब हाल उसने अपने पिता मालदेव को लिख भेजा । मालदेव कुछ आदमियों सहित पालकी भेजकर अपनीं कन्या को अपने घर बुला लाये । उसने पिता के भवन में उपस्थित होकर देखा, कि उसके पिता अपने प्रधान-प्रधान वीरों सहित मीरों को दमन करने के लिये उनके देश जा रहे हैं । इसी समय हमीर की भाग्य ने उसका साथ दिया । उनके चित्तौड़ पर दखल जमाने का रास्ता खुला । हमीर की पत्नी ने जलधर से सलाह कर वहाँ की बची हुई सेना को अपनी मुट्ठी में कर लिया । हमीर दल-बल सहित चित्तौड़ के पास आ पहुँचे । वे बागोर नामक स्थान में सब प्रबन्ध कर तुरन्त चित्तौड़ में पहुँचे तथा अपने रणकौशल और वीरत्व से सभी बाधा को नष्ट कर उन्होंने चितौड़ पर अधिकार कर लिया । चित्तौड़ अधिकृत होने के बाद सबने हमीर की परधीनता प्रसन्नता-पूर्वक स्वीकार की ।

यथासमय शत्रुओ का दमन कर मालदेव चित्तौड़ लौटे । किन्तु उनका विजय आनन्द शीघ्र ही नष्ट हो गया । उनके दुर्ग-द्वार पर उपस्थित होते ही उनकी सेना ने बन्दूकों की खाली बाढे दागी । यह सब तमाशा देख, वे विस्मित हुए तथा नगर में प्रवेश कर, सब बातें जान, निराशा से इधर-उधर चक्कर लगाने लगे । उन्होंने देखा, कि उनके प्रधान-प्रधान सरदारों ने हमीर का पक्ष ले लिया है । कोई दूसरा उपाय न देखकर उन्होंने आल्लाउद्दीन के वंशज मुबारक खिलजी से अपनी दुख बतायी और निवेदन कीं। हमीर पितृ-पुरुषों के सिंहासन पर बैठकर बड़े आनन्द से चित्तौड़ के अधिपति हुए । हमीर के राजा होने से सारी प्रजा प्रसन्न हुई । पर्वतवासी सब लोग चित्तौड़ में आ-आकर बसने लगे । साधारण लोग शिशोदीय कुल-गौरव के उद्घारक हमीर को धन्यवाद देते हुए आनन्द पुर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे ।

मुबारक खिलजी का चित्तौड़ पर आक्रमण करना


हमीर की ओर से, मालदेव से युद्ध करने के लिये, अनेक लोग हमीर की पताका के नीचे आ एकत्र होने लगे । हमीर इन्हें सादर अपने पास रखकर युद्ध-शिक्षा देने लगे । इधर मुबारक ने मालदेव की आज्ञा से बड़ी धूम-धाम से चित्तौड़ पर धावा किया । मुबारक की सेना पर्वत प्रदेश में चलते-चलते बहुत ही थक गयी । कितने ही सिपाही पर्वत-पथ के कष्ट न सह सकने के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए । कुछ दिन बाद अनेक व्यय तथा अपार कष्ट भोगकर सिंगली नामक स्थान में पहुँचकर उन्होंने छावनी डाली । हमीर ने यह खबर पाते ही ससैन्य वहाँ पहुँचकर मुबारक पर चढ़ाई की । दोनों पक्षों में घोर युद्ध हुआ । घोड़ों के हिनहिनाने और हाथियों के चिग्घाङ़ने से युद्ध भूमि कॉपने लगी, देखते-देखते राजपूत शिशोदीय कुल गौरव राणा हमीर के अलौकिक साहस, वींरत्व और अनन्त बल-कौशल से यवन पराजित हुए । हारकर मुबारक कैद कर चित्तौड़ किले मे लाया गया । कारागार मे छ: माह भोग कर अजमेर,रितम्बर और शिवपुर तथा पचास लाख रुपये नगद और एक सौ हाथी नज़र कर मुबारक छूट पाया । मुबारक के विदा होने पर हमीर ने उससे कहा – “आप दिल्ली के सम्राट समझ कर डर से नहीं छोड़े जा रहे हैं । अपना राज्य समझ कर परम पूज्या चित्तौड़ नगरी को छीनने आकर आपने उसका फल पाया । यदि इच्छा हो, तो फिर चित्तौड़ पर आक्रमण कीजियेगा । आपके लिये यह तलवार सदा उत्सुक रहेगी।”

मालदेव की सब आशाए पूरी हो गयीं । उनके ज्येष्ठ पुत्र वनवीरसिंह ने हमीर की अधीनता स्वीकार की । हमीर ने उन्हें सादर ग्रहण कर मर्यादा के साथ दिन बिताने के लिये नीमच, जीयन, रतनपुर और कैरा प्रभृति स्थान प्रदान किये । चारों ओर हमीर के वींरत्व की चर्चा होने लगी । मेवाड़ के राजाओं ने उन्हें बड़े आनन्द से स्वेच्छापूर्वक नज़रे भेजीं तथा ज़रूरत पड़ने पर वे सेना और अस्त्र-शस्र आदि से उनकी सहायता करने लगे । राणा हमीर हमेशा वीर राजा हुए । चारों ओर के राजा उनकी आज्ञा का पालन करने लगे । हमीर ने चित्तौड़ को फिर से बनवाया और उसका उजड़ा हुआ रूप सुधार दिया । हमीर द्वारा प्रतिष्ठित यह राज्य मुग्रल सम्राट बाबर के समय तक वेसा ही समृद्धशाली रहा ।

राणा हमीर बहुत दिनों तक बड़ी योग्यता और प्रबल प्रताप से मेवाड़ का शासन करते हुए सन् १३६५ ई० में इस लोक से परलोक सिधारे ।

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